संजय स्वतंत्र ||
स्त्री का मौन हो जाना क्या प्रकृति का रूठ जाना है। किसी व्यूहरचना में रत हो जाने का अभिप्राय है किसी स्त्री का मौन? किसी निर्णय पर पहुंचने से पहले या किसी के प्रेम में डूब जाने पर भी स्त्री मौन हो सकती है। उसकी खामोशी के कई अर्थ हैं। वह या तो किसी से दूर जा रही होती है या किसी के बेहद नजदीक आ रही होती है। या फिर खुद रणभूूमि में उतरने की तैयारी कर रही होती है। कभी-कभी वह एक रणभूमि भी तैयार कर रही होती है।
स्त्री की चुप्पी प्रेम का संसार रचती है तो एक वंश या एक समाज के विध्वंस की वजह भी वह बनती है। ऐसा ही एक पात्र है महाभारत में। अगर कोई स्त्री विमर्श हो तो इसकी चर्चा अवश्य होनी चाहिए कि क्यों कुंती ने आंचल में आंसू बहाती स्त्री की भूमिका चुनी। क्यों वह परिवार और प्रजा के सामने खामोश रह एक ऐसे युद्ध को जन्म होने देती है, जिसमें उसके ज्येष्ठ पुत्र कौंतेय की मौत तो हुई ही, भारी जन-धन की हानि भी हुई। वह अपने पांचों पुत्रों को अपने जीवन का सच बता सकती थी, मगर ऐसा नहीं किया उसने। नतीजा पांडव अपने सबसे बड़े भाई के हंता बन बैठे। इसी खामोशी से विचलित होकर धर्मराज युधिष्ठिर ने पूरी नारी जाति को अभिशाप दे दिया था कि वह भविष्य में किसी भी रहस्य को छुपा न सकेगी।
राजनीतिक और सामाजिक चिंतक तथा लेखक मुकेश भारद्वाज की सद्य प्रकाशित पुस्तक ‘सत्ता का मोक्षद्वार महाभारत’ में सम्मिलित आलेख-‘कुंती कर्म’ स्त्री विमर्श को नया आयाम देता है। अपनी कोख में धर्मराज को धारण करने वाली मां को एक सच को छुपाने के लिए क्यों अधर्म के मार्ग पर चलना पड़ा, यह जानने के लिए हमें ‘सत्ता का मोक्षद्वार महभारत’ पढ़ना होगा। खबरों की रणभूूमि में उतर कर बतौर संपादक मुकेश भारद्वाज नब्बे के दशक से शब्द संधान कर रहे हैं। कोई छह साल से उनके साथ काम करते हुए मैंने पाया कि सत्ता शीर्ष पर बैठे लोगों पर वे बारीक नजर रखते हैं और लिखते और बोलते समय उन पर सधी हुई तीखी टिप्पणी से गुरेज नहीं करते। कोरोना काल में जब सब कुछ थम गया था, तब भारद्वाज महाभारत काल के बरक्स इक्कीसवीं सदी की राजनीतिक चेतना और राजनेताओं से हो रही गलतियों तथा ऐतिहासिक भूूलों का परत-दर-परत पोस्टमॉर्टम कर रहे थे। उन्होंने महाभारत के चरित्रों के माध्यम से मौजूदा दौर की राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिक स्थितियों को अपनी कसौटी पर परखा तो पाया कि चाहे सत्ता पक्ष हो या विपक्ष के नेता, वे उन किरदारों से कोई अलग नहीं है। अपने कुतर्कों से झूठ को भी सत्य में बदलने में माहिर इन नेताओं को हम ‘सत्ता का मोक्षद्वार’ पढ़ते हुए अपने इर्द-गिर्द पाते हैं।
कोरोना काल के दौरान सात समंदर पार रहने वाली मित्र अपूर्वा ने पूछा, बताइए किन कारणों से ईश्वर अच्छे लोगों को भी बुरे दिन देखने पर विवश कर देते हैं। एक अच्छा इंसान क्यों दुख भोगता है। उसके इस सवाल का उस वक्त मैं जवाब नहीं दे पाया। लेकिन हम में से ऐसे कई लोग होंगे, जिनके मन में यह सवाल अकसर उठता है।
फिलवक्त पूरी दुनिया को रुला रहे एक विषाणु को ही लीजिए। कोई दो राय नहीं कि यह मनुष्यों की गलती का नतीजा है। मगर नियंता कौन है। स्वाभाविक सी बात है- ईश्वर। क्या वे देख नहीं रहे कि इस धरती पर बुरे लोगों के साथ अच्छे इंसानों पर भी एक विषाणु, दुखों का पहाड़ लेकर उन पर टूट पड़ा है। इसमें निर्दोष मनुष्यों का क्या दोष था। मैं अपूर्वा को इतना ही जवाब दे पाया कि अच्छे इंसान की ईश्वर परीक्षा लेते हैं। शायद किसी बड़े उद्देश्य या किसी बड़े प्रयोजन के लिए तैयार कर रहे होते हैं। और कभी-कभी तो उसे असमय अपने साथ भी ले जाते हैं। मगर इसकी क्या वजह हो सकती है। उसके इस सवाल का भी ठीक से जवाब नहीं दे सका। उस दिन उलझा रहा। यह भी सोचता रहा कि क्या अच्छा इंसान पूर्व जन्मों के कर्मों का भी फल भोगता है। क्या इसीलिए ईश्वर किसी को बेहद गरीब तो किसी को बेहद अमीर बना देते हैं। किसी को लुटेरा तो किसी को संत बना देते हैं।
मुझे उस सवाल का जवाब ‘सत्ता का मोक्षद्वार’ पढ़ते हुए कि जब भी आप उलझन में हों तो एक बार आपको श्रीमद्भागवत गीता या रामचरित मानस अवश्य पढ़ना चाहिए। कहीं से भी शुरू कीजिए। ईश्वर आपकी उलझनों को दूर करने आ ही जाते हैं। चाहें राम हों या कृष्ण, वे आपको बताएंगे कि आप किस दिशा में जा रहे हैं। आपके कौन से कर्म उचित हैं या अनुचित। … ये दोनों ही कर्तव्य के निर्वहन के साथ बुराइयों से लड़ने का भी संदेश देते हैं। कृष्ण तो फल की चिंता किए बिना कर्म करते जाने का संदेश देते हैं। यह भी कि कर्म बुरा है तो दंड भी अवश्य मिलना चाहिए। एक बार द्रौपदी ने गुहार लगाई थी तो कृष्ण दौड़े चले आए थे। आज भी हम संकट में हों या कोई कष्ट दे रहा हो, तो कान्हा को ही पुकारते हैं। पुस्तक में शामिल आलेख ‘कहां हो कृष्ण’ में भारद्वाज लिखते हैं, …कृष्ण के राजा रूप वाली द्वरिका हो या युद्ध के नायक के रूप में स्थापित होने वाला कुरुक्षेत्र इसे छोड़ कर कृष्ण भक्त वहीं दौड़ते हैं यशोदा, नंद बलराम और राधा के मनोहर श्याम हैं।
महाभारत का वृहतर संदेश युद्ध के परिणाम में नहीं, युद्ध के दौरान दिखाई गई निर्बलताओं में है। हमें कर्म करना है और अपने अंदर की निर्बलता और तमाम बुराइयों को पहचानना है। वहीं आज की दंड संहिता की नींव भी हमें अपने पौराणिक आख्यानों में मिलती है। यानी जैसा कर्म किया है, उसी हिसाब से फल मिलेगा। पुस्तक में सम्मिलित आलेख में मुकेश भारद्वाज ने लिखा है- बुरे कर्म करने वाले को माफ कर देने का मतलब है बाकियों को भी उस तरफ ले जाना। आलेख ‘बर्बरीक वध’ में लेखक ने लिखा है महाभारत का संग्राम कुछ ऐसा ही था, जहां हार और जीत कोई स्पष्ट दिखने वाले मूल्य नहीं थे। लेकिन कुरुक्षेत्र का युद्ध तब का हो या आज का, वीर बर्बरीक की तरह निष्पक्ष रूप से देखने और अपनी बात रखने की हिम्मत होनी चाहिए। इस समय ऐसा साहस जुटाने वाले लेखक और पत्रकार तो छोड़िए राजनेता भी कम हैं।
पुस्तक ‘सत्ता का मोक्षद्वार’ में मर्दवादी सत्ता की भी बड़ी कुशलता मगर सहजता के साथ विवेचना की गई है। मुकेश भारद्वाज आलेख-निर्णायिका में लिखते हैं- भीष्म पितृसत्ता के प्रतिनिधि हैं तो शिखण्डी उनके खिलाफ खड़ा प्रतिरोध है। शिखण्डी एक क्लीव है। यानी न तो स्त्री और न पुरुष। स्त्री या पुरुष दोनों मानकों पर अधूरा यह शरीर उस पूर्णता के खिलाफ है जिसके आधार पर महाभारत के सामंती नियम बने थे। मर्दवादी व्यवस्था महाभारत के तरह ही विरोधाभासों से भरी है। भीष्म कहते हैं कि वे स्त्री पर शस्त्र नहीं उठा सकते। लेकिन स्त्री पर अत्याचार होते हुए देखते हैं जब भरी सभा में उनकी कुलवधू के चीरहरण की कोशिश होती है। … तो मर्दवादी सोच का यह दोहरा पैमाना आज भी बदला नहीं है। भारतीय समाज से लेकर राजनीति तक में गहरा दिखाई देता है।
‘सत्ता का मोक्षद्वार’ वस्तुत: राजनीतिक संदेश है। पौराणिक सामंती प्रवृत्ति से न भारतीय रजवाड़े मुक्त हो पाए न हमारे आज के राजनेता। लेखक ने महाभारत के बरक्स आधुनिक भारतीय राजनीति के नए पुराने संदर्भों को टटोलते हुए सत्ता के मोक्षद्वार पर खड़े नेताओं की भी अच्छी खबर ली है- … राजनीतिक दलों के लिए गांधी ‘मोक्ष द्वार’ जैसे हो गए हैं। कोई भी राजनीतिक दल गांधी को आत्मसात करना नहीं चाहता। लेकिन एक हाथ में उनके विचारों की लाठी जरूर पकड़ लेता है, भले ही बाद में उसका हिंसक इस्तेमाल कर ले। इस पुस्तक को पढ़ते हुए उम्मीद की एक किरण दिखाई देती है कि निराशा भरे इस अंधकार का एक दिन अंत होगा। वह सुबह आएगी। क्योंकि कृष्ण हमारे नायक हैं। वे विजयी पक्ष के साथ बेशक खड़े हों, मगर हारे के भी हरिनाम हैं।
यह पुस्तक राजनीति और समाजशास्त्र के विद्यार्थियों के लिए उपयोगी होने के साथ सुधी पाठकों के लिए भी पठनीय है। 166 पृष्ठ की यह पुस्तक वाणी प्रकाशन से छप कर आई है।
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