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लड़कियों को मुख्यधारा की शिक्षा में लाने के लिए सफीना को पुरस्कार

अश्रुत पूर्वा II

नई दिल्ली। सफीना हुसैन को भारतीय गांवों और कस्बों में स्कूली पढ़ाई बीच में छोड़ देने वाली लड़कियों को मुख्यधारा की शिक्षा में लाने के लिए वाइज पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। सफीना स्वयंसेवी संगठन ‘एजुकेट गर्ल्स’ की संस्थापक हैं। वे ‘वाइज’ पुरस्कार पाने वाली दूसरी भारतीय हैं। इससे पहले यह पुरस्कार ‘प्रथम’ के सह-संस्थापक माधव चव्हाण को लाखों वंचित बच्चों को शिक्षा देने के लिए दिया गया था।
करीब चौदह लाख लड़कियों को शिक्षा से जोड़ने वाली सफीना को पुरस्कार के अंतर्गत पांच लाख डॉलर की राशि दी जाएगी। वे यह पुरस्कार पाने वाली पहली भारतीय महिला हैं। इस पुरस्कार की घोषणा के बाद उन्होंने कहा कि इक्कीासवी सदी में भी ऐसे गांव हैं जहां बकरियों को संपत्ति माना जाता है पर लड़कियों को बोझ माना जाता है। सफीना ने कहा कि सोलह साल पहले जब लोगों ने बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का नारा भी नहीं सुना था, तब उन्होंने पढ़ाई बीच में ही छोड़ने वाली लड़कियों के लिए गैर सरकारी संगठन ‘एजुकेट गर्ल्स’ स्थापित करने का फैसला किया।
सफीना 14 लाख लड़कियों को स्कूली शिक्षा से दोबारा जोड़ चुकी हैं। लड़कियां स्कूल क्यों छोड़ देती हैं, इस पर उन्होंने कहा कि इसकी वजह गरीबी से लेकर पितृसत्ता तक कई कारण हैं। उन्होंने कहा कि शिक्षा बीच में छूटने का कड़वा अनुभव उन्हें तब हुआ जब पारिवारिक कारणों से वे तीन साल तक पढ़ाई नहीं कर पार्इं। तब उनके एक रिश्तेदार ने मदद की और उन्हें लंदन स्कूल आफ इकोनोमिक्स में दाखिला मिल गया। तभी उन्होंने फैसला किया कि वे पढ़ाई बीच में छोड़ने वाली लड़कियों की मदद करेंगीं।
बता दें कि सफीना हुसैन दिवंगत अभिनेता यूसुफ हुसैन की बेटी हैं। वे फिल्म निर्माता हंसल मेहता की पत्नी हैं। सफीना को पिछले दिनों वर्ल्ड इनोवेशन समिट फार एजुकेशन (वाइज) सम्मेलन के ग्यारहवें संस्करण में कतर फाउंडेशन ने इस पुरस्कार से सम्मानित किया। वाइज पुरस्कार शिक्षा के क्षेत्र में दिए जाने वाले प्रतिष्ठित पुरस्कारों में से एक है।
सफीना ने लड़कियों को शिक्षा से जोड़ने के लिए जब ग्रामीण राजस्थान से मुहिम शुरू की तो उन्हें कई अड़चनों का सामना करना पड़ा। एक तरफ परिवार का असहयोग तो दूसरी तरफ लड़कियों की अनिच्छा। अब उनकी टीम बालिका गांव-गांव जाकर और हर घर तक पहुंच कर मालूम करती हैं कि कोई ऐसी लड़की तो नहीं जो स्कूल नहीं जा रही। उनके प्रयास को अब पहचान मिलने लगी है।  

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