राधिका त्रिपाठी II
…मुड़ कर जाते हुए वह अनुराग को पीछे से आवाज देकर वह रोकती है। सुनो, अनुराग। हां… बोलो पल्लवी। देखो तुम यहां बिलकुल परेशान मत हो। तुम्हें यहां खाने और रहने की कोई दिक्कत नहीं होगी। तुम जब तक चाहो, तब तक आराम से, बिना किसी झिझक के रह सकती हो। और फिर मै तो हूं ही। एक फोन पर हाजिर हो जाऊंगा।
अभी अनुराग कुछ और बोलने के लिए मुंह खोलने ही वाला था कि पल्लवी झूले सी लटक गई उसके गले में। पल्लवी की इस हरकत के लिए अनुराग बिलकुल तैयार नहीं था। वह पीछे हटते हुए बोला, तुम न बच्ची ही रहोगी हमेशा। अब तो बड़ी हो जाओ। उसके बाहर जाते ही पल्लवी को भूख सताने लगी। वह सिल्वर फाइल से मुड़ी हुई रोटियां निकाल कर सब्जी के साथ खाने लगी। उसे लगा कि उस घर से कहीं ज्यादा ये रोटी स्वादिष्ट है। आखिर जीने के लिए क्या चाहिए? दो रोटी दो जून की और दो सेट कपड़े। फिर इतने सालों तक वह अपने आत्मसम्मान का गला घोंट कर क्यों उस घर में रही।
वह जानती है कि एक अकेली औरत के लिए बाहर निकल कर रहना और कमाना कोई आसान काम नही। लेकिन जीना भी तो आसान नहीं। मगर लोग जीते ही हैं। वह जानती है कि वह जहां खड़ी होगी, राहें वहीं से शुरू हो जाएंगी। अब उसे रोटी बनाने के साथ साथ रोटी कमाना भी है। लगभग दो सप्ताह बीत जाने के बाद कई आफिस के चक्कर लगाने के बाद भी उसे कोई जॉब नहीं मिली। उसकी हिम्मत जवाब देने लगी। लेकिन वापसी की राह वह बंद करके ही निकली थी घर से। इतने सालों में कुछ भी नहीं बदला। न ही उसके पति का रवैया न ही घर वालों का व्यवहार उसके प्रति।
… वह सुबकने लगी। याद आया कि कैसे रोटी सेंकते समय उसे बालों से पकड़ कर घसीटते हुए किचन से डायनिंग रूम में लाया गया और उसके माता पिता को भद्दी गालियां देते हुए उसके मुंह पर पैर लगाया गया। आखिर क्या गलती थी उसकी। वह बातों को आसानी से समझ नहीं पाती थी। सबकी तरह दोहरा चरित्र नहीं निभाती थी। जो वह बाहर दिखती थी, वही अंदर से भी थी। सर को झटकते हुए वह खाना खत्म कर लेट गई।
उसके बाहर जाते ही पल्लवी को भूख सताने लगी। वह सिल्वर फाइल से मुड़ी हुई रोटियां निकाल कर सब्जी के साथ खाने लगी। उसे लगा कि उस घर से कहीं ज्यादा ये रोटी स्वादिष्ट है।
आंखें बंद कर पल्लवी सोचने लगी कि घर की दहलीज लांघते हुए वह कहीं और भी जा सकती थी। किसी रिश्तेदार या सहेली या अपने माता पिता के घर क्यों नहीं गई वह। उसे जीवन के इस मोड़ पर अपने साथ पढ़ने वाला वह भोला-भाला यह लड़का ही क्यों याद आया। वह भी इतने सालों बाद उसे याद रखा होगा कि नहीं…!! तुरंत वह अपनी डायरी ढूंढ कर उसका नंबर खोजती है और मिलाते हुए सोचती है… पता नहीं उसने कहीं नंबर चेंज तो नहीं कर दिया होगा?
उधर से हेलो की आवाज सुनते ही पल्लवी ने शरारत भरी आवाज में कहा, लालू तुमने अभी तक अपना नंबर नहीं चेंज किया। अनुराग भी हंसते हुए बोला, अगर बदल दिया होता तो तुम फोन कैसे कर पाती। ओह। अच्छा जी तो सुनिए मैं घर छोड़ कर आ रही। तुम मेरे रहने का इंतजाम कर दो कहीं। लेकिन अपने घर में मत रखना। वरना बीबी से मार पड़ेगी तुम्हें।
अनुराग पल्लवी के स्वभाव से अच्छी तरह वाकिफ था। वह जो बोलती, तुरंत करती। सोचती बाद में..। उसने कहा, तुम कब निकलोगी? पल्लवी बोली, अभी तुरंत। वह दो जोड़ी कपड़े लेकर तितली की तरह खुले आसमान की तरफ देख कर बोली, मैं आ रही हूं चमकने…। मुझे अब इस घुटन से निकलना है। पल्लवी ने पाया कि उसके पीठ पर रंगीन पंख उग आए हैं।
बिस्तर पर लेटे हुए पल्लवी ने सोचने लगी, क्या मैं हार मान लूं? नहीं, मुझे लड़ना होगा। आत्मनिर्भर बनना होगा। तभी उसका मोबाइल फोन बज उठा। यह अनुराग का फोन था, पल्लवी निराश होने की जरूरत नहीं। तुम्हें मेरे दफ्तर में आफिस असिस्टेंट की नौकरी मिल गई है। अपने सर्टिफिकेट तैयार रखो। कल मेर साथ चलना। … यह सुन कर पल्लवी की पलकों से खुशियों के आंसू मोतियों की तरह ढुलक पड़े हैं…।