वंदना गुप्ता ll कक्षा-८
बचपन कल्पनाओं की दुनिया होती है। उसी कल्पनाओं के अनुसार बच्चे को भविष्य में क्या बनना है उसकी सोच और उसपर कार्य से जुड़े रहते हैं। ऐसे ही मोहक कल्पनाएं ‘केंद्रीय विद्यालय पंजाब लाइंस मेरठ कैंट’ द्वारा वर्ष 1988-89 में प्रकाशित स्कूल पत्रिका से मिली हैं । उन रचनाओं को अश्रुत पूर्वा की वेबसाइट पर प्रकाशित करते हुए हमें प्रसन्नता हो रही है ।
चप्पल चटकाते
पसीना बहाते
देखो चले आते हैं कल्लन मियां
बड़ा ही जुल्म है
मालिक का हुक्म है
जल्दी से लाइयो
दौड़कर जाइयो
दो दरजन केले और एक दर्जन मोसम्मियां
गर्मी के मारे, कल्लन बेचारे
भूल गये क्या लाना था
लौट चले थैले में लेकर
दो किलो बैंगन तथा एक किलो अम्मियाँ
मालिक ने डाँटा दिया एक चाटा
कल्लन भी ताव खा गये ।
अपनी पर आ गये
बोले मैं जा रहा हूँ
दो मेरी तनख्वाह
कौन रहे ऐसे मालिक के यहाँ
मालिक ने सोचा
नये नौकर कहाँ आसानी से मिलते हैं?
नये तो पुराने से ज्यादा तंग करते हैं
फिर कल्लन मियां तो बहुत सीधे हैं
तनख्वाह लेकर गिनते भी नहीं
मालिक ने मौके की नज़ाकत को सम्हाला
कल्लन के गले में हाथ डाला
बोले कल्लन तुम तो बचपन से हमारे साथ हो
तुम तो हमारा दाँया हाथ हो
तुम्हें कैसे जाने देंगे
कोई बात नहीं
केलों की जगह बैंगन ही खा लेंगे ।
साभार : केन्द्रीय विद्यालय पंजाब लाइंस मेरठ कैंट पत्रिका,वर्ष 1988-89
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