कविता काव्य कौमुदी

तरु तुम केवल समझ सके हो मेरे मन की पीर

प्रीति कर्ण II

सूखी नदियाँ सूखे सागर
दुख भरता नित मन की गागर
तरल विकल जीवन धारा में
द्रावकता मन बांध न पाए भरते नैना नीर
तरु तुम केवल समझ सके हो मेरे मन की पीर|

अनदेखे अवसाद भरे पल
जब अमर्ष कर जाते विह्वल
क्षणिक दिलासा जीवन देती
फूल घिरे जब जब शूलों से रख लेते मन धीर
तरु तुम केवल समझ सके हो मेरे मन की पीर|

नीड़ छोड़ खग हुए प्रवासी
जीवन संध्या है एकाकी
तृष्णा के विस्तारित नभ में
राग रंग की सघन उर्वरा खींचे नयी लकीर
तरु तुम केवल समझ सके हो मेरे मन की पीर||

कुम्हलाए हैं मुकुल विरागी
आशाएँ अंतस अनुरागी
उकताता है तुमुल कलह रव
मोह भंग की प्रत्याशा में टूटे हर जंजीर|
तरु तुम केवल समझ सके हो मेरे मन की पीर|

(प्रिय कवयित्री  महादेवी वर्मा  जी को  सादर  समर्पित )

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