अभिप्रेरक (मोटिवेशनल)

बाबुल हमें ब्याहो किसी गांव

वंदना काबरा II

आखिर क्या है उन महानगरों और कांक्रीट के जंगलों में, जो हम बेटियां नहीं ब्याहना चाहते हैं छोटे शहरों, कस्बों और गांवों में। आखिर चैन से भोजन और मीठी नींद के लिए तो घर ही चाहिए न, तो वह छोटे शहरों, कस्बों में भी वैसा ही होता है जैसा हम बना लें। अभिभावकों की ये सोच आज तक मेरी समझ में नहीं आई कि बेटियों के लिए महानगर ही क्यों चाहिए। क्या सच में पसंद आती है वो भागती दिनचर्या, सुबह घर से निकलो तो निढाल होकर रात तक घर लौटो। कोई किसी के दुख-सुख का साथी नहीं।
बीमार हो जाओ तो घंटों अस्पतालों में चक्कर काटो। भीड़ भरे बाजारों और गर्मी से बौखलाई हुई जनता, किसी रिश्तेदार से मिलना भी हो तो छुट्टी के दिन का इंतजार करो वह भी उसकी मर्जी हो तो। शहरों में रहने वाले क्या रोज होटल क्लब जाते हैं। ये तथाकथित आधुनिकता की जग दिखाऊ दौड़ के अलावा कुछ भी नहीं कि मैं अपनी बेटी बड़े शहर में ही ब्याहूंगा। अच्छे खासे परिवार और संस्कारी लड़के को केवल इसलिए नापसंद करना कि वो गांव या छोटे शहर में रहता है मेरी नजर में बेवकूफी है।
मुझे तो लगता है जो बेटियां बहुत किस्मत वाली होती हैं वो ही गांवों में ब्याही जाती हैं। शांत प्राकृतिक माहौल, नदियों से नजदीकी, शुद्ध खान-पान और मृदुभाषी लोगों का साथ, यही सच्चा जीवन है। हम छोटे शहरों में रहने वाले बड़े दिल से अपने लोगों से जुड़े रहते हैं, किसी के छोटे से दुख तकलीफ में सारा कस्बा इकट्ठा हो जाता है। कोई बीमार हो तो अस्पताल में शुभचिंतकों की भीड़ लग जाती है। त्योहारों में पूरा क्षेत्र एक परिवार बन जाता है। किसी से मिलना हो तो पल भर में हम उस तक पहुंच जाते हैं और उससे मिलने की अनुमति भी नहीं लेना पड़ती। घर के सदस्य कब कहां हैं और कब लौटेंगे पूरी जानकारी होती है।
जहां तक आजादी या खुलेपन की बात है तो हम लोगों ने भी समय के साथ आधुनिकता को अपनाया और संस्कृति को भी भंग नहीं किया। हम भी होटल क्लब जाते हैं। पार्टी करते हैं, किटी पार्टी करते हैं। हां यह जरूर है कि माहौल पारिवारिक होता है, क्योंकि आज भी हमारे छोटे शहरों में बीयर-बार संस्कृति नहीं आई है। महिलाओं ने आधुनिक परिधान और परिवेश को अपनाया है लेकिन सबका सम्मान करते हुए, हमारे यहां भी महिलाएं कामकाजी हैं और कार-दुपहिया वाहन पर उनकी पकड़ शहरों की तरह ही मजबूत है।
हम जमीन से जुड़े मकान बनाते हैं जिसकी छत भी हमारी ही होती है। हम बचे हुए हैं अभी फ्लैट संस्कृति से और ईश्वर हम पर ये कृपा बनाए रखें। अरे भई हम भी पिज्जा-बर्गर सब खाते हैं पर शुद्ध घी मक्खन भी खाते हैं जो केवल हमारे छोटे शहर में ही है। और हां धूल भरी पगडंडी बचा रखी है हमने हालांकि हम भी पक्की सड़कों पर ही चलते हैं।
खेत-खलिहानों से गुजरती वो धूल भरी पगडंडी नहीं मिलेगी तुम्हें कंक्रीट के जंगलों में। अपनी महानगरीय जीवन शैली से निकल कर कभी रहने आना मेरे गांव, वादा है हर बेटी को गांव में ही ब्याहने की कोशिश करोगे।
दूर ही रखना अपनी महानगरीय संस्कृति को मेरे भोले से गांव से।

About the author

ashrutpurva

error: Content is protected !!