यात्रा संस्मरण

परी टिब्बा (यात्रा वृतान्त)

चित्र गूगल

अजय कुमार II

सुना है ,पुराने जमाने में, मेरा मतलब है आजादी से पहले जो अंग्रेज ऑफिसर अपना प्रमोशन चाहते थे, वे सब शिमला की तरफ रूख करते थे,वजह यह कि- वायसराय और अंग्रेज सरकार के दूसरे सर्वोच्च पदाधिकारी,पूरी गर्मी वहां मौजूद रहते थे,और वो भी बहुत अच्छे मूड में,क्योंकि शिमला में रह कर ही उन्हें भारत के गर्म मौसम से कुछ राहत मिलती थी। एक तरह से गर्मियों में राजधानी,दिल्ली की जगह शिमला ही बन गई थी पूरे हिंदुस्तान की। लेकिन युवा अंग्रेज ऑफ़िसर, शिमला जाना पसन्द नहीं करते थे,कारण वो मौज-मज़ा करना चाहते थे। अपनी सुंदर प्रेमिकाओं के साथ, छुप कर वक्त बिताना चाहते थे, यह तो बिल्कुल नहीं चाहते थे कि खामख्वाह अपने सीनियर्स की निगाहों में आए, वे अक्सर मसूरी की राह पकडते थे,इसलिए न जाने कितने प्यार के किस्से यहां की ठंडी फिज़ाओं में आज भी सांस लेते हैं। वैसे भी मसूरी को पहाड़ों की रानी कहा जाता है ।

मैं यहां गया दो हजार तीन में और वजह थी,रस्किन बांड जो यहीं रहते हैं। उनकी किताबों से ही अंग्रेजी पढ़ना सीखा है मैंने। मेरे अंग्रेजी अध्यापक ने मुझे यही सलाह दी थी,और सच में यह एक बहुत ही काम की सलाह थी। मैं तो रस्किन बांड से यहां जा कर मिला भी, उनके ऑटोग्राफ़ भी लिए ,पर फ़िलहाल मैं उस किस्से की तफ़सील में नहीं जा रहा आज । उनकी लिखी एक बात के प्रभाव के वशीभूत होकर मैंने, मंसूरी में जो किया, उस बात का जिक्र ही आपसे करता हूं।

मसूरी शिवालिक की जिस पहाड़ी पर  बसा है वो तो बहुत रौनकें लिए हुए है…यहां क्लब हैं..होटल हैं,मॉल रोड है,रोप-वे हैं,बढ़िया रैस्टोरैंट्स हैं, हैं,केक्स-पेस्ट्रीज़,चीज़ की पुरानी मशहूर दुकाने भी हैं ।घुड़सवारी की सहूलियते हैं,एक तरफ कैंप्टी-फॉल,गार्डन,आई.ए.एस.एकेडमी,लाल टिब्बा और पुरानी यादगार हेरिटेज इमारते हैं,पर उसी के सामने जो दूसरी पहाड़ी है,वो बिल्कुल निर्जन है। रस्किन बांड ने लिखा है की -वह शापित एवं हांटेड है और उसी में है ये ‘परी टिब्बा’।

मैंने पहाड़ों का लुत्फ़ उठाने का जो सबसे बेहतर तरीका सीखा है वो है ज्यादा से ज्यादा पैदल घूमना। यूं ही एक दिन सुबह नाश्ते के बाद,मसूरी प्रवास के दौरान सोचा क्यों न आज परी टिब्बा की हकीकत जान ली जाए,एक छतरी साथ ले कर मैं और मेरा दोस्त हैवी नाश्ता कर , सुबह उस तरफ पैदल ही रवाना हो गएं। हम लैंडोर रोड पर ही रुके हुए थे वहीं कुछ ऊंचाई पर रस्किन बांड  भी रहते हैं। लाल टिब्बे की तरफ जो घूमती हुई सड़क जाती है,वहीं पांच सात मोड़ों के बाद उनका घर है।  लाल टिब्बा तो बहुत ही लोकप्रिय जगह है, टेलिस्कोप से पूरी घाटी देखने के लिए।

राह में मिलने वाले दो चार बाशिंदों से मैंने पूछा तो उन्होने हैरानी से कहा,कि वे नहीं जानते कि परी टिब्बा जैसी कोई जगह भी है यहाँ, दो एक दुकानदारों ने भी अपनी असमर्थता दिखाई । आखिर बाहर सड़क पर सुस्ता रहे दो कुलियों से रास्ता पूछा,तो उन्होने कहा कि- आप घंटाघर से थोड़ा सा आगे चले जाइये और फिर ‘धोबी घाट किधर है’ पूछ लीजिएगा और फिर वहां से जो सामने वाला पहाड़ है,उस पर ही चढ़ने से आपको परी टिब्बा मिलेगा।   हमें जैसा समझाया गया,हम वैसे ही चंबा रोड़ पर आगे चल पड़े। कुछ दूर जा कर हमें धोबी घाट के लिए नीचे उतरना पड़ा। चम्बा इसी रास्ते पर पचास किलोमीटर की दूरी पर है मसूरी से, और यही रास्ता पहले धनोल्टी फिर आगे चम्बा की ओर जाता है ।

धोबी घाट के लिए उतरने से पहले मशहूर पब्लिक स्कूल ‘वुड़स्टॉक’ भी आता है। बहुत सी लोकप्रिय हस्तियों ने यहाँ से शिक्षा प्राप्त की हैं,मसलन टॉम आल्टर,जो अक्सर हमें अंग्रेज अफसरों की भूमिकाओं में नज़र आते  हैं फिल्मों में।उनके एक इंटरव्यू में सुना था मैंने कि- वह चाहते हैं कि ‘एक बार सारा उत्तराखंड वो पैदल घूम सकें!  हम इसी स्कूल से कुछ आगे नीचे उतर कर एकदम तलहटी में पहुँच गये ,सचमुच वहां बहता  हुआ पानी था और धोबी घाट के लिए वो एक उपयुक्त स्थान था।

धोबी घाट से हमने सामने वाले पहाड़ को चढ़ना चालू किया, जो सचमुच एक निर्जन जगह है। जहाँ कोई आता जाता ही नहीं दिखाई दे रहा था..न कोई रोड-साइड चाय की दुकान न कोई ढाबा..बस एक पतला सा कच्चा रास्ता ऊपर एक पगडंडी जैसा चढ़ रहा था.. झाड़ियों और छोटे बड़े पेड़ों के बीच से। एक एकान्त कितना एकान्त हो सकता है,यह  मैंने वहीं जाना ।

चढ़ते-चढ़ते काफी देर हो गयी मगर कोई भी नहीं मिला..बस हम दोनों दोस्त ही एक दूसरे का मुंह देख सकते थे। आगे एक और दिक्कत आ गई रास्ता ऊपर जा कर दो रास्तों में बंट गया था..दोनो ही रास्ते बराबर ऊंचाई पर थे,अब किससे पूछे कि किधर जाएं? मुश्किल से एक गडरिया आया भेड़ों के  छोटे से झुंड के साथ..उसने ही हमें बताया कौन सा सही रास्ता है। क्रमशः  ऊपर चढते रहने के बाद आखिर वो परी टिब्बा आया..एक छोटा सा नखलिस्तान कहिए। पहाड़ की आयताकार सी चोटी पर एक छोटा सा घास का मैदान था,एकदम मखमली,चारो तरफ ऊंचे पेड़ थे। एक टूटी फूटी सी झोपड़ी थी। मैंने पढ़ा था-यहां एक प्रेमी जोड़ा आया करता था। एक बार मौसम बहुत खराब हो गया और एक बिजली उन दोनों पर आ गिरी ,वे जल कर खाक हो गये,यूं भी मुहब्बत पर बिजली गिरना कोई नयी बात तो नहीं पर, किसी परी ने ही बिजली गिराई और तब से इस जगह का नाम परी टिब्बा पड़ा हो ये बात कुछ जमी नहीं। या फिर शायद पहले परियां ही उतरती हो वहां..और वो प्रेमी जोड़े की हरकतों से कुपित हो गयी हों, ये हो सकता है।

एक बात और बताऊंगा कि- लौटते वक्त हम इतना थक गए और चाय की इतनी तलब हो गयी थी कि धोबी घाट पंहुचने से पहले जो घर सामने नज़र आया उसी का दरवाजा हमने खटखटा दिया,अच्छा हुआ एक कम उम्र लड़के ने दरवाजा खोला। उसे हमने सारा हाल बताया,तो उसने हमें आराम से बिठाया। बढ़िया मीठी चाय पिलाई..कुछ नमकीन और बिस्कुट भी खिलाए। उसके बहुत मना करने पर भी हम उसे एक पचास का नोट थमा ही आए,पर यहां रूकना भी व्यर्थ नहीं गया,उसने भी हमारी जानकारी में इजाफ़ा किया कि-अपने जिस नौकर प्रेम सिंह  को रस्किन बांड साहब ने गोद ले रखा है,उसकी ड्राई क्लीनर्स की एक दुकान है लैंडोर के घंटाघर पर,चाहें तो देख भी सकते हैं। खैर वो तो हमने नहीं देखी,पर उसके बताए हुए एक शॉर्ट कट रास्ते से दिन में लगभग तीन बजे हम वापस होटल जरूर  पंहुच गये।

चित्र साभार गूगल @

About the author

अजय कुमार

अजय कुमार

निवासी -अलवर ,राजस्थान

स्वतंत्र लेखन
प्रकाशित पुस्तक -'मैंडी का ढाबा' (कहानी-संग्रह )

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