आलेख कथा आयाम

आधुनिक हिन्दी काव्य की यात्रा (भाग-२)

प्रताप नारायण सिंह II

इस लेख में आधुनिक हिन्दी काव्य के दूसरे भाग की ओर चलते हैं – छायावाद के बाद का युग, जिसे उत्तर छायावादी युग भी कहा जाता है| यहाँ प्रकाश में आते हैं रामधारी सिंह दिनकर| छायावाद की कल्पना को अब ठोस धरातल उपलब्ध कराने का समय आ गया था| कवियों पर यथार्थ का दबाव बढ़ने लगा था| स्वतन्त्रता संग्राम का संघर्ष अपने उत्कर्ष पर पहुँच चुका था| जन जन में स्वाधीनता को लेकर जागृति आ चुकी थी| दूसरी ओर भारत में मार्क्सवाद का प्रभाव बढ़ रहा था, जिससे दिनकर अछूते तो नहीं थे, किन्तु उनके अंदर राष्ट्र चेतना अधिक प्रबल दिखाई दे रही थी| अपने दो ग्रंथों रेणुका और हुँकार के माध्यम से उन्होंने क्रांतिकारियों के सुर में सुर मिलाया – 

गत विभूति, भावी की आशा ले युगधर्म पुकार उठे,
सिंहों की घन-अन्ध गुहा में जागृति की हुंकार उठे।
जिनका लुटा सुहाग, हृदय में उनके दारूण हूक उठे,
चीखू यों कि याद कर ऋतुपति की कोयल रो कूक उठे।

इन पंक्तियों के वाचन से ही दिनकर के ओज का पता चलता है| 
राष्ट्रीय चेतना के साथ साथ उनकी कविताएँ करुणा से भरी मानवतावाद का भी प्रबल ढंग से समर्थन करती हैं – 

श्वानों को मिलते दूध-वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं,
माँ की हड्डी से चिपक, ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं।

उनकी मानावातावाद के दृश्य लगभग हर स्तर पर फैले हुए हैं|  जब महात्मा गाँधी के आह्वान पर हरिजनों के वैद्यनाथ धाम (देवधर) में मंदिर-प्रवेश के प्रयास के दौरान पंडों ने उन पर हमला किया तो दिनकर इस घटना से क्षुब्ध हो उठे :

आह! सभ्यता के प्रांगण में आज गरल-वर्षण कैसा!
घृझा सिखा निर्वाण दिलानेवाला यह दर्शन-कैसा।
स्मृतियों का अंधेर! शास्त्र का दम्भ! तर्क का छल कैसा।
दीन-दुखी असहाय जनों पर अत्याचार प्रबल कैसा!

वैचारिक स्तर पर एक ओर वे कार्ल मार्क्स के साम्यवादी सिद्धांत से प्रभावित थे, किन्तु उसे वे समग्रता में ग्रहण करने के पक्षधर नहीं थे| उसका कारण यह था कि उस समय भारतीय कम्युनिस्ट (साम्यवादी , मार्क्सवादी ) विचारधारा के लोगों के अंदर राष्ट्रवाद और अंतर्राष्ट्रीयता को लेकर निरंतर एक द्वन्द चल रहा था| उनके समक्ष दो लक्ष्य आपस में टकराव की स्थिति उत्पन्न कर रहे थे- एक तो देश की स्वाधीनता और दूसरा साम्यवाद की स्थापना- प्राथमिकता किए दी जाए, यह एक बड़ा प्रश्न था| इसी कारण तत्कालीन प्राथमिकताओं के सम्बंध में मार्क्सवाद देश की जनधारा के साथ पूरी तरह नहीं जुड़ पा रहा था| साथ ही उस समय लोग गाँधी जी के मानवतावाद से अधिक जुड़ रहे थे, जिसका आधार सत्य , अहिंसा और प्रेम था| अपनी “दिल्ली और मास्को” नामक रचना में दिनकर कम्युनिस्टों को अपनी प्राथमिकता तय करने को कहते हैं – 

ओ समता के वीर सिपाही, कहो, सामने कौन अड़ी है?
बल से दिए पहाड़ देश की, छाती पर यह कौन पड़ी है?
यह है परतंत्रता देश की, रूधिर देश का पीने वाली
मानवता कहता तू जिसको, उसे चबाकर जीने वाली।

राष्ट्रीय चेतना के साथ – साथ दिनकर के अंदर सांस्कृतिक चेतना भी प्रबल थी| स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद उन्होंने सौन्दर्य और प्रेम पर आधारित अपनी सर्वोत्कृष्ट रचना उर्वशी का सृजन किया| 
दिनकर अपने सृजन का आरम्भ तो छायावादी संस्कारों के साथ करते हैं किन्तु शीघ्र ही अपनी धारा बदल लेते हैं और उनकी रचनाओं में राष्ट्रीय चेतना प्रबल हो जाती है और उनके काव्य का मूल स्वर ओजपूर्ण राष्ट्रीयता और सामजिक कुरीतियों पर प्रहार बन जाता है| उसके साथ करुणामय मानवतावाद और सौन्दर्य व् प्रेम की भी अभिव्यक्ति उनकी रचनाओं में होती है| वैयक्तिक आवेग की भी उनमें कमी नहीं है| वे लिखते हैं – 

सुनूँ क्या सिन्धु मैं गर्जन तुम्हारा 
स्वयं ही युग – धर्म की हुँकार हूँ मैं
    

दिनकर के काव्य भाषा की बात करें तो उन्होंने सदैव इसका ध्यान रखा कि पाठकों को कठिनाई का सामना न करना पड़े। इसलिए सुस्पष्टता को कविता के सबसे बड़े कलात्मक गुणों के रूप में देखा। उनकी भाषा शैली सुस्पष्ट, ओजपूर्ण और भावपूरित थी| उन्होंने छंदबद्ध और मुक्त छंद दोनों की काव्य रूपों को अपनाया| 

प्रगतिवाद – 

प्रगतिवाद के युग में जो वैश्विक परिवेश था वह बहुत ही उथल पुथल से भरा हुआ था| यूरोप फाँसीवाद की चपेट में था| जिसके विरुद्ध एक आन्दोलन खड़ा हो गया जो मार्क्स की विचारधारा की शक्ति से समर्थित था| भारत में यह आन्दोलन स्वतन्त्रता आन्दोलन के साथ जुड़ गया| १९३६ में प्रगतिशील लेखक मंच की स्थापना की गयी, जिसका उद्देश्य था एकत्रित होकर शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध साहित्य और कला के माध्यम से आवाज उठाना| वह शोषण और उत्पीडन किसी भी प्रकार का हो| हाँ उसकी एक सीमा मार्क्सवाद अवश्य थी और प्रगतिवाद के प्रतिनिधि कवियों और लेखकों पर मार्क्सवाद का गहरा प्रभाव रहा|
कार्ल मार्क्स का शारीरिक अवसान हुए तो ४०-४५ वर्ष बीत चुके थे किन्तु उनके सिद्धांत और उनका वाद तेजी से विश्व में फ़ैल रहा था| भारत में भी मार्क्सवादी विचारों का अनुसरण करने वाले लोग थे| उसमें कवि और साहित्यकार भी थे| 
छायावादी कवि सुमित्रानंदन पन्त भी उनके सिद्धांतों के घोर प्रशंसक थे| उन्होंने लिखा – 

धन्य मार्क्स! चिर तमच्छन्न पृथ्वी के  उदय शिखर पर 
तुम त्रिनेत्र के ज्ञान चक्षु से प्रकट हुए प्रलयंकर

इन पंक्तियों में भक्ति की हद तक की प्रशंसा दिखाई देती है| 

पढ़े-लिखे लोगों के बीच मार्क्सवाद के लोकप्रिय होने का बड़ा कारण था उसका तार्किक होना और उसमें समता के भावबोध का समाविष्ट होना| मार्क्स के सिद्धांत तर्क पर आधारित हैं और बुद्धिवादी लोगों को तर्क सदैव आकर्षित करता है| यही कारण रहा कि भारतीय साहित्यकारों में सुमित्रानंदन पन्त से शुरू होकर उनके परवर्ती अनेक बड़े कवि मार्क्सवाद से प्रभावित रहे| मार्क्सवाद का बाकायदा प्रतिष्ठित साहित्यकारों के द्वारा प्रचार-प्रसार किया जाता था, यह प्रक्रिया समकालीन कविता तक जारी रही| शमशेर बहादुर सिंह (अभी आगे आयेंगे) ने अपने परवर्ती कवि रघुवीर सहाय को एक सलाह देते समय अच्छी कविता के सृजन हेतु तीन बिन्दुओं का पालन करने को कहा जिसमें से एक प्रमुख बिंदु मार्क्सवाद है| एक साक्षात्कार में उन्होंने मार्क्सवाद के विषय में कहा था – मार्क्सवाद से नजरिया बेहतर, वैज्ञानिक और विश्वसनीय होने के साथ – साथ दृष्टि में विस्तार मिलता है और विश्व – बंधुता का अहसास भी होता है| 
प्रगतिवाद के पहले प्रतिनिधि कवि नागार्जुन घोषित रूप से मार्क्सवादी थे| उनका स्वयं का जीवन भी संघर्षों से भरा हुआ था| उन्होंने किसान आन्दोलनों से लेकर जयप्रकाश नारायण की  सम्पूर्ण क्रांति तक में भाग लिया| लाठियाँ खाए और जेल भी गए| इस समस्त संघर्ष की छाप उनकी कविताओं पर स्पष्ट दिखाई देती है|
नागार्जुन को यदि एक वाक्य में परिभाषित करना हो तो कह सकते हैं कि वे संवेदना के कवि थे| उनके संवेदना का स्तर कितना प्रबल और व्यापक था वह इन पंक्तियों से सपष्ट हो जाता है – 
धूप में पसरकर लेटी है

मोटी- तगड़ी, अधेड़, मादा सूअर…
जमना-किनारे 
मखमली दूबों पर
पूस की गुनगुनी धूप में
पसरकर लेटी है
यह भी तो मादरे हिन्द की बेटी है
भरे- पूरे बारह थनों वाली !
लेकिन अभी इस वक्त
छौनों को पिला रही है दूध
मन-मिजाज ठीक है
कर रही है आराम
अखरती नहीं है भरे – पूरे थनों की खींच-  तान
दुधमुँहे छौनों की रग – रग में
मचल रही है आखिर माँ की ही तो जान !
जमना-किनारे
मखमली दूबों पर
पसरकर लेटी है
यह भी तो मादरे – हिन्द की बेटी है !

नागार्जुन की संवेदना जीव मात्र से जुड़ी हुयी थी| उनकी कविताओं में अनेक जीव आते हैं| उनकी प्रसिद्ध कविता “अकाल और उसके बाद” देखिये – 

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।

नागार्जुन बाबा कई भाषाओं के ज्ञाता थे| हिन्दी के अतिरिक्त बांग्ला और संस्कृत में भी कविताएँ लिखी| उन्हें छोटी से छोटी बात भी छू जाती थी| डॉ नामवर सिंह का मानना है कि कबीर के बाद हिन्दी कविता में सबसे बड़े व्यंगकार नागार्जुन हैं| व्यंग की उनकी अपनी एक धारा है – 

खड़ी हो गई चाँपकर कंकालों की हूक
नभ में विपुल विराट-सी शासन की बंदूक
उस हिटलरी गुमान पर सभी रहें है थूक
जिसमें कानी हो गई शासन की बंदूक
बढ़ी बधिरता दस गुनी, बने विनोबा मूक
धन्य-धन्य वह, धन्य वह, शासन की बंदूक
सत्य स्वयं घायल हुआ, गई अहिंसा चूक
जहाँ – तहाँ दगने लगी शासन की बंदूक

नागार्जुन बाबा किसी को छोड़ते नहीं थे| ब्रिटेन की रानी के भारत आगमन पर होएं वाले धूम धाम को देखकर बोल पड़ते हैं – 

आओ रानी हम ढोयेंगे पालकी, 
यही हुयी है राय जवाहरलाल की|  

नागार्जुन ६८ वर्षों तक सृजन करते रहे और अपने लेखन उन्होंने हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया| उन्होंने अपने अधिकांश सृजन में बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया| छंद बद्ध और मुक्त छंद दोनों ही तरह के प्रयोग किए| उनकी लम्बी कविताओं में गद्यात्मकता और वर्णनात्मकता मिलती है| उनकी कविताओं में मिथकों और बिम्बों का प्रयोग मिलता है| 

प्रगतिवाद के दूसरे बड़े कवि मुक्तिबोध हैं| यहाँ से कविता में दर्शन का समावेश आरम्भ हो जाता है| मुक्तिबोध की कविताओं में शोषित – उत्पीडित जनता से जुड़ाव और शोषक सत्ता के विरोध के साथ साथ आत्म संघर्ष और आत्म साक्षात्कार का प्रबल आग्रह दिखाई देता है| उनकी कविताओं में तीन तत्वों की प्रधानता परिलक्षित होती है- मार्क्सवादी चिंतन, जीवन दर्शन और सामाजिक सरोकारों की अभिव्यक्ति| वे प्रायः इन्हें आपस में गूँथते हुए दिखाई देते हैं जिससे आरम्भ में उन्हें विश्लेषित करने में गलतियाँ भी हुयीं| यहाँ तक कि उन्हें अंतर्विरोधों का कवि सिद्ध कर दिया गया| किन्तु बाद में यह बात निर्विवाद रूप से स्वीकार की गयी कि वे एक एक संघर्षशील और जागरूक कवि थे| उनके जीवन दर्शन और सामाजिक सरोकार की बुनावट निम्नलिखित कविता में देखा जा सकता है| यहाँ उन्होंने जीवन और कविता का अत्यंत विशुद्ध और विस्तृत खुलासा प्रस्तुत किया है :

“कि मैं अपनी अधूरी दीर्घ कविता में
सभी प्रश्नोत्तरी की तुंग प्रतिमाएँ
गिराकर तोड़ देता हूँ हथौड़े से
कि वे सब प्रश्न कृत्रिम और
उत्तर और भी छलमय
समस्या एक –
मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों में
सभी मानव सुखी सुन्दर व शोषण मुक्त कब होंगे?”

यहाँ वे सभी के सुन्दर , सुखी और शोषण मुक्त होने की कामना करते हैं| 

वे अपने मार्क्सवाद के चिंतन को कुछ इस तरह से व्यक्त करते हैं – 

“सुकोमल काल्पनिक तल पर
नहीं है द्वन्द्व का उत्तर
तुम्हारी स्वप्र वीथी कर सकेगी क्या?
बिना संहार के, सर्जन असंभव है,
समन्वय झूठ है,
सब सूर्य फूटेंगे
वा उनके केंद्र टूटेंगे
व मेरे कारणों से सकुच जाती है
कि मैं अपनी अधूरी बीड़ियाँ सुलगा
खयाली सीढ़ियाँ चढ़ कर
पहुंचता हूँ
निखरते चाँद के तल पर,

अचानक विकल होकर तब मुझी से लिपट जाती है।” 

यहाँ वे कह रहे हैं कि बिना संहार के सर्जन संभव नहीं है जो कि क्रान्ति का संकेत है| वास्तव में मुक्तिबोध की सभी रचनाओं के मूल में एक ही समस्या के समाधान और आत्म साक्षात्कार 

आत्म-शोध और आत्मालोचन की प्रवृत्ति मुक्तिबोध में अन्य कवियों की अपेक्षा अधिक दिखाई देती है:

“कि मैं अपनी अधूरी दीर्घ कविता में
उमग कर जन्म लेना चाहता फिर से
कि व्यक्तित्वांतरित होकर
नये सिरे से समझना और जीना
चाहता हूँ सच।”

मुक्तिबोध प्रगतिशील काव्य के प्रतिनिधि तो थे किन्तु उन्होंने काव्य और जीवन को अलग ढंग से विश्लेषित किया और कविता की अपनी शैली गढ़ी| उनकी कविताओं में वर्तमान सभ्यता की समीक्षा भी देखने को मिलती है: 

“शोषण की अति मात्रा
स्वार्थों की सुख-यात्रा
जब जब सम्पन्न हुई
आत्मा से अर्थ गया, मर गयी सभ्यता’.

मुक्तिबोध ने अपनी कविताओं के सृजन में फैंटसी शिल्प का अधिक उपयोग किया है| कविता की भाषा काव्य कला युक्त रखी है| उपमा, रूपक बिम्ब प्रतीक इत्यादि का समुचित प्रयोग किया है| अधिकांश कविताएँ मुक्त में रचित हैं|  

प्रयोगवाद और नयी कविता 

उस समय जिस तरह से जैसे देश और विश्व के परिदृश्य में तेजी से परिवर्तन हो रहा था उसी प्रकार कविता की धारा भी बहुत जल्दी जल्दी बदल रही थी| छायावाद युग लगभग बीस वर्ष चला और उसके बाद प्रगतिशील काव्य का युग आया जो कि एक दशक तक ही रहा उसके बाद प्रयोगवाद का उद्भव हुआ| प्रयोगवाद का आरम्भ अज्ञेय द्वारा संपादित तार सप्तक से माना जाता है| प्रयोगवाद के कवियों ने प्रगतिवाद पर दो आरोप लगाए – . प्रगतिवाद साहित्य के उद्देश्य को संकीर्ण कर दे रहा था जो कि कविता की व्यापकता और एक कवि की स्वतन्त्रता को बाधित कर रहा था| २ –एक निश्चित अंतर्वस्तु पर ध्यान केन्द्रित किए जाने के कारण प्रगतिवादी काव्य किसी विशेष विचारधारा का प्रचार बनाता जा रहा था| अज्ञेय इससे असंतुष्ट थे और उन्होंने वैयक्तिक स्वतन्त्रता के आधार पर “प्रयोगवाद’ आरम्भ किया| किन्तु प्रयोगवाद अंततः अपने अंतर्विरोधों का ही शिकार हो गया और उसकी मुक्ति नयी कविता में हुई| वास्तव में नयी कविता में प्रगतिवाद और प्रयोगवाद दोनों ही समाहित हो गए और अब कविता की एक स्थिर धारा बह निकली| देश भी स्वतंत्र हो चुका था| उथल-पुथल रुक गया था| 

नयी कविता में जीवन के किसी एक पक्ष को नहीं बल्कि समग्रता से उतारने का प्रयत्न आरम्भ हुआ| अब हम प्रयोगवाद और नयी कविता दोनों के 

प्रतिनिधि कवि अज्ञेय की काव्य रचनाएं 

अज्ञेय की रचनाओं की रचनाओं में हर स्टार पर आधुनिकता मिलती है| अंतर्वस्तु में व्यापकता दृष्टिगोचर होती है और काव्यभाषा और काव्यशिल्प एक नयी समृद्धि से परिपूरित दिखाई देती है| कविता हर तरह के आवेश और तनाव से मुक्त दिखाई देती है और उसमें एक अभूतपूर्व ठहराव का दर्शन होता है| अज्ञेय की दूर्वाचल की पंक्तियाँ हैं – 

पार्श्व गिरि का नम्र, चीड़ों में
डगर चढ़ती उमंगों-सी।
बिछी पैरों में नदी ज्यों दर्द की रेखा।
विहग-शिशु मौन नीड़ों में
मैंने आँख भर देखा।
दिया मन को दिलासा- पुनः आऊँगा।
(भले ही बरस- दिन अनगिन युगों के बाद!)
क्षितिज ने पलक- सी खोली,
तमक कर दामिनी बोली –
‘अरे यायावर! रहेगा याद?’

इसमें प्रकृति और प्रेम दोनों का एक बिलकुल नवीन बोध दिखाई पड़ता है|

अज्ञेय के काव्य का मुख्य स्वर आत्मबोध, मूल्य बोध, जीवन बोध, आधुनिकता वैयक्तिकता और सामजिक सरोकार रहा| आधुनिकता के बोध को इन पंक्तियों में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है – 

उनकी आत्मबोध से युक्त कुछ पंक्तियाँ – 

अगर मैं तुमको
ललाती साँझ के नभ की अकेली तारिका
अब नहीं कहता,
या शरद के भोर की नीहार-न्हायी कुंई,
टटकी कली चम्पे की
वगैरह, तो
नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या कि सूना है
या कि मेरा प्यार मैला है।
बल्कि केवल यही :
ये उपमान मैले हो गए हैं
देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच!
कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।

उनकी आत्मबोध से युक्त कुछ पंक्तियाँ –
दुःख सबको माँजता है
और –
चाहे स्वयं सबको मुक्ति देना वह न जाने, किन्तु
जिनको माँजता है
उन्हें यह सीख देता है कि सबको मुक्त रखें।
उनकी स्वाधीन चेतना और व्यक्तित्व की खोज इन पंक्तियों में दिखाई पड़ती है – कितनी दूरियों से कितनी बार
कितनी डगमग नावों में बैठकर
मैं तुम्हारी ओर आया हूँ
ओ मेरी छोटी-ज्योति!
कितनी बार मैं,
धीर, आश्वस्त, अक्लान्त
ओ मेरे अनबुझे सत्य! कितनी बार..

कुल मिलाकर हम यह कह सकते हैं कि आधुनिक हिन्दी काव्य का एक बहुत ही महत्वपूर्ण मोड़ रहा प्रयोगवाद और नयी कविता का उदय और अज्ञेय के सृजन ने इसे समृद्धि प्रदान की| उन्होंने नए अंतर्वस्तु गढ़े , नयी काव्यभाषा और शैली का विकास किया| काव्य के कला तत्व भी समुचित मात्रा में रहे| उन्होंने एक आदर्श काव्य का सृजन किया|

About the author

प्रताप नारायण सिंह

प्रताप नारायण सिंह उन प्रतिभाशाली लेखकों में से हैं जिनकी पहली ही पुस्तक “सीता: एक नारी” को 'हिंदी संस्थान', उत्तर प्रदेश द्वारा “जयशंकर प्रसाद पुरस्कार" जैसा प्रतिष्ठित सम्मान प्रदान किया गया। साथ ही पुस्तक लोकप्रिय भी रही। तदनंतर उनका उपन्यास “धनंजय" प्रकाशित हुआ, जो इतना लोकप्रिय हुआ कि एक वर्ष की अवधि के अंदर ही उसका दूसरा संस्करण 'डायमंड बुक्स' के द्वारा प्रकाशित किया गया। इस बीच उनका एक काव्य संग्रह "बस इतना ही करना" और एक कहानी संग्रह राम रचि राखा" भी प्रकाशित हुआ। “राम रचि राखा" की अनेक कहानियाँ कई पत्रिकाओं में पूर्व प्रकाशित हो चुकी थीं। उनका नवीनतम उपन्यास 'अरावली का मार्तण्ड'डायमंड बुक्स के द्वारा प्रकाशित किया जा रहा है।

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