पल्लवी गर्ग II
बचपन में मेला जाने का शगल रहता था। दशहरा मेला जाते तो रामलीला कम, रामलीला ग्राउंड ज्यादा देखते। रंग बिरंगे गुब्बारे, कहीं आइसक्रीम, कहीं मिट्टी के खिलौने, कहीं लकड़ी के वाद्य यंत्र, कहीं भांति-भांति के मुखौटे।
इतनी सब चीजों में सबसे अधिक, भिन्न भिन्न शक्लों और चमकते रंगों के मुखौटे भाते थे, पर मुखौटे खरीदवाए नहीं जाते थे, उनकी जगह मिट्टी के खिलौने या लकड़ी का कोई वाद्य यंत्र ही साथ में घर आते। मन बहुत दुखी हो जाता, पर न प्रश्न कर पाते किसी से और न जवाब ही ढूंढ़ पाते। पर मुखौटों का अलग आकर्षण होता।
जैसे जैसे उम्र बढ़ी, जवाब भी मिले। मुखौटे के पीछे छुपे हर चेहरे ने जवाब दिए। ये मुखौटे दिखते नहीं। बस होते हैं। मुखौटों में छुपे चेहरे हर तरफ मिल जाते हैं। जिसका मुखौटा जितना सुंदर, असल उतना कुरूप! असली चेहरा सामने आते आते, हानि बहुत हो जाती है। यह बात समझने में बहुत वक़्त भी लगा।
हम तो अपना अच्छा बुरा सब अपनी आस्तीन में लिए फिरते हैं पर दुनिया; वह तो नित-नए मुखौटों के पीछे छुपी ही मिलती है।
शायद मेले में मुखौटे मिलना बंद हो जाने चाहिए। खेल खेल में आरंभ होता है यह आकर्षण, यह कब जीवन का, चेहरे का, व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाता है, पता ही नहीं चलता। वैसे भी बचपन की बातें संग चलती हैं।
संस्कार कैसे पड़ते हैं, पता ही नहीं चलता। अब समझ में आता है कि क्यों मेले से कुछ भी खरीदने की छूट मिल जाती, मुखौटे के अलावा। बड़े बुजुर्ग अगर कुछ कहते हैं, तो यह वह खुद नहीं, उनके अनुभव बोलते हैं…
सुनना चाहिए, उनके अनुभव हमारा भविष्य की नींव हैं।