नरेश शांडिल्य II
कविता संकलन : अतृप्ता / कवयित्री : लिली मित्रा / पृष्ठ संख्या : 116 ,प्रकाशक : हिन्दयुग्म ब्लू , 201 बी , पॉकेट ए , मयूर विहार
कई किताबें एकदम ताज़ा बयार-सी होती हैं। ऐसी ही ताज़ा बयार-सी कविता की एक किताब से हाल ही में गुज़रा हूँ। लिली मित्रा की ‘अतृप्ता’ …। ‘अतृप्ता’ हिन्द युग्म ब्लू , दिल्ली से प्रकाशित इक्यावन कविताओं का कभी चौंकाता , कभी स्तब्ध करता एक अनूठा कविता-संकलन है।
क्या शब्द , क्या भाषा , क्या बिम्ब , क्या विधान , क्या भाव , क्या विचार , क्या तर्क , क्या सोच , क्या दृष्टि , क्या आस , क्या विश्वास , क्या समर्पण , क्या वियोग , क्या ज़िद्द , क्या साहस … हर दृष्टि से नव्य-नूतन , अनुभव-पगी , ईमानदार और असाधारण प्रस्तुति !
ये सब इसलिए और भी उल्लेखनीय और रेखांकित करने योग्य हो जाता है कि ये असाधारण-कविताएँ ख़ुद को ‘साधारण-सी’ समझने वाली स्त्री की व्यथा-कथा के उद्गम, विकास और अंतहीन-अंत की बानगी की तरह हैं। एक ‘स्त्री मन’ और ‘घिसे-पिटे स्त्री विमर्श’ को नए सिरे से समझने के लिए भी ये कविताएँ खाद-पानी-धूप का काम कर सकती हैं।
मैं उड़िया के कवि सीताकांत महापात्र की इस बात से अक्षरशः सहमत रहा हूँ कि “कविता कवि की एकांत-सत्ता होती है।” यह कवि की सामर्थ्य पर निर्भर करता है कि वो कैसे अपने इस ‘एकांत’ को ‘अनेकांत’ में तब्दील करता है और इस तरह से अपने ‘मैं’ को ‘हम’ तक या अपने ‘स्व’ को ‘सर्व’ तक विस्तृत करता है। तब दुनियाभर की पीड़ा उसकी आँखों में डबडबाने लगती है। कवि ख़ुद तो विकल होता ही है ; साथ-साथ अपनी इस निजी विकलता से वो औरों को भी विकल करने का कौशल अर्जित कर लेता है।
लिली मित्रा की कविताएँ आपको किताबी-किताबी या फ़रमाइशी-फ़रमाइशी नहीं लगेंगी। उनके अपने ही विशिष्ट और निजी विषय हैं। लीक से हटकर, फ़ैशन से दूर। लेकिन उनकी कविताओं को पढ़ते हुए आपको लगेगा कि हाँ ये भी आपके और आपके आसपास के विषय हो सकते हैं। अहसास की ईमानदारी, कविता के प्रति अगाध निष्ठा और निरंतर सक्रियता लिली मित्रा को एक सहज , सजग और समर्थ कवयित्री के रूप में सामने लाते हैं।
‘अतृप्ता’ में लिली मित्रा एक जगह कहती हैं –
“मैं तुम्हें विख्यात करती हूँ… / हे साहित्य ! / मैं तुम्हें आत्मसात करती हूँ …”
‘साहित्य को विख्यात करना’ ( ? ) , एकबार तो चौंकाता है। एक कवयित्री जिसका अभी पहला ही संकलन आया हो , वो साहित्य को संबोधित करती हुई कह रही है कि मैं तुम्हें विख्यात करती हूँ। एकबार तो यह गर्वोक्ति-सा भी लगा। लेकिन कुछ ठहरने पर लगा कि हाँ , दरअस्ल, ऐसा हो भी तो सकता है। बेशक , ये एक नयी सोच है, मगर, अगर हम ये कहते आए हैं कि रचना से रचनाकार की पहचान होती है तो रचनाकार से भी तो रचना की पहचान होती होगी ना ? रचना अगर हमें विख्यात करती है तो रचनाकार भी तो रचना को विख्यात करने का निमित्त बनता है। कवयित्री ने हिम्मत के साथ घोषणा की है कि “हे साहित्य ! मैं तुम्हें विख्यात करती हूँ” और इसप्रकार इस नयी कवयित्री ने नयी सोच के एक नये पहलू को नये बोध के साथ प्रतिपादित करने का ‘सुखद साहस’ किया है। हैरानी होती है कि यह कवयित्री का पहला ही संकलन है। यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि यह संकलन ऐसी ही अनेकानेक नयी सोच वाली साहसी कविताओं से भरा पड़ा है।
साहसी कविताओं की बात छिड़ी है तो एक ऐसी ही झकझोर देने वाली साहसी , यहाँ तक कि दुस्साहसी कविता है – ‘हाँ यह मेरा ही जलाया अग्निकुंड है’। अपनी ही विवशताओं में छटपटाती , कुछ न कर पा सकने वाले कातर-आक्रोश से भरी एक अस्मिताधर्मी स्त्री के भीतर धधकते ज्वालामुखी के , ख़ुद उसी के ही निर्मित अग्निकुंड में , भस्म हो जाने की दुस्साहसी-कवायत की तरह है यह कविता। इस कविता में धधकती-भभकती आहत-स्त्री के तप , ताप और तपिश को आप भी महसूसें –
” देखो इसके आस-पास / यज्ञ वेदी की दीवार मत बनाना / वेदों की ऋचाओं के पाठ कर / पवित्रता का पुष्प मत चढ़ाना / दावानल-सा दहकने दो / हाँ यह मेरा जलाया / अग्नि-कुंड है… / मुझे सब भस्म हो जाने तक / भड़कने दो …
“…एक चिटपिटाती छन्नाति आहहह / के बाद मैं चिरशांति में लीन हो जाऊँगी / ख़ुद को जलाकर ही / अब मेरा आत्म मुस्कुराएगा… / शायद यही मेरा सर्वश्रेष्ठ / प्रायश्चित कहलाएगा … / अब छोड़ दो मुझे / जलने दो …”
यह कविता भीतर तक हिला देती है। झकझोर कर रख देती है। हतप्रभ कर देती है। स्तब्ध कर देती है। इस कविता का ‘स्वयं निर्मित अग्निकुंड’ हर खुद्दार-स्त्री की सोच में है। और इसमें जलना या भस्म होना ‘ख़ुदकशी’ वाली सोच से भी सर्वथा भिन्न है। यही इस कविता की अकूत ताक़त है।
आदतन मैं कोई भी किताब उलटते-पलटते हुए पीछे से पढ़ना शुरू करता हूँ …
‘अतृप्ता’ पढ़ते हुए भी यही हुआ और संयोग से , ये किताब की ‘शीर्षक कविता’ भी थी ; यानि कविता का नाम था – अतृप्ता !
ये पुरुषों को चेताती हुई कविता थी। भीतर तक हिला देने वाली। इसका तेवर , इसका कलेवर और इसका फ्लेवर …सब कुछ मुझे एकदम अनूठा-सा लगा। कहा तो औरों ने भी ख़ूब है इस विषय पर , पर लिली के कहन का अंदाज़ ही कुछ और था। अहंकार में चूर पुरुषों द्वारा स्त्री को , हर लिहाज़ से , अपने से कम आँकने की सदियों से चली आ रही अवधारणा और ऐसी ही आरोपित मानसिकता के ख़िलाफ़ ये कविता एक ‘विनम्र-विद्रोह’ की तरह लगी। इस ‘विनम्र-विद्रोह’ में नारेबाजी नहीं थी बल्कि अपने स्त्रीत्व की अस्मिता और स्वाभिमान के ताप में ताया शौर्य था जो ख़ुद से रूबरू घमंडी-पौरुष की औक़ात और ज़ात को ललकार रहा था , चुनौती दे रहा था।
मैंने इस कविता को फिर से पढ़ा ; फिर पढ़कर , फिर से पढ़ा…।
ये कविता पुरुष को आँखें खोल देने वाली धिक्कार और नसीहतें देती दिखी कि हे पुरुष तुझमें मुझ अतृप्ता की प्यास बुझाने की सामर्थ्य ही नहीं है…मेरी प्यास तेरी तथाकथित मर्दानगी , दम्भ या दर्प से सने शारीरिक दमखम से नहीं बुझेगी बल्कि मेरी अतृप्त प्यास को शांत करने के लिए तुझे , मुझे सरापा ( सर से पाँव तक ) प्रेम में सराबोर करना पड़ेगा। यहाँ थोपे ‘मांसल-प्रेम’ के ऊपर स्वीकृत ‘आध्यात्मिक प्रेम’ को तरज़ीह दी गयी है। इस प्रकार ये कविता , ‘स्त्री को प्रेम से ही जीता जा सकता है’ वाले सिद्धांत को बेहद शिद्दत के साथ प्रतिपादित करती है। इसे लिली ने अपने ही रंग और ढंग के साथ हमारे सामने रक्खा भी है।
स्त्री-पुरुष संबंधों के द्वंद्व का पोस्टमार्टम करती और चढ़े नकाबों को खरोंचती इस अनन्यतम कविता में लिली मित्रा की निम्नोक्त पंक्तियाँ कविता के मर्म को समझने के लिए निहायत ज़रूरी हैं –
” मेरे वजूद पर अपने / अधिकारों के परचम / गाड़ लो तुम… / पर एक निश्चित गहराई / की पहुँच के बाद / का धरातल बस मेरा है… / और… / मेरे रसातल तक पहुँचने / की क्षमता तुम्हारे इस / अहंकार के परचमी डंड / में नहीं है … / क्योंकि मेरी गहराइयों / तक पहुँचने से तुम्हारे / पौरुष का आकार / कम होने लगेगा … / तुम्हारा अहम / आहत हो / यह तुम्हें कदापि / स्वीकार्य न होगा …/ मुझ तक पहुँचने / के लिए / तुम्हें … / आषाढ़ का वृष्टि मेघ / बनना पड़ेगा / मुझे अपने / प्रेमातिरेकित जल बिंदुओं / से सिंचित करना होगा…”
“… नेहजल पहुँचेगा / रसातल तक… / तब पोषित होगा / मेरा आत्म… / तुम्हारे प्रेम की / अविरल प्रविष्टियों से… / तब जाकर तृप्त होगी… / ये ‘अतृप्ता’ युगों युगों की…! “
यह कविता लिली मित्रा की अहम प्रतिनिधि कविताओं में से एक कही जा सकती है। दरअस्ल , यह कवयित्री की एक और ‘साहसी कविता’ है जो पुरुषवादी सोच को सच में आईना दिखाती है। यह भारतीय सोच की ताक़तवर कविता है। आयातित सोच की नहीं , जहाँ स्त्री-पुरुष संबंधों को केवल और केवल ‘भोगवादी नीयत’ से ही समझा-परखा जाता है। भारतीय समकालीन कविता साहित्य में नये स्त्रीविमर्श के नाते इस कविता को यक़ीनन विशेष दर्ज़ा दिया जाना चाहिए।
‘अतृप्ता’ की शीर्षक कविता की चर्चा के बाद ,उस कविता की पूरक कविता के रूप में, एक और उल्लेखनीय कविता है – ‘अपराजिता की अभिलाषा’… ; इस कविता की पहली ही पंक्ति चौंकाती है –
” मैं आत्माओं का संभोग चाहती हूँ ” ।
‘संभोग’ जैसे शब्द का प्रयोग ? वो भी स्त्री की क़लम से ? पहले तो लगा कि ऐसा शायद कवयित्री ने मात्र चौंकाने के लिए ही लिखा होगा , लेकिन , बाद में आगे पढ़ने पर कविता का कथ्य इस विचार को और भी अधिक उदात्तता प्रदान करता हुआ प्रेम के विविध ‘दैहिक क्रियाकलापों’ को ‘वैदेहिक सौंदर्यबोध’ से आलोकित करता हुआ, उक्त पंक्ति को हर दृष्टि से सार्थक करता दिखा। यही बात इस कविता को अनूठा और असाधारण बनाती है। कविता में सुंदर बिम्ब-विधान और विषयसम्मत शब्दविन्यास के सहारे संभोग के आत्मिक और आध्यात्मिक रूप को बड़े ही गरिमापूर्ण तरीक़े से वर्णित किया है।
जिस तरह अपनी ‘अतृप्ता’ कविता में कवयित्री ने मांसल-प्रेम के बरक्स आध्यात्मिक-प्रेम की वक़ालत की , उसी प्रकार अपनी बात को ‘अपराजिता की अभिलाषा’ में भी उसने दोहराया है। बल्कि इस कविता में उसका आग्रह और भी अधिक है। यह आग्रह इसलिए भी है कि आध्यात्म का रुख अधोगामी (नीचे की ओर) नहीं , ‘उर्ध्वगामी’ (ऊपर की ओर) होता है ; और सत-साहित्य का रास्ता भी अंततः उर्ध्वगामी ही होता है। हालांकि प्रेम को महसूसने , भोगने और इससे आनंदित होने का माध्यम ‘देह’ है ; परन्तु इस ‘देह’ के रहते हुए भी तो ‘विदेह’ हुआ जा सकता है। प्रेम अगर पवित्र है तो उसका रास्ता भी यही होना चाहिए। प्रेम मात्र दो शरीरों का नहीं अपितु दो आत्माओं का महामिलन है। इसमें वासना का कोई स्थान नहीं है। कविता के कुछ अंश देखिए –
” मैं आत्माओं का संभोग चाहती हूँ / वासनाओं के जंगलों को काट / दैविक दूब के नरम बिछौने / सजाना चाहती हूँ “
” करवाऊँ शृंगार स्वयं का तुमसे / हर अंग को पुष्प सम सुरभित / खिलाना चाहती हूँ “
” … खिल उठेगा भगपुष्प भुजंगीपाश से / प्रीत का रस छोड़ देंगी पुष्प शिराएँ / यह रसपान तुम्हें कराना चाहती हूँ “
“… भौतिकता का भँवर अब नहीं सुहाता / संतुष्टि की जलधि में ज्वारभाटा बन / अपने चाँद को छूना चाहती हूँ… /
मैं तुम संग आत्मिक संभोग चाहती हूँ “
अपनी अलंकृत सामासिक-शब्दावली और बिम्ब-वैशिष्ट्य के कारण भी इस कविता का सौंदर्य पाठकों का ध्यान आकृष्ट करता है। बंगाली कवयित्री के शब्दों में कहीं-कहीं बांग्ला का पुट भी नज़र आता है। वासनाओं के जंगल, दैविक दूब के नरम बिछौने , मदमाती अँगुलियों की चहलक़दमी , तन की अपराजिता बेल , उच्छावासों की बयार , भगपुष्प , भुजंगीपाश , भौतिकता का भँवर … आदि आदि शब्द-समूह उपमाओं और अलंकारों की दृष्टि से भाषायी सौंदर्य के अनुपम उदाहरण हैं।
इसप्रकार ‘अतृप्ता’ की यह कविता अनेकानेक दृष्टियों से , अनेकानेक कसौटियों पर खरी उतरती है। निसंदेह यह एक ‘बोल्ड’ कविता है। संभोग जैसे विषय , जिस पर अच्छे-अच्छे धुरंधर क़लम चलाने से झिझकते हैं, डरते हैं… ऐसे विषय को , अपने पहले ही संकलन में, बड़े ही सलीक़े और करीने से लिली ने बड़े ही साहस और नेकनीयती के साथ हमारे सामने रखा है। और तो और , वासना से परे , संभोग के आध्यात्मिक ताने-बाने को दो आत्माओं के पवित्रतम-मिलन के रूप में पेश किया है।
यक़ीनन बहुत ही बेहतरीन कविता है – ‘अपराजिता की अभिलाषा’ , जिसके कारण अतृप्ता की चर्चा होती रहेगी।
कविता- संकलन ‘अतृप्ता’ की कुछ अति विशिष्ट ‘साहसी’ कविताएँ यथा – ‘हाँ यह मेरा ही जलाया अग्निकुंड है’ , ‘अतृप्ता’ और ‘अपराजिता की अभिलाषा’ पढ़ने के बाद , एक बात तो तय है कि लिली की कविताओं में ऊँचाई भी है और गहराई भी। स्त्री-पुरुष संबंधों से संबंधित मनोविज्ञान की बारीकियों पर भी उनकी पकड़ बहुत मज़बूत है ; और उनकी उक्त कविताओं में वो क़ूवत भी है कि उन्होंने ‘नारेबाजी’ के इस वाहियात शोर में भी ख़ुद को बड़े ही मनोयोग के साथ ‘मंत्र’-सा साधा है।
उक्त कवितायों की विस्तृत चर्चा मुझे बहुत ज़रूरी लगी, सो मैंने की भी। अब ‘अतृप्ता’ की कुछेक और कविताओं पर भी नज़र डालते हैं…
एक ध्यान खींचती कविता है – ‘मेरी निराशाओं के अंधकार’ … अपने अतीत की सभी चीज़ों से प्यार है कवयित्री को। क्योंकि उसका मानना है कि आज जो भी उसकी शख़्सियत है, उस सब में सभी चीज़ों का पूरा-पूरा हाथ रहा है ; फिर चाहे वो जीत से पहले की हार हो , आशा से पहले की हताशा हो या उजास से पहले का अँधियार…! दरअस्ल , उसे अपने जीवन के ‘कृष्ण-पक्ष’ के प्रति अजीब-सा प्यार उमड़ आया है ; और ऐसे में वो अपने ‘शुक्ल-पक्ष’ को भी पास फटकने नहीं देना चाहती। उसके लिए उसका अंधकार पवित्र है –
” शीतलता मिलती है मुझे इस अंधकार से … / हल्के से प्रकाश की ऊष्मा भी अब सह्य नहीं… / मुझे रहने दो मेरे अँधेरों में… / यही मेरे सच्चे साथी… “
” हे मेरे आशाओं के प्रकाश ! / अभी तुम मेरे क़रीब न आओ…”
‘अतृप्ता’ की कवयित्री के प्यार करने का ढंग भी एकदम अनोखा है। उसमें शिद्दत है। उसमें अपनी तरह की प्यारी-सी ज़िद है। किसी की नकल नहीं बल्कि अपनी बनाई एक नकेल है , जिसके ज़रिए वो अपने प्रेय को गिरफ़्तार रखना चाहती है। ऐसे ख़याल ताज़गी का एहसास कराते हैं।
‘मेरे रोज़नामचे’ में प्यार की ऐसी ही हसरतों से हम रूबरू होते हैं –
” तब क़लम से नहीं… / लिखूँगी अपनी अंगुलियों से / तेरे सीने पर /अपनी कसमसाती /मोहब्बत की नज़्म को… / कर दूँगी मेरा वजूद / तुझमें तार-तार / हर तार में गूँथ लूँगी तूझे / इतनी शिद्दत से… / के तू मेरी गिरफ़्त से / कभी हो न सकेगा आज़ाद / तब तक… / मेरे ‘रोज़नामचे’ दर्ज़ होते रहेंगे… / मेरी क़लम से… / तेरी स्याही से… / मेरे दिल के काग़ज़ पर / रोज़… हर रोज़… “
स्त्री को देखने-सोचने को लेकर भी कवयित्री की अपनी सोच और अपना नज़रिया है। तथाकथित स्त्रीविमर्श के प्रपंचों , चौंचलों और ढकोसलों से इतर , वो नयी दृष्टि से स्त्री को देखने-समझने की पक्षधर रही हैं। उनकी नज़र में स्त्री कोई विषयवस्तु नहीं है। ‘मुझे विषय मत बनाइये’ कविता में इस बात को लेकर वे बड़े ही आग्रहपूर्णअंदाज़ में हमारे सामने अपनी बात रखती हैं –
” इंसान मैं भी हूँ मुझे / विषय मत बनाइये / मेरे स्त्रैण को / मेरा मानवीय गुण समझिए / इसे प्रतियोगिताओं , मोर्चों / और दिवस की चर्चा मत बनाइए / उसे इंसान रहने दीजिए / विषय मत बनाइए…”
एक बड़ी ही मार्मिक कविता है – ‘तकिए’।
एक महा-भावुक स्त्री ही ऐसी कविता लिख सकती है। भीगे-भीगे मन से लिखी गई लिली की इस कविता में घुटी-घुटी स्त्री के सिसकते-सुबकते मन का रसनातीत प्रस्फुटन है। ये कविता , आँसुओं के सैलाब को सोखते तकिए की कहानी भी है जो कई-कई तरहों से स्त्री का ‘सहारा’ बनता है –
” दर्द से दुखते बदन को / इस मसनदी सहारे पर टिकाती है… / दोनों बाहों में भींच / दिल के दर्द को दबाती है / बेचैनी को मुस्कान से छुपाती है / ए ज़िन्दगी ! तू दर्द के साथ / उन्हें दबाने के नुस्ख़े / भी बताती है…”
लिली मित्रा जब ग़ज़लनुमा-कविताई की तरफ़ मुख़ातिब होती हैं तो ग़ज़ल के रंग से वो भी बच नहीं पातीं। उनका मन भी जिस्मानी होने लगता है ; रूमानी होने लगता है। रूहानियत की वक़ालत करते अपने ही एक मन की बात वे सुनने को तैयार तक नहीं होतीं… दिल है कि मानता नहींssss… ‘यूँ सताया न करो’ की दिलकश शायरी में उनका रंग आशिक़ाना है… उनकी ये प्यारी-सी ‘पार्टटाइम-आशिक़ी’ भी अच्छी लगी –
” क़रीब बैठो कभी काँधों पर सिर टिकाऊँ मैं /रूहानी दलीलें दे मुझे , यूँ बहकाया न करो…”
‘तुम टेसू के जंगल’ की नायिका अपने रूखे-सूखे बीहड़-से अरावली-मन में टेसू के फूलों की चटख रंगत समा लेना चाहती है और एक उजाड़ में हरा होना चाहती है।इस कविता का प्राकृतिक बिम्बविधान और सौंदर्यबोध प्रेम को एक नये ही आस्वाद से रचता आगे बढ़ता है –
” खिले रहना यूँ ही / सदा मेरी उरभूमि पर… / तुम पर निकाल कर / अपने कँटीले , चुभीले / उद्गार… / शायद मैं फिर हरी हो जाऊँ। “
एक और शानदार लम्बी कविता है –
‘सुनो मेरे वट’ … इस कविता में कवयित्री अपने प्रेम का हाथ थाम वट वृक्ष की जड़ों के रास्ते पाताल की अथाह गहराइयों को नापा है ; उसकी छाँव में ख़ूब सुस्ताया है ; उसकी लटकती जड़ों की आगोश में ख़ुद को ख़ूब जकड़वाया है। इस कविता का अंत भी लिली की अधिकांश कविताओं की तरह अत्यन्त सारगर्भित है –
” मेरा वाह्य चाहे जो भी कहता हो… / पर मेरा अन्तर बस… / तुममें ही गहता है… / तुमको ही कहता है… / तुमसे ही बहता है… “
पेश हैं ‘अतृप्ता’ कुछ अन्य कविताओं के कुछ और अंश जो स्वयं में ही स्वयं की व्याख्या हैं –
” हो प्रसन्न मेरे / तप अर्चन से / जब वह खोलेगा / अपने योग मुदित / नयन , देखेगा मुझे , / सत्यम शिवम सुन्दरम / दृष्टि से , मैं शिवमयी / हो उसे ख़ुद में समाहित / कर , बह जाऊँगी… / बन भाव भागीरथी / स्वर्ग से धरा तक / अंतस से वाह्य तक / शिव सम , साहित्य मेरा…”,
(‘शिव सम साहित्य मेरा’ से …)
” बना गिलहरी-सा / मन मेरा… / फुदक रहा हर डाल / पात पर… / अधिकार समझ मैं / फिरूँ निडर- सी… / बैठ शाख पर तोड़ूँ / फलियाँ…”
“साजन तुम्हरे मन की / गलियाँ…”
“प्रेम तुम्हारा पाकर / प्रीतम / चपल भईं मेरी स्वर- / ध्वनियाँ / दिखने में मैं लगती / भोली… / तुम सँग जागी मन / रँग-रलियाँ… “
” साजन तुम्हरे मन की / गलियाँ…।”
(‘मन गिलहरी’ से …)
“जब तुम पर गुस्सा / आता है… / आटा अच्छा गूँथ / जाता है… / जब तुम पर प्यार / आता है… / सब्ज़ी का स्वाद / बढ़ जाता है… / जब तुमको / बाहों में कसने / का दिल चाहता है… / कपड़ों का पानी / ख़ूब अच्छे से / निचुड़ जाता है… / फिर कैसे कहूँ / कि मैं तुम्हें ‘मिस’ / करती हूँ ? “
(‘आई मिस यू’ से…)
” जब ज़मीनी / पत्थरों पर चल कर /थक जाती हूँ… / मैं दौड़ कर अपने / स्वप्निल कोने में / छुप जाती हूँ …”
” अपने जख़्मों को / नदिया के मीठे / पानी से नहलाती हूँ… / फिर देर तक किसी / पेड़ की घनी छाँव / तले बैठ, / कुछ नए ख़याली गजरे / बनाती हूँ… / बड़े प्यार से उन्हें / अपनी चोटी में फँसाती हूँ… / उसकी ख़ुशबू से लिपट / कुछ पल वहीं / सो जाती हूँ… “
” एक नींद पूरी कर / मैं वापस धरातल / पर लौट आती हूँ… / और रोज़ के कामों / में किसी मशीन-सी / जुट जाती हूँ…”
(‘मेरे मन का मधुमासी कोना’ से …)
” कई बार टूटी हूँ , कई बार / जुड़ी हूँ , यह मेरा व्यक्तित्व / यूँ ही नहीं गढ़ गया, असंख्य / छोटी-बड़ी लहरों में घुली हूँ / भँवर में खिंची हूँ , तब कहीं / अनुभवी हिंडोलों संग / तट तक पहुँचती, देखो / मैं चली आ रही… / मैं बही आ रही…”
(‘समुद्री लहर-सा पाती हूँ’ से …)
कहते हैं कि किसी भी रचनाकार के मेयार को जानना हो तो उसकी पाँच रचनाओं को अच्छे से पढ़-सुन लें , पता चल जाएगा कि वो कितने पानी में है…
यानि नमूने के कुछेक दाने ही बता देते हैं कि बोरी में भरे सामान की क्वालिटी कैसी है। यहाँ पर तो हम लिली मित्रा की अनेक बेहतरीन कविताओं की अनेक झलकियों से रूबरू हो चुके हैं। उनको अनेक कसौटियों और अनेक मानकों पर कस चुके हैं। उनकी जादुई छुअन से रोमांचित हो चुके हैं। अतः ‘इति सिद्धम’ की तर्ज़ पर कहा जा सकता है कि लिली मित्रा की ‘अतृप्ता’ अनूठी और अनन्य कविताओं की एक असाधारण किताब है।
सभीकुछ को समाहित करते हुए , कुल मिलाकर कहें तो समकालीन कविता साहित्य की तथाकथित ‘मुख्यधारा’ के समानान्तर , लिली मित्रा ने अपने पहले ही कविता संकलन ‘अतृप्ता’ के कावित्य में अपनी एक अलग ही ‘मुक्तधारा’ बनाई है –
- इसमें उनका अपनी तरह का अलग ही जीवट है ,अलग ही साहस है और यह साहस अव्वल दर्ज़े का ज़िद्दी भी है और विवेकशील भी ; ख़ुद में ही ख़ुद को स्वाह करते हुए जीने के अनूठे अंदाज़ की तरह ;
- इसमें स्त्री विमर्श को लेकर एक आयातित नहीं अपितु सर्वदा मौलिक भारतीय सोच है , जिसका स्वरूप सत-शिव-सुंदर है ; ‘एनजीओ’ टाइप उथली सोच से बिल्कुल अलग (हाँलाकि , स्त्रियों को लेकर व्यक्त ये ‘लिलीमित्राई-सोच’ कइओं के हलक में अटक भी सकती है) ;
- इसमें प्रेम का रूप दैहिक नहीं, आध्यात्मिक है ; रूहानियत से सराबोर रूमानियत है ; दो शरीरों का नहीं दो आत्माओं का सम्भोग है ; अश्लीलता और शालीनता की बारीकियों को जानती और जनाती समझ है; स्वछंदता पर मूल्यों और संस्कारों का स्वैच्छिक दबाव है ; और अपने प्रेम-पगे ‘दर्द’ को ‘दवा’ में तब्दील करने वाला ग़ज़ब का हुनर भी है ;
- इसमें सहज , समृद्ध और सटीक शब्दावली का कलात्मक प्रयोग है ; शब्दों और शब्द-समूहों में अजीब-सा बंगाली-तिलिस्म है ; बिम्बों और प्रतीकों का अलौकिक सौंदर्य है ;
- इसमें भावों का सैलाब भी है और वैचारिक तेजस्विता भी ; यानि बोझिलता से दूर सार्थक वक्तव्यों से लैस बिंदास कविताई , जिसमें शिल्पगत कसाव भी है और मुक्तछंद के मानकों पर खरा उतरता वैशिष्ट्य भी ;
अगर सशक्त , साहसी और स्वाभिमानी स्त्री से रूबरू होना है तो लिली मित्रा की ‘अतृप्ता’ को ज़रूर पढ़ें ; अगर कविता के अनन्य , अनूठे और असाधारण स्वरूप से रूबरू होना है तो लिली मित्रा की ‘अतृप्ता’ को ज़रूर पढ़ें ; अगर नये भावबोध , नये सौंदर्यबोध और नये दृष्टिबोध से रूबरू होना है तो लिली मित्रा की ‘अतृप्ता’ को ज़रूर पढ़ें।
लिली मित्रा की ‘अतृप्ता’ , यक़ीनन , आत्मखोह में फैले एक विराट की तरह है , जो स्व से सर्व तक की यात्रा करती है। मुझे यक़ीन है कि इस संकलन की शतरूपा कविताएँ अपने पाठकों को न केवल तृप्त करेंगी बल्कि नये सिरे से उनमें वो प्यास भी जगाएँगी कि वे लिली मित्रा के अगले आने वाले कविता-संकलन के भी शिद्दत से मुन्तज़िर रहें।