लिली मित्रा II
अक्सर शहर के बाई पास रोड से अपनी धन्नो (स्कूटर) पर सवार होकर जाना-आना लगा रहता है। सड़क के दोनो तरफ़ के कुछ दृश्य बहुत नियमित तौर पर दिखते हैं। कचड़े के ढ़ेर बुरी तरह बदबू करते हुए और इन ढ़ेरों में चरती गायों का झुंड। मैने बड़े गौर से उनका ‘ऑब्ज़रवेशन’ किया है। कुछ गायें बहुत जागरूक दिखीं। कचड़े में फिकी हुई पन्नी से उनके खाद्य योग्य सामग्रियों को अपने दांतों में दबाकर जोर से अपनी मुंडी हिला कर पन्नी (पालिथीन)को खोल लेतीं,,फिर भीतर का सामान खा लेतीं। दूसरी तरफ़ कुछ गायें अशिक्षा की शिकार दिखीं। उन्हे शायद यह पता नही होता कि पन्नियां उनके स्वास्थ के लिए हानिकारक होती हैं। वे इन सब से बेफ़िकर हो पन्नी समेत खाद्य चबाती दिखीं।
तभी मेरे दिमाग में यह ख़्याल आया कि -एक ‘गाय स्वास्थ्य जागरूकता अभियान’ चलाया जाना चाहिए। गायों को स्पेशल ट्रेनिंग प्रोग्राम के माध्यम से जागरूक बना दिया जाना चाहिए, ताकि वे कचड़ा चरते समय पन्नी समेत ना चबाएं। दाँतों से पन्नी खोलकर चबाएं। इससे इंसानों को भी आसानी रहेगी, उन्हे कपड़े के थैले घर से ढोकर नही लाने पड़ेगें। अभी जो थोड़ा दबे स्वरों में दुकानदारों से सौदे को पन्नी में बांध देने को कहते हैं, वो बिन्दास बोल पाएगें। इसके साथ ही बिना किसी सोच-ख्याल के जत्र-तत्र कचड़ा पन्नी में बांध,उछाल कर फेंक सकेंगे।
पता नही क्यों कचड़े में गायों को चरते देख मुझे सूरदास जी के पद में वर्णित ‘गायों के ‘गोल्डेन ऐरा’ (golden era) भी याद आ जाता है।जब कृष्ण भगवान ग्वाल बालों संग गायों के झुंड वनों में चराने ले जाते थे। गायें मस्त होकर ‘हेल्दी फूड’ खाती थीं और तो और साथ में कृष्ण जी की मुरली की तान के संग हल्की धूप में,अधखुली पलकें लिए जुगाली का असीम आनंद भी मिलता था। आज परिस्थितियां पलट चुकी हैं। विकास का दौर है ग्वालबाल अब वैसे नही रहे। ‘लाइफ बिकम सो बिजी’ ,,, वैसे भी गोकुल जैसे वन अब कहाँ? हाँ कान्हा की बंसी का ‘सब्सटीट्यूट’ मोबाइल के रूप में अवश्य आ गया है लेकिन उस पर बजने वाली संगीत लहरी हर समय गायों के लिए नही होती,अक्सर वे ग्वालों के कानों में इयरप्लग की नलियों द्वारा, उन तक ही सीमित होती हैं।
हाय री प्रगति! हाय रे कलजुग! मैने उसी ढेर के एक कोने में एक गाय को जुगाली संग गाते सुना -“कोई लौटा दे मेरे,, बीते हुए दिन”।
bahut sunder
धन्यवाद R k Tripathi जी।