कविता

शून्यता को भरती तुम

silhouette of a young couple in love looking at the full moon

संजय स्वतंत्र II

तुम नहीं थी
तब भी थी तुम
मेरी शून्यता में
कई शून्य लेकर,
तुम नहीं थी मगर
तुम्हारे शब्द थे,
जिसे सुन सकता था
देख सकता था मैं
शब्दों में तुम्हें
आकार लेते हुए।
तुम न थी
तुम्हारी आहट थी
संगीत था अकेलेपन का।
तुम्हारे मौन में
मुखर था कोई प्रेम गीत
धरती और सूरज के लिए,
चांद की शरारत तो देखो
चला आता है उनके बीच।
तब तुम नहीं
मैं भी नहीं,
हमारे बीच सिर्फ शब्द हैं
जो हमारी शून्यता को
भर रहे हैं आज भी।
सुनो-
तुम्हारे टोकरी में
कितने फूल हैं,
कितने शब्द हैं?

कुछ हफ्ते पहले आसमान में रिंग आफ फायर बनने पर लिखी गई कविता।

About the author

संजय स्वतंत्र

बिहार के बाढ़ जिले में जन्मे और बालपन से दिल्ली में पले-बढ़े संजय स्वतंत्र ने दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज से पढ़ाई की है। स्नातकोत्तर की शिक्षा पूरी करने के बाद एमफिल को अधबीच में छोड़ वे इंडियन एक्सप्रेस समूह में शामिल हुए। समूह के प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक जनसत्ता में प्रशिक्षु के तौर पर नौकरी शुरू की। करीब तीन दशक से हिंदी पत्रकारिता करते हुए हुए उन्होंने मीडिया को बाजार बनते और देश तथा दिल्ली की राजनीति एवं समाज को बदलते हुए देखा है। खबरों से सरोकार रखने वाले संजय अपने लेखन में सामाजिक संवेदना को बचाने और स्त्री चेतना को स्वर देने के लिए जाने जाते हैं। उनकी चर्चित द लास्ट कोच शृंखला जिंदगी का कैनवास हैं। इसके माध्यम से वे न केवल आम आदमी की जिंदगी को टटोलते हैं बल्कि मानवीय संबंधों में आ रहे बदलावों को अपनी कहानियों में बखूबी प्रस्तुत करते हैं। संजय की रचनाएं देश के सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।

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