मनस्वी अपर्णा II
मैं अक्सर सोचती हूं कि हमारी अंतरंगता की यात्रा शरीर से मन की दिशा में सही होती है या मन से शरीर की दिशा में? इस सवाल के जवाब में जो शास्त्रीय उत्तर होगा, वो यह होगा कि मन से शरीर की यात्रा अंतरंगता की दिशा में की गई ठीक-ठीक यात्रा होगी। लेकिन व्यावहारिक रूप से करते हम इसका ठीक विपरीत हैं। हमारे यहां अंतरंगता के लिए विवाह की शर्त पूरी करनी होती है, यानी बिना विवाह के हमें प्रेम की अंतरंगता की आज्ञा नहीं है और विवाह में साथी हम अपनी मर्जी का चुन नहीं सकते क्योंकि परिवार और समाज इसकी अनुमति नहीं देता, तो अंतरंगता की यात्रा उल्टी दिशा में शुरू होती हैं पहले शरीर फिर नैतिकता और रस्मों रिवाज के नाम पर जोर जबरदस्ती मन।
दरअसल, यह सवाल मेरे मन में इसलिए उठता है क्योंकि हम एक ऐसे देश में रहते हैं जहां हम बातें तो शरीर की नश्वरता और मूल्यहीनता की करते हैं लेकिन व्यवहार में हमारे मन और आत्मा से ज्यादा शरीर को महत्व दिया जाता है। हमारा समाज कुछ एक ऐसे नियमों में बंधा हुआ है जो शायद किसी दौर में जरूर प्रासंगिक और उपयोगी रहे होंगे लेकिन एक लंबे समय से वे नियम मनुष्यता का दम घोंट रहे हैं। स्त्री हो या पुरुष इन नियमों में कसमसा कर रह गए हैं। बड़ी अजीब सी बात ये भी है कि अपनी तमाम दुविधाओं और कसमसाहट के बावजूद हमारे मन मस्तिष्क कायदे-कानून से इस कदर बंधे हुए हैं कि हम न तो पूरी क्षमता से विद्रोह कर पाते हैं न ही पूरे समर्पण के साथ स्वीकार कर पाते हैं। हम बस कुनकुने से जीते हैं और ये अनमना मन हमें कहीं नहीं पहुंचाता।
मन जिसे मैं कहती हूं वो निश्चित रूप से शरीर से ज्यादा कीमती है और ये कैसी विडंबना है कि हम किसी से मन साझा करने को तैयार हैं, किसी को मन सौंपने को तैयार हैं, लेकिन शरीर के लिए वर्जनाएं लगाए बैठे हैं। मैं कितने ही ऐसे लोगों से मिलती हूं जिन्हें ये कहते पाती हूं कि हमारा फलां व्यक्ति के साथ बड़ा पवित्र और आत्मिक रिश्ता है। ये वाक्य असल में इस ओर इशारा कर रहा होता है कि उस व्यक्ति के साथ दैहिक आसक्ति नहीं है और न ही संबंध है। जैसे देह का देह से संबंध हो जाएगा तो अपवित्र हो जाएगा। क्यों होगा अपिवत्र? इसका कोई ठीक-ठीक कोई कारण या तर्क उन के पास नहीं होगा।
- मन जिसे मैं कहती हूं वो निश्चित रूप से शरीर से ज्यादा कीमती है और ये कैसी विडंबना है कि हम किसी से मन साझा करने को तैयार हैं, किसी को मन सौंपने को तैयार हैं लेकिन शरीर के लिए वर्जनाएं लगाए बैठे हैं। मैं कितने ही ऐसे लोगों से मिलती हूं जिन्हें ये कहते पाती हूं कि हमारा फलां व्यक्ति के साथ बड़ा पवित्र और आत्मिक रिश्ता है ये वाक्य असल में इस ओर इशारा कर रहा होता है कि उस व्यक्ति के साथ दैहिक आसक्ति नहीं है और न ही संबंध है। जैसे देह का देह से संबंध हो जाएगा तो अपवित्र हो जाएगा।
भोग-लिप्सा की आसक्ति को मैं छोड़ दूं तो एक स्त्री और पुरुष जो कि प्रेम में है और यदि उनके बीच मानसिक अंतरंगता है, हार्दिक अंतरंगता है तो दैहिक अंतरगता में क्या दिक्कत होनी चाहिए… आत्यंतिक रूप से हमारे किसी भी भाव की अभिव्यक्ति के लिए हमारे पास शरीर ही तो सर्वश्रेष्ठ माध्यम है। योग से लेकर भोग तक दोनों दिशाओं की यात्रा के लिए शरीर तो चाहिए ही चाहिए… शरीर से ही हम वो सब कुछ कर सकते हैं जो वास्तव में हमें करना होता है। कितनी विचित्र बात है कि हम किसी को शारीरिक हानि पहुंचाते हैं तो उसको मात्र गलती की तरह माना जाता है वो एक हद क्षम्य होती है, लेकिन हम किसी को शारीरिक रूप से प्रेम जताएं तो इसमें नैतिकता, पाप-पुण्य और मान-सम्मान जैसी बातें समाहित हो जाती है और ये करीबन अक्षम्य अपराध की तरह माना जाता है। शरीर से प्रेम अक्षम्य अपराध हुआ लेकिन शरीर की क्षति क्षम्य है।
असल में पीढ़ियों से हम ये पाठ पढ़ते-पढ़ाते आएं है कि शरीर बुरा है, शरीर की सभी इच्छाएं बुरी हैं, शरीर दोयम दर्जे का है और यदि हम शरीर से आबद्ध हैं तो हम निकृष्ट हैं। अब एक ओर तो ये रुख है हमारा शरीर के प्रति और दूसरी ओर हमारी पूरी दृष्टि का जो केंद्र बिंदु है वो शरीर है… हम किसी का अच्छा-बुरा होना शक्ल सूरत से तय करते हैं, किसी का चरित्र उसके कपड़ों से तय करते हैं, हमारा पूरा ध्यान इस तरफ होता है कि कोई भी संबंध कहीं शारीरिक तल पर तो नहीं हैं…कोई व्यक्ति शरीर के प्रति सचेत तो नहीं है…हम कहां किसी के मन को महत्व देते हैं… लेकिन बातें करते हैं आत्मिक और मानसिक स्तर की। हमारे जीवन का ये दोहरा मापदंड असल में पूरी समस्या की जड़ है।
मेरी अपनी समझ ये कहती है कि मन शरीर से कहीं ज्यादा बड़ी बात है और यदि आप मन से किसी के हैं, किसी के साथ मन साझा कर रहे हैं तो शरीर को बहुत ज्यादा महत्व देना ठीक नहीं। शरीर का अपना महत्व है। उसकी अपनी इच्छा या अनिच्छा हैं, लेकिन वो सर्वस्व नहीं है। न ही होना चाहिए। बेहतर तो यही होगा कि हम दोनों में से किसी का भी दमन न करें, दोनों को अपनी अपनी यात्राएं करने दें यही ढंग हमें सहज और सरल बनाएगा। यह मन का धागा है।
ati sunder, badhai