संगीता सहाय II
दंश
दृश्य- 1
आज वह बहुत खुश है। उसका पूरा परिवार आनंदातिरेक से नाच रहा है। पीसीएस की परीक्षा में चयनित होकर उसने अपनी मंजिल तक पहुंचने का रास्ता पा लिया है। पिछले कुछेक वर्षों से मिलती रही हार से उसके सपने कुम्हलाने लगे थे। अब पुन: उन सपनों में पंख उग आए हैं। अपने वजूद को स्थापित करने के लिए व्यग्र उसका आकुल मन चहकने और गुनगुनाने लगा है।
दृश्य- 2
नौकरी के बाद उसकी शादी को लेकर घरवालों की व्यग्रता बढ़ी है। आॅनलाइन और अखबारों में दिए गए वैवाहिक विज्ञापनों, रिश्तेदारों-परिचितों की कोशिशों की बदौलत अनगिनत रिश्ते घर तक चल कर आए हैं। उसे यह सब सपना सरीखा लग रहा है। उसने तो सोचा भी न था कि उस जैसी सामान्य रूप-रंग वाली लड़की को सब कुछ इतनी सहजता और सरलता से मिल जाएगा। बचपन से उम्र के इस दौर तक की दूरी उसने अपने रंग-रूप पर हुई अनगिनत टिप्पणियों के साथ ही तो तय की है।
दृश्य-3
परिवार वालों द्वारा उसके विवाह के लिए एड़ियां चटकाते दो वर्ष गुजर चुके हैं। उसके उच्चपदस्थ होने के बावजूद लोग मोटी रकम चाहते हैं। और इसमें उसके दहेज नहीं देने की प्रतिज्ञा आड़े आ रही है। कहीं उम्र (जाहिर सी बात है, अपने अथक प्रयास से अफसर की कुर्सी पाने वाली लड़की 22-23 वर्ष की तो रहेगी नहीं)। कहीं साधारण रंग-रूप, कहीं उसकी बेबाक छवि तो कहीं नौकरी छोड़ने की कथा। बात बस रुकती ही जा रही है…।
दृश्य- 4
आजकल वह स्वप्निल लड़की सोचने लगी है, मानसिक और आर्थिक रूप से सबल-सक्षम होने के बावजूद समाज में उसका स्थान क्या है? अपने वजूद को स्थापित करने की उसकी तमाम कोशिशें क्यों भोथरी साबित होने लगी है? विवाह जो कि स्त्री और पुरूष दोनों की समान जरूरत है, उसके लिए क्यों उसके व्यक्तित्व और पहचान को गौण किया जाने लगा है? दोहरी सामाजिकता के दंश से लहूलुहान वह लड़की चहकती लड़की अब फिर से रहने लगी है गुमसुम।
महान
मैंने तो बहनजी दान-पुण्य को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया है। अभी कल ही नुक्कड़ के मंदिर पर चल रहे सत्संग में मैंने दस हजार रुपए दान में दिए। हम सभी को एक न एक दिन इस दुनिया से जाना ही है, तो क्यों न कुछ अच्छा कर के ही जाया जाए।
वो दार्शनिकों की भांति बोले जा रही थीं। तभी घर के भीतर से कुछ टूटने की आवाज आती है। वो तेजी से अंदर की ओर लपकती हैं।
चटाक, चटाक…, कमबख्त! एक काम तू सही ढंग से नहीं कर सकती। इतना महंगा सेट बिगाड़ दिया। इस बार तेरा पगार आधा कर के दूंगी।
थोड़ी देर बाद बारह-तेरह वर्ष की बच्ची उदास चेहरे लिए चाय-नाश्ता लेकर आती है। और वो पुन: उसी अंदाज में चाय की चुस्की के साथ अपनी महानता का बखान कर रही थीं।
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