राधिका त्रिपाठी II
अनादि काल से स्त्री संघर्ष करती आई है। वह राक्षसों से लड़ी। विजय पाई। समय आने पर सिंहासन भी संभाला। लंबे समय तक वे अपने अधिकार का उपयोग भी करती आई। स्त्री की सत्ता और अस्मिता को कायम रखा उसने। वह ओजस्विनी कहलाई। उसका यश दूर-दूर तक फैला। वह दुहिता बन लाड़ पाती रही। उसे शिक्षा का अधिकार मिला। वयस्क होने पर उसे जीवनसाथी भी मिला। यानी बाल विवाह के दुर्योग का सामना नहीं करना पड़ा।
एक वक्त यह भी आया कि स्त्रियों को दमन का सामना करना पड़ा। वह शिक्षा से वंचित की गई। उसका उत्पीड़न किया गया। कई बार उसे कोख में ही मार दिया गया। ऐसा इसलिए कि उसके जन्म को मनहूस मान लिया गया। देखते ही देखते स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व को खत्म करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई। …मगर वैदिक युग में स्त्रियों की स्थिति पर गर्व कर सकते हैं।
मगर बाद के कालों में उनकी स्थिति खराब होती चली गई। महाभारत काल में तो और पतन हुआ। कई प्रथाएं उनके लिए बेड़ियां बनती गईं। एक समय बाद उनकी स्वतंत्रता तक छीन ली गई। घरों में रहने के लिए विवश किया गया। अशिक्षित रहने के लिए मजबूर किया गया। पितृसत्तात्मक समाज में उसे एक तरह संपत्ति बना दिया गया। इस तरह कालक्रम में स्त्रियों को पग-पग पर संघर्ष करना पड़ा। मुगल काल और विदेशी आक्रांताओं के दौर में बहुत कष्ट सहना पड़ा। मगर क्या उसका इस धरती पर होना सचमुच बोझ है? वह मनहूस क्यों कहलाई भारतीय परिवारों में। जबकि उसके जीवन से ही यह घर और संसार है। उसकी पीड़ा को कब और किसने समझा है।
संघर्ष आज भी जारी है। इस पीड़ा को एक स्त्री ही समझ सकती है। वह शक्ति है, वह महसूस कर सकती है कि किसकी नजर बुरी है या अच्छी है। कौन उसके बारे में क्या कह रहा है। वह समझ सकती है। वह शब्दों में बयान तो नहीं कर सकती मगर वह अहसास करा सकती है कुछ इस तरह-मैं चाहती हूं मेरी मौत की खबर दुनिया में मेरे आने की तरह फैले। उसी तरह मेरी आंखें बंद हों। मेरी मुट्ठियां भीचीं हुई हों जैसे जन्म के समय थी। और सारी दुनिया उदास हो। औरतें कानाफूसी करें कि बड़ी मनहूस है इसकी पैदाइश। पैदा होते ही बाप को खा गई।
सुनिए उस बच्ची का यह दर्द …और मैं इन बातों को सुन कर बस अबोध-सी मुस्कुराऊं। कभी तो रोने लगूं कभी चौंक कर आंखे खोल दूं। और बता दूं कि मैं अब जा रही हूं अपनी मनहूसियत लेकर अपने बाप के पास। तुम सब अब खुश रहो। लेकिन मुझे पता है मेरे जाने से भी यह मनहूसियत नहीं जाएगी फिर कोई न कोई नई मनहूसियत पैदा हो जाएगी और फिर बाप को खाएगी। भाई को खा जाएगी।
वह कहती है, काश कि सारी मनहूसियत मेरी मृत्यु के साथ ही खत्म हो जाती और मेरी मां भी रो-धो कर अपना मन हल्का कर नए रास्ते चुनती। लेकिन उन्होंने मुझे चुना और मैंने क्या चुना? एक शून्य अवस्था जिसे कुछ न तो सुनाई देता, न कुछ दिखाई देता। अपनी भी आवाज नहीं सुनाई देती अपना चेहरा भी नहीं दिखाई देता। कितना मुश्किल है मुझ जैसा बन जाना। न कोई गम और न कोई खुशी। बस शून्य हो जाना।
जब बच्ची वयस्क हो जाती है तो उसे बहुत कुछ भोगना पड़ता है। उस पीड़ा को भी वह यों रखती है-मैं देख रही हूं जो मुझे कभी पसंद नहीं करते थे। वो सभी आए हैं मेरे मृत्यु पर शोक करने। कुछ रो रहे हैं। तो कुछ अभी भी कानाफूसी कर रहे हैं। अब मैं सभी के लिए बहुत अच्छी हो गई। सभ्य हो चुकी हूं। मुझे वही अपने कांधे पर ले जा रहे रोते हुए, जिसने मुझे कभी अपना कंधा नहीं दिया रोने के लिए। वही मुझे अग्नि दे रहे जिसने मेरे मन को स्वाहा किया। लेकिन अब इन बातों का क्या मैं तो शून्य अवस्था में हूं। मैं पुन: जन्म लेने के लिए तैयार हो रही। एक नया गर्भ धारण करने जा रही। इस नए जन्म में तुम मुझे मनहूस नहीं बस मनुष्य समझना और अपना कीमती समय देना। रोने पर अपना कांधा मेरे सामने कर देना।
एक स्त्री का ऐसा करुण स्वर कभी सुना है क्या। अगर कोई सुन पाता तो यह दुनिया कितनी सुंदर हो जाती ना। इसलिए हमें हर स्त्री के जन्म को प्रकृति का उत्सव मानना होगा। जिस घर में स्त्री नहीं, वह घर वीरान होता है। वहां खुशियों के दीप नहीं जलते। स्त्री के बिना हर पुरुष का जीवन सूना है। उसे जीतना नहीं है, उसे आगे बढ़ाना है। उसे पंख देना है। उसे अग्निपंख दीजिए। वह भरेगी नई उड़ान, एक नई दुनिया रचने के लिए।