कहानी

मां जियेगी तो जियेंगे हम

संजय स्वतंत्र II

गंगा-यमुना इन दोनों नदियों को लेकर मैं बेहद भावुक हूं। वैसे तो हम सभी भारतीय दिल से भावुक और कल्पनाशील होते हैं। कोई एक दशक पहले तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने एक दैनिक की अतिथि संपादक की हैसियत से आधुनिक दिल्ली की जो परिकल्पना की थी, उसमें मेट्रो से लेकर यमुना का भी जिक्र किया था। आज जब मेट्रो में सफर करता हूं तो उनको धन्यवाद देता हूं। मगर शीशे से बंद मेट्रो से यमुना को देखता हूं तो ताज्जुब होता है कि तीसरी बार सत्ता में लौटने पर शीलाजी ने क्या सोच कर यमुना को टेम्स नदी बनाने का दावा किया था?
आज लाखों लोग यमुना पर बने अलग-अलग पुलों से रोज गुजरते हैं, लेकिन दिल्ली की इस जीवन-रेखा को मरते हुए कोई नहीं देख रहा। यहां तक कि नदी किनारे सचिवालय की खिड़कियों से दिल्ली के हुक्मरान भी देखते रहे और यमुना धीरे-धीरे मैली होती चली गई। किसी को कोई परवाह नहीं। जिस देश में लोग अपनी बूढ़ी मां की चिंता नहीं करते, वहां नदियों को इंसान तरह की मान कर परवाह करने वाले कितने लोग बचे होंगे?
उस दिन जब नैं राजीव चौक से नोएडा जाने वाली मेट्रो के आखिरी डिब्बे में सवार हुआ तो तय किया आज यमुना मैया को आंखों में भर लूंगा। यों भी हमारी आंखों का पानी सूख चुका है। हम किसी के लिए रोते नहीं। इसके साथ ही याद आए बचपन के वो दिन जब दिल्ली से पटना के रेल सफर के दौरान गंगा के दर्शन होते ही मां चंद सिक्के फेंक कर हाथ जोड़ लेती थी और हमें भी प्रणाम करने के लिए कहती थी। नदी में सिक्का फेंकने की बात मुझे कभी जमी नहीं, पर आस्था के आगे हम सभी झुक जाते हैं। यह आस्था ही तो है कि देश की सभी नदियां हमें मां समान लगती हैं। तभी तो हम गंगा और यमुना को मैया कर कर बुलाते हैं।
… इंदप्रस्थ स्टेशन से मेट्रो आगे बढ़ रही है। मैं गेट पर खड़ा हूं और यमुना को नमन करना चाहता हूं। जेब में सिक्के हैं पर मैं उछाल नहीं सकता मां का तरह। …….मेट्रो की रफ्तार एकदम से धीमी हो गई है। शायद कोई तकनीकी खराबी आ गई है। या फिर मैया की पुकार है कि बेटे जरा थम जाओ। देख तो लो मुझे। क्या हालत हो गई है मेरी। हां, मां की पुकार सुनाई दे रही है मुझे। …मेट्रो बेहद धीमी गति से सरक रही है।
मैं देख रहा हूं एक छोर पर विश्व स्वास्थ्य संगठन की सफेद- आसमानी इमारत, जहां दुनिया भर की सेहत की चिंता होती है। उसके आगे दिल्ली के विकास का दंभ भरती गगनचुंबी विकास मीनार। और एकदम अंतिम छोर पर दिल्ली सचिवालय, जहां इस वक्त राजधानी के हुक्मरान बैठे होंगे। इन सब के सामने से यमुना बह रही है। आसपास फैली जलकुंभियां और बीमार सी दुबली-पतली यमुना। … पुराने किला, कुतुब मीनार और इंडिया गेट से लेकर राजीव चौक तक चक्कर लगाने वाले किसी युगल को मंैने यमुना किनारे बैठे नहीं देखा। मैं जब भी इस नदी के किनारे गया तो यह उस सांवली-सलोनी स्त्री की तरह लगी, जो कुपोषण का शिकार हो गई है और लड़खड़ाते कदमों से गुमसुम चली जा रही है…….। एक दिन अपराजिता ने इसी नदी के किनारे मुझसे पूछा था कि अगर मैं इस तरह कमजोर और बीमार होकर काली सी दिखूं तो क्या करेंगे? तो मैंने कहा था कि तुम्हारा इलाज कराऊंगा। इस पर उसका सवाल था कि तो फिर सरकार यमुना का इलाज क्यों नहीं कराती?
मेट्रो के इस पुल से देख रहा हूं कि यमुना में कोई आवेग है न कोई उमंग। तलहटी सूख गई है। यह दो भागों में बंट गई है। जैसे किसी ने मां का आंचल चीर दिया हो। काली सी यह नदी किसी बड़े नाले की तरह दिख रही है। क्या हालत बना दी है हम लोगों ने इसकी। यमुना जिस मंथर गति से बह रही है, उसे देख कर हमारी आपकी आंखों में आंसू क्यों नहीं आते। किसी समय संगम में अपनी श्यामलता के कारण अलग दिखाई पड़ने वाली यमुना के लिए दिल पिघलता क्यों नहीं?
…तकनीकी कारणों से पुल पर मेट्रो खड़ी है। इस समय बहुत सी बातें मन में कौंध रही है। यमुना की दुर्दशा देख कर कलेजा फटा जाता है। हालांकि इस नदी पर बन पुलों को बीते कई सालों में न जाने कितनी बार पार किया होगा। मगर अब अहसास ही नहीं होता। यों आर-पार करते-करते पांच दशकों में पूरा जमनापार ही बस गया। यहां तक कि तलहटी के पास कई कालोनियां भी बस गर्इं।
सच में मां का आंचल कितना बड़ा है। वह सबको आश्रय देती है और खुद पीछे हट जाती है। अगर आप गौर से देखें, तो न केवल यमुना बल्कि गंगाजी भी अपने बच्चों को आश्रय देने के लिए कई किलोमीटर पीछे चली गई हैं। शायद वे रूठ गई हैं हम सब से। न तो पास आती हैं और न हम उनसे पूछते हैं कि मां आप क्यों रूठ गई हैं?
हम लोगों को दक्षिण कोरिया से कुछ सीखना चाहिए, जिसने सियोल में बहने वाली चेंग च्योन नदी की कायापलट कर दी थी। यह नदी भी नाले में बदल गई थी। उस पर छह लेन का पुल बन जाने के बाद वह दिखती भी नहीं थी, लेकिन वहां के नागरिकों के संकल्प के बाद चेंग च्योन नदी न केवल साफ-सुथरी हो गई बल्कि इसके तटों को संवार कर झरने-जंगल भी विकसित कर दिए गए।
क्या हम लोग भी दिल्ली की यमुना को कभी संवार पाएंगे? क्या हम इसके किनारे सब्जियों और फूलों की खेती को बंद कर कदंब और तमाल के वृक्ष लगा पाएंगे? श्रीकृष्ण की कथाओं में एक प्रसंग आता है कि खेलने के क्रम में गेंद डूब जाने पर बाल कृष्ण यमुना में कूद गए थे और कालिया नाग का मर्दन कर जल को भी निर्मल कर दिया था। आज हमारी यमुना को भी कालिया रूपी कचरे और गंदे नाले ने डस लिया है। क्या इसकी निर्मलता के लिए कोई कृ ष्ण यमुना में उतरेगा और इसे फिर से जीवनदायिनी बनाएगा?
…मेट्रो का सफर पूरा कर दफ्तर आ गया हूं और खबरों के जंगल में फिर से खो गया हूं। अरसा पहले एक चौंका देने वाली खबर दिखी थी- न्यूजीलैंड की संसद ने वानगानोई नदी को इंसान का दर्जा दे दिया है। समाचार के मुताबिक माओरी जाति के लोग इसे पूजते हैं। वानगानोई को नागरिक नाम से पुकारा जाता है। … जब हम लोग भी नदियों को मां की तरह मानते हैं तो इन्हें इंसान का दर्जा क्यों नहीं देते? सही ही तो है। एक जीवित इंसान की तरह उसके भी तो कुछ अधिकार हैं। इस तरह की सकारात्मक खबर मन में ऊर्जा भर देती है। मां जियेगी तो हम भी जियेंगे।
एक लंबी ड्यूटी के बाद रात को जब मैं घर लौट रहा हूं तो मुझे मालूम है मां यमुना सो रही होंगी। नैं बेहद खामोशाी के साथ उन्हें नमन करता हुआ पुल से आगे बढ़ गया हूं। मेरी गाड़ी तेज गति से चल रही है। सन्नाटे को तोड़ते हुए हमारे चालक महोदय कहते हैं- सर कोई गीत लगाइए ना…..। मैंने मोबाइल के यूट्यूब वाले खजाने से अपना एक प्रिय गीत चला दिया है-
नदिया चले, चले रे धारा, चंदा चले, चले रे धारा….
तुझको चलना होगा, तुझको चलना होगा।
जीवन कहीं भी ठहरता नहीं है,
आंधी से-तूफां से डरता नहीं है।
तू न चला तो चल देगी राहें….
मंजिल को तरसेंगी तेरी निगाहें….
तुझको चलना होगा, तुझको चलना होगा।
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About the author

संजय स्वतंत्र

बिहार के बाढ़ जिले में जन्मे और बालपन से दिल्ली में पले-बढ़े संजय स्वतंत्र ने दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज से पढ़ाई की है। स्नातकोत्तर की शिक्षा पूरी करने के बाद एमफिल को अधबीच में छोड़ वे इंडियन एक्सप्रेस समूह में शामिल हुए। समूह के प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक जनसत्ता में प्रशिक्षु के तौर पर नौकरी शुरू की। करीब तीन दशक से हिंदी पत्रकारिता करते हुए हुए उन्होंने मीडिया को बाजार बनते और देश तथा दिल्ली की राजनीति एवं समाज को बदलते हुए देखा है। खबरों से सरोकार रखने वाले संजय अपने लेखन में सामाजिक संवेदना को बचाने और स्त्री चेतना को स्वर देने के लिए जाने जाते हैं। उनकी चर्चित द लास्ट कोच शृंखला जिंदगी का कैनवास हैं। इसके माध्यम से वे न केवल आम आदमी की जिंदगी को टटोलते हैं बल्कि मानवीय संबंधों में आ रहे बदलावों को अपनी कहानियों में बखूबी प्रस्तुत करते हैं। संजय की रचनाएं देश के सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।

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