रामधारी सिंह दिनकर सिर्फ राष्ट्रीय चेतना के ही कवि नहीं हैं। वे सौंदर्य और प्रेम के भी कवि है। ‘कुरुक्षेत्र’ और ‘संस्कृति के चार अध्याय’ से आगे निकल कर जब हम उर्वशी पढ़ते हैं, तो यह महसूस करते हैं कि राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना का यह कवि संवेदना के स्तर पर कितना सुकोमल है। उसके मन में भी प्रेम और शृंगार की एक अलौकिक धारा बहती है तथा वह चंद्रवंशी राजकुल के पुरूरवा की नायिका उर्वशी बन कर प्रकट होती है। यह उर्वशी कौन है? और उसके माध्यम से दिनकर जी क्या कहना चाहते हैं? राष्ट्रीय चेतना के इस प्रखर कवि ने जब सौंदर्य, प्रेम और काम पर आधारित उर्वशी लिखी, तो यह एक तरह से उनकी धारा से विपरीत था। एक समय इस पर साहित्यिक विवाद भी हुआ।
दरअसल, दिनकर ने उर्वशी के माध्यम से मिथकीय आख्यान रचा। और इसमें उतार लाए स्वर्ग लोक की बेहद ही सुंदर अप्सरा को। देवताओं के शाप के कारण धरती पर आई इस सुंदरी पर पुरुरवा आसक्त हो गए। उर्वशी भी उनकी सादगी और उदारता पर रीझ गई। फिर दोनों के मिलन से पुत्र का जन्म हुआ। इसके बाद उर्वशी स्वर्ग लौट गई। मगर पुरूरवा उसके वियोग में सुधबुध खो बैठे। उर्वशी हर बार उसे संभालने के लिए स्वर्ग से लौट कर आती। इस तरह उनके पांच पुत्र हुए। यह जो आसक्ति है, क्या यह प्रेम है या वासना? दरअसल, कवि यह बताना चाहते हैं कि काम का ललित पक्ष प्रेम है।
मगर यह कैसा प्रेम है कि बार-बार ऐंद्रिक होकर भी पुरुरवा को संतुष्टि नहीं मिलती। वे एक दूसरे को स्पर्श करते हैं, फिर भी एक प्यास बनी रहती है। काम जब दैहिक धरातल से उठ जाता है तो वह अध्यात्मिकता की ओर बढ़ता है। दैहिक तृप्ति बेशक हो जाए, पर तृषा हमेशा बनी रहनी चाहिए। यही प्रेम की उत्कट जिजीविषा है। खुद अखंड सौंदर्य की अप्सरा उर्वशी भी यह स्वीकार करती है- कामनाओं के झकोरे रोकते हैं राह मेरी,/ खींच लेती है तृषा पीछे पकड़ कर राह मेरी।
रामधारी सिंह दिनकर की जयंती पर यहां प्रस्तुत है उनकी बहुचर्चित ‘उर्वशी’ से एक पठनीय अंश-
इसमें क्या आश्चर्य?
प्रीति जब प्रथम-प्रथम जगती है।
दुर्लभ स्वप्न समान रम्य नारी
नर को लगती है।
कितनी गौरवमयी घड़ी
वह भी नारी जीवन की,
जब अजेय केसरी भूल सुधबुध
समस्त तन-मन की,
पद पर रहता पड़ा,
देखता अनिमिष नारी मुख को,
क्षण-क्षण रोमाकुलित,
भोगता गूढ़ अनिर्वच सुख को!
यही लग्न है वह जब नारी,
जो चाहे, पा ले,
उड्डुपों की मेखला,
कौमुदी का दुकूल मंगवा ले।
रंगवा ले उंगलियां पदों की
ऊषा के जावक से,
सजवा ले आरती पूर्णिमा के
विधु के पावक से।
तपोनिष्ठ नर का संचित तप
और ज्ञान ज्ञानी का,
मानशील का मान, गर्व गर्वीले अभिमानी का,
सब चढ़ जाते भेंट, सहज ही
प्रमदा के चरणों पर,
कुछ भी बचा नहीं पाता
नारी से उद्वेलित नर।
किंतु, हाय,यह उद्वेलन भी
कितना मायामय है!
उठता धधक सहज
जितनी आतुरता से पुरुष हृदय है,
उस आतुरता से न ज्वर आता
नारी के मन में,
रखा चाहती वह समेट कर
सागर को बंधन में।
किंतु, बंध को तोड़ ज्वार जब
नारी के मन जागता है,
तब तक नर का प्रेम शिथिल,
प्रशमित होने लगता है।
पुरुष चूमता हमें अर्ध निद्रा में
हमको पा कर,
पर हो जाता विमुख
प्रेम के जग में हमें जगा कर।
और, जगी रमणी
प्राणों में लिए प्रेम की ज्वाला,
पंथ जोहती हुई पिरोती बैठ अश्रु की माला।
-उर्वशी (नर प्रेम-नारी प्रेम)
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