कविता काव्य कौमुदी

पृथ्वी यात्रा पर है

डा. राजीव सक्सेना II

पृथ्वी पर्व यात्रा पर है,
और
तुम स्वागत नहीं करोगे!

उन्मादकारी पवन
दशों दिशाओं में
श्वेत सितार पर
अभिनंदन में
जयजयवंती को उचार रहा है,
प्रकाश द्रव्य हो गया है
समय स्तंभ पर,
सूरज और  चंद्रमादीपित हैं,
महा ज्योति बन कर,
विराट जीवन
आलाप ले रहा है
इंद्रधनुषी सप्तक में,

पृथ्वी योग यात्रा पर है
और
तुम स्वागत नहीं करोगे!

हरीतिमा के पुष्प और
जल द्रव्य से स्वागत हो –
वर्षा कीअभीप्सा है…..,
प्रकृति की प्रतीक्षा है, कि,
गगन के नीलाभ ध्वज
शुद्ध अंतरिक्ष में लहरें
शीत चंद्रिका के महानंद में,
ऋतु राज गंध बन
बिखर जाए आनंद में,
परिमल प्रीति का
पराग केसर उड़ जाने दो
जीवन जलज कांति में,

पृथ्वी  लोक यात्रा पर है,
और
तुम स्वागत नहीं करोगे!

रात्रि जाग रही है
तारक बन कल्पों से
सूरज चैतन्य है
ऊष्मा बन प्रकल्पों में,
मरु, सागर और शिखरनग
अद्भुत सौंदर्य की  
व्यक्ति बनेंगे

सु स्वीकृति देंगे संकल्पों में,
नेति नेति तक
आश्चर्य के प्रतिमान में
होता ही रहेगा
स्पंदन विकल्पों में,

पृथ्वी धर्म यात्रा पर है
और
तुम स्वागत नहीं करोगे!

इला की तीर्थयात्रा
मंगलमई हो जाने दो,
मत रोकना राजनंदिनी
के जीवनरथ चक्रों को,
सहयात्री बनना ही
विस्मयी आलिंगन  है
अखंड प्रीति  चिन्ह का,
आदि से अनादि तक
मत टोकना इसको
बज जाने दो जीवन का साम,
यात्रा गीत पूरा होगा ही
ऋतुओं के उद्यान में,

पृथ्वी चक्र यात्रा पर है
और
तुम स्वागत नहीं करोगे!

कविता

मानसी सी क्षत्र धारे
शब्द के विन्यास में
काव्य रूपा भाव सरिता
अलंकरण प्रभास में,

लोक के त्रिरत्न से
साजे हुए ह्रीम पात्र से
मंगलम स्तव लुटाती
बोधिमंडल गात्र से,

स्वास्तिक पदचिन्ह छूटे,
समय की शालभंजिका,
लोक में शुभ भी अशुभ भी
युगल द्वय, मधुवाहिका,

दृष्टि में अंकित करेगी
चिर शुभम श्री चिन्ह सी,
कल्पवृक्षा है युगों की
तुष्टि देगी  प्रीति सी,

जनम के सद पुण्य की
संचित सुधा, स्रोतस्विनी,
कल्प के अंतस ह्रदय की
कामना प्रबोधिनी,हर कोई तो लिख रहा है
आत्म कविता, मधुपगी ,
आदि से जीवन कथा तो
केलि बन बहने लगी

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