अतुल चतुर्वेदी II
कई दिनों से मन मस्तिष्क में एक पुराना गीत रह-रह कर याद आ रहा है… बाबू जी धीरे चलना बड़े खतरे हैं इस राह में। यानी सफर में खतरे हमेशा रहे हैं उस युग में भी थे, आज भी हैं। तब पुराने टाइप के खतरे थे। सामान चुरा लिया, पॉकेट मार ली, कुछ मिला कर खिला दिया। जहरखुरानी के मामले बहुत दर्ज होते थे। बच्चों, महिलाओं को सख़्त हिदायत दी जाती थी, देखो किसी का दिया रास्ते में मत खाना। कोई कितना भी इसरार करे। जहर तो आज भी दिया जा रहा है, लेकिन खाने में नहीं वैचारिक जहर। दिमाग भ्रमित किए जा रहे हैं, पनघट की डगर पर बहुत फिसलन हो गई है।
वैचारिक जहर ज्यादा असर दिखाता है यह दंगों और नफरत में बदल जाता है। तो कुल मिला कर राह के खतरे आसान नहीं हुए हैं बल्कि यूं कहिए कि रास्ते की मुश्किलें और भी बड़ी हैं और पेचीदा हुई हैं। सुहाना सफर और मौसम हसीन नहीं रहा है। सफर में अब कोई माशूका मिलती ही नहीं। सब की सब सोशल मीडिया पर आनलाइन हैं। इसलिए सफर की रोचकता भी खत्म हो गई है।
नए युग में नए खतरे हैं। मान लीजिए आपकी आरक्षित सीट पर कोई दूसरा बैठा मिले। इस पर आप विरोध करें। टिकट का हवाला दें और बात बढ़ जाए। आपको वे चलती गाड़ी से बाहर फेंक दे। आपके सूटकेस से मिलता-जुलता सूटकेस सरका के आपको अगले स्टेशन में आबकारी वाले धर लें।
राह में कोई चतुर सुजान आपके लैपटॉप या मोबाइल पर गिद्धदृष्टि जमाए बैठा हो और पलक झपकते ही उसे उड़ा दे। चलिए इसे भी छोड़िए आपकी किस्मत अच्छी है आप इन सब विपदाओं से बच गए लेकिन आपकी ट्रेन या बस का मन आ गया और वो दूसरी साथिन से गलबहियां करने को मचल गई तो आप तो गए न काम से। चलिए इसे भी जाने दें। किसी आर्थिक या सामाजिक मुद्दे पर बहस छिड़ गई और किसी शख़्स को दिल पर लग गई उसने बुरा मान कर दो चार को टपका दिया तो आप क्या कर लेंगे?
खतरे जमीन पर ही नहीं हैं हवाई सफर में भी हैं। वहां हवा-हवाई खतरे हैं। किसी का दिल आ जाता है तो किसी सह यात्री की गोद में लघु शंका कर देता और किसी का मन मचल गया तो बदसलूकी या छेड़छाड़ कर बैठता है। राजमार्ग भले ही फोर लेन या सिक्स लेन हुए हों मगर दिल संकरे और सोच एकांगी हुई है। बोगियों में और सड़कों पर कितना भी उजाला बढ़ा हो दिलों का अंधेरा और गहन हुआ है। एक्सप्रेस वे पर अंधाधुंध गाड़ियों की रफ़्तार हैं तो एक्सप्रेस ट्रेनों में अंधाधुंध गोलीबारी। मर रहे हैं तो निर्दोष, सुबक रही है तो इंसानियत ।