हेमलता म्हस्के II
जननायक कर्परी ठाकुर भारतीय राजनीति में सिर्फ पिछड़ों और अति पिछड़ों के नेता ही नहीं थे बल्कि पूरी मानवता को सजाने संवारने वाले महान शिल्पी भी थे। उन्होंने सदियों से विषमता में कराहते भारतीय समाज में समानता की अलख जगाई और मौका मिलते ही जमीनी स्तर पर इसे लागू करने में भी देरी नहीं की। हालांकि इन बहुमुखी और जरूरी मानवीय प्रयासों के लिए उन्हें काफी आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा लेकिन कर्पूरी जी ने तनिक परवाह नहीं की।
उन्होंने अपने समय में जो किया वह भविष्य की पीढ़ियों के उद्धार के लिए किया। समाज में व्याप्त विभिन्न तरह की विषमताओं को मिटाने और समता, बंधुता तथा स्वतंत्रता के मूल्यों वाले समाज को गढ़ने की कोशिश की। वे एक न्यायपूर्ण समाज निर्माण के हिमायती थे और समाज वैज्ञानिक शिल्पकार थे। उनके प्रयत्नों का परिणाम भी दिखाई पड़ रहा है। उनके प्रयासों से भारतीय समाज में एक नए युग की शुरुआत हुई है।
आज उनके जोड़ के नेता खोजने से भी नहीं मिलेंगे। कर्पूरी जी ने अथक मेहनत कर पिछड़ों और अति पिछड़ों को सत्ता की कुर्सी तक पहुंचाया। उनके जीवन स्तर और मान-मर्यादा में बढ़ोतरी की। वे उस जमाने में भी मंत्री, उप मुख्यमंत्री और मुख्यमंत्री तक पहुंचे, जिसकी उस समय कोई कल्पना तक नहीं करता था।
24 जनवरी, 1924 को समस्तीपुर के पितौंझिया (अब कर्पूरीग्राम) में जन्मे कर्पूरी ठाकुर बिहार में एक बार उपमुख्यमंत्री, दो बार मुख्यमंत्री और दशकों तक विधायक और विरोधी दल के नेता रहे। साल 1952 की पहली विधानसभा में चुनाव जीतने के बाद वे बिहार विधानसभा का चुनाव कभी नहीं हारे। जनता ने इन्हें कभी हराया नहीं। जबकि उनके पास आज के उम्मीदवारों की तरह अथाह पैसे भी नहीं थे।
भारतीय समाज में कर्पूरी जी के जमाने में तीन तरह के समुदाय थे- पुरुस्कृत, तिरस्कृत और बहिष्कृत। कर्पूरी जी तिरस्कृत और बहिष्कृत समुदायों के जीवन में बदलाव लाने में कामयाब हुए। उन्होंने इनके लिए न सिर्फ नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था की बल्कि वे नौकरियों के योग्य बन सके इसके लिए भी अनेक नई व्यवस्था कीं। उन्होंने सरकारी स्कूलों में पहली कक्षा से मैट्रिक तक की शिक्षा निशुल्क कर दिया ताकि गरीब-गुरबों के बच्चे शिक्षा से वंचित नही रहे। उन्होंने संविधान सभा की आकांक्षाओं के अनुरूप राजकाज और स्कूलों में अंग्रेजी की अनिवार्यता को खत्म किया। सरकारी राजकाज में हिंदी की अनिवार्यता को लागू किया। नौकरियों में महिलाओं के द्वार खोले। आज अगर पंचायती राज व्यवस्था में 50 फीसद आरक्षण महिलाओं को मिला है तो इस प्रावधान के पीछे अपने समय में कपूर्री जी की पहल का ही नतीजा है।
आज कर्पूरी जी भौतिक रूप से विद्यमान नहीं हैं, लेकिन कम समय के कार्यकाल में बिहार में आज उनके किए अनेक बहुमुखी प्रयत्नों के अच्छे परिणाम दिखाई पड़ रहे हैं। अगर उनके उत्तराधिकारी कर्पूरी जी के आरक्षण के फार्मूलों को हूबहू लागू कर देते तो आज अति पिछड़ों को और भी लाभ मिलता। उनके उत्तराधिकारी न जाने क्यों कर्पूरी जी के आरक्षण के फार्मूलों को मौलिक रूप से लागू नहीं किया। साल 1971 में मुख्यमंत्री बनने के बाद किसानों को बड़ी राहत देते हुए उन्होंने गैर लाभकारी जमीन पर मालगुजारी टैक्स को बंद कर दिया।
कर्पूरी जी पूरे जीवन सिद्धांतवादी रहे और ऐसे आदर्श स्थापित करके गए जो आज के नेताओं में नहीं मिलते। वे गांधी, जयप्रकाश, लोहिया के साथ महात्मा फुले, आंबेडकर और परियार के विचारों से प्रभावित थे। जब वे सत्ता में आए तो इन महापुरुषों के विचारों को लागू करने में लगे रहे। उनकी ईमानदारी और सादगी की अनेक कहानियां आज भी लोगों की जुबान पर हैं जो बाद में सिर्फ किताबों की बातें रह जाएंगी। अक्सर उनकी बेमिसाल मानवीय प्रवृत्तियों की चर्चा कम होती है वे स्वाधीनता सेनानी थे और 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान 26 महीने जेल में रहे।
वे मानवता के सभी मूल्यों के प्रति जागरूक और संवेदनशील थे। वे उन मूल्यों को जीते थे और आजादी के बाद जब सत्ता में पहुंचे तब भी उनसे क•ाी अलग-थलग नहीं हुए। वे मुख्यमंत्री थे, लेकिन उनके पास अपना कोई मकान नहीं था। अपनी कोई कार नहीं थी। कर्परी ठाकुर के बारे में चर्चित विभिन्न प्रसंगों में एक यह भी है कि एक बार प्रधानमंत्री रहते हुए चौधरी चरणसिंह उनके घर गए थे। उन्हें कर्पूरी जी के घर में प्रवेश करने के दौरान सिर में चोट लग गई तो उन्होंने कर्पूरी जी को अपना बढ़िया सा मकान बनवा लेने की बात कही, तो इस पर उनका जवाब था कि जब तक देश के सभी गरीब लोगों का घर नहीं बन जाता तब तक अपने लिए कैसे घर बनवा लूं। ठीक ऐसी ही बात कभी प्रधानमंत्री बनने के बाद जब लाला बहादुर शास्त्री ने कही थी। शास्त्री जी अपने पैतृक गांव में गए तो वहां ग्रामीणों ने उनसे अपने टूटे-फूटे घर की जगह आलीशान मकान बनवा लेने का अनुरोध किया तो लाल बहादुर शास्त्री ने वही जवाब दिया जो कर्पूरी जी ने चौधरी चरण सिंह को दिया था कि पहले देश के सभी बेघर लोगों के लिए घर बन जाए तब अपने लिए कोई घर देखूंगा।
बिहार में विधायकों को जब जमीन दी जा रही थी, तब कर्पूरी जी ने हकदार होते हुए भी जमीन नहीं ली। एक बार ऊंची जाति के एक दबंग जमींदार ने उनके पिता को अपमानित किया तो पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया, लेकिन कर्परी जी ने जिलाधिकारी को यह कहते हुए आरोपियों को छोड़ देने की हिदायत दी कि क्या कीजिएगा, एक मुख्यमंत्री के बाप को बचा लीजिएगा, लेकिन देश के हजारों पिताओं के साथ जो हो रहा है उनको कौन बचाएगा। गाली देना और मारना उनकी पुश्तैनी आदत है और गाली सुनना और मार खाना हमारी आदतें हैं। ये धीर-धीरे जाएंगी। इस हालत में आज बदलाव दिखाई पड़ रहे हैं। उन्होंने अपने नेतृत्व वाली सरकार को समाजवादी मॉडल के रूप में पेश किया जो देश के लोकतांत्रिक इतिहास में अभूतपूर्व था।
कर्पूरी जी के मन में समाज के दबे-कुचले और हाशिए पर बर्बाद होती संततियों के उद्धार के न सिर्फ सपने पलते थे बल्कि उनको साकार करने के लिए हद दर्जे तक की दृढ़ता भी उनमें थी। बिहार की राजधानी पटना में 18 मार्च 1974 को छात्रों के प्रदर्शन पर तत्कालीन राज्य सरकार ने लाठियां और गोलियां बरसाई तो हस्तक्षेप के लिए छात्रों के बीच सबसे पहले पहुंचने वाले नेताओं में एकमात्र कर्पूरी ठाकुर जी थे। सप्त क्रांति के योद्धा संपूर्ण क्रांति में कूद गए थे।