राधिका त्रिपाठी II
मुंह ताकते बुजुर्ग…आंखें अंदर तक धंसी हुई। झुर्रियों से पटा हुआ चेहरा। और नितांत अकेलापन का सन्नाटा। कहां जाएं वो? किससे करें बातें। अब कोई बच्चा भी राजा-रानी की कहानियां सुनने नहीं आता। बेटा-बहू दोनों नौकरी पेशा हैं, लेकिन उनके पास समय नहीं हाल पूछने का। खुल कर हंसे हुए जमाना बीत गया। जिन बुजुर्गों के बेटे-बेटियां विदेश गए पढ़ने, वे वहीं शादी करके बस गए। अब उनके हिस्से बस फोन आता। और फिर धीर-धीरे फोन का रिश्ता भी खत्म होने लगा।
…अब इंतजार में नम आंखें दरवाजे पर टकटकी लगाए देखती रहती हैं कि कहीं से कोई आवाज सुनाई दे। कहीं से बेटा या बेटी दौड़ कर गले लगा ले, तो सीने में सुकून आ जाए। कांपते हाथों को छड़ी के बजाय उंगलियों का सहारा मिल जाए तो अच्छा होता। लेकिन ये सब अब कहां संभव है। गुजरे वक्त कभी लौट कर नहीं आते। जो कदम बच्चों के पीछे पीछे भागते-भागते दिन-रात नहीं थकते थे। अब उन्हीं पैरों ने जवाब दे दिया है। घुटने काम के नहीं रहे।
जिन दांतों से कभी अखरोट तोड़ कर बच्चों को मजबूती दिखाया करते थे। वो दांत अब एक-एक कर हिलने लगे। कमर झुक कर कमान हो गई। कंधे अपनी जगह से खिसक कर समर्पण कर चुके हैं। मानो कह रहे हों कि देखो तुम मेरी ये दशा। इन्हीं पर मैंने तुम्हें घुमाया-फिराया। अब तुम मेरे कंधे पर अपना हाथ ही रख दो। आखिर ये बेबसी, ये उदासी लिए मैं कब तक यूं ही जिंदा रहूंगा। तुम आकर मिल जाओ मेरी आंखों में। फिर बचपने वाला नूर भर दो ताकि मैं फिर से चूम लूं तुम्हारा माथा।
बेजारी उतना नहीं मारती। शारीरिक कष्ट भी कम लगते हैं जब बुजुर्ग जोड़ा अपनों के साथ रहता है। कितना कुछ रहता है उनकी उम्र में करने के लिए, लेकिन वे तो बस अपनेपन की गिरफ्त में रहते हैं। कई बुजुर्ग तो अपने घर में अपनों के साथ रहते हुए भी पराए रहते। क्या निदान है इनके दुखों का? क्या इन्हें अब जीने का अधिकार नहीं?
क्या ये पुराने फर्नीचर की तरह एक कोने में पड़े रहें?
बिलकुल नही। आप अपने जीवन के आखिरी पड़ाव में अवसादग्रस्त न होकर बल्कि पूरे उल्लास के साथ जिए। अपनें मित्रों के पास जाएं। योग करें। धीरे-धीरे ही सही, मगर टहलें। पुरानी बातों को याद कर हंसें। और जीवन की संध्या को संगिनी के साथ मिल कर एक बार फिर से जिएं सिर्फ अपने लिए और अपने साथी के लिए। न कोई जिम्मेदारी न कोई तनाव। सहजता से रहें। सुपाच्य आहार लें। सेहत का ख्याल रखें। संगीत सुनें अपने पसंद की। जीवन की सांध्य बेला में भी जिंदगी खूबसूरत हो सकती है।
जिन बुजुर्गों के बेटे-बेटियां विदेश गए पढ़ने, वे वहीं शादी करके बस गए। अब उनके हिस्से बस फोन आता। और फिर धीर-धीरे फोन का रिश्ता भी खत्म होने लगा।