संस्मरण

दामोदर नाम था उस मां का…

अमनदीप गुजराल II


मम्मी के अचानक नहीं रहने के बाद, जीवन में सब कुछ उलट पलट हो गया। हर रोज मम्मी की मीठी आवाज से उठने की आदत ऐसी थी कि अब ऐसा लगता था सुबह हो नहीं, रात जितनी लंबी चल सकती हो चले। बाहर खिड़की पर कौआ शोर मचाता, चिड़ियों का झुंड चिल्लाता और हम चादर से मुँह, सिर ढांप पड़े रहते। हर सामान्य बात जैसे खाना, कपड़ा, बर्तन, साफ सफाई, घर की व्यवस्था जिस पर डैडी का ध्यान शायद ही कभी जाता हो…वही सब कुछ यक्ष समान बड़े हो चले थे। रसोई घर में पड़े डिब्बों में राशन है पर पका भोजन…? साफ कपड़े को इस्त्री कर अलमारी में रखना…. हमारी टिफिन की तैयारी ….? 
छोटी छोटी बीमारियां जो मम्मी रसोई घर से ही ठीक कर देती थीं, वो चुपके से आतीं और कई दिनों तक आंगन तक पसरी रहती थीं। इतने सारे प्रश्न चिह्न  उग आए थे  जिनका अचानक उत्तर खोजना नामुमकिन नहीं था पर आसान तो कतईई नहीं था और एक लंबा समय लेने वाला था यह हमें महसूस हो रहा था। डैडी का आॅफिस, हमारा स्कूल, घर के प्रतिदिन के काम, और हमारी छोटी उम्र…सामंजस्य बनाना कितना दूभर है ….शुरूआत कहां से की जाए यही पहेली इतनी कठिन थी कि जिन्दगी नए सिरे से शुरू कहाँ से करनी है, यह समझना एक अनबूझ पहेली था।

 समय पर खाना, कपड़े, होमवर्क और मासिक परीक्षा की तैयारी…यह तो वो प्रश्न थे जो हम दो बच्चों को समझ में आ रहे थे …डैडी के दृष्टिकोण से समझने, जानने की तो क्षमता थी ही नहीं क दस वर्ष की मैं और मुझसे दो साल छोटा गोल्डी……हर रोज महीनों के हिसाब से बड़ा होना था हमें।
मौसी का बीच-बीच में महीना दो महीना साथ में रहना, फिर उनके कॉलेज की पढ़ाई सिर पर आ जाना … सब अस्थायी तरीके थे जिनसे जीवन चलाने का काम किया जा रहा था। इसी बीच डैडी के उपर शादी का दबाव बनाया जाने लगा कि एक औरत के होने से बच्चे संभल जाएंगे…. हम दोनों के मन में भय था और डैडी के मन में दृढ़ निश्चय…. डूबते और उभरते, एक दूसरे पर अपनी असुरक्षा की भावना को लड़ झगड़ कर उतारते, रोते-हंसते जिंदगी की गाड़ी खींचने की कोशिश करते हम बार बार गिर रहे थे।
कुल मिला कर कई नए-नए तरीके अख्तियार किए जा रहे थे ताकि सामान्य जीवन चल सके। इसी क्रम में फिर हम सबका तिवारी भोजनालय में खाना तय हो गया और साथ ही फल के ठेले से प्रतिदिन ताजा फल आने का सिलसिला भी। यह सब मम्मी के नहीं रहने के एक वर्ष के भीतर की कुछ स्थाई व्यवस्था का अंग हो चला था। तिवारी भोजनालय में प्लास्टिक की कुर्सियों के साथ लकड़ी के टेबल रखे हुए थे, हमारे लिए खाना बचा कर रख लिया जाता था, जिस समय भी पंहुचे, खाना मिल जाता था। 
उस भोजनालय में सभी की पेय जल की व्यवस्था के लिए पानी एक बड़ी पानी की टंकी में भरा जाता था। यह पेयजल कॉलोनी के दो तीन हैंड पंप या आस पास के हैंड पंप से कांवर में भर कर लाने की व्यवस्था की जाती थी। इस कार्य को करने का जिम्मा एक व्यक्ति को दिया गया था।  कभी-कभार ही वह व्यक्ति भोजनालय में हमको दिखता था …. कभी कभी वह एक साइकिल में दो तरफ पानी के पीपे लेकर आता-जाता टकराता भी था। कुछ इसी तरह दिनचर्या में दिन बीत रहे थे, हम जीने की कोशिश कर रहे थे… लोगों की नजरों में अपने लिए बेचारगी के भाव हमें दुखी करते थे। 
समाज में हर समय अच्छे और बुरे लोग एक साथ रहे हैं …. एक तरफ तिवारी भोजनालय हमारे पेट भरने की कोशिश कर रहा था। वहीं मौसी का बीच-बीच में आकर रह जाना लोगों को खल रहा था। वही लोग जो हर हाल में हमारे साथ रहने का दावा कर रहे थे, नजरें बचाने लगे या फिर बातें बनाने ….हम हर रंग देख रहे थे, कुछ समझने की कोशिश कर रहे थे…. और अपने अपने कवच और अपने अपने कोनों को तलाशने की कोशिश कर रहे थे।

२)
ग्रीष्म काल की छुट्टियों में हम दोनों भाई-बहिन नानी के घर आ गए। नानी के घर पुन: घर के खाने का स्वाद मिलने लगा जो मां के हाथों का स्मरण कराता रहा। मामा मौसियों के बीच कब दो माह बीत गए पता नहीं चला, हमारा बचपन लौट आया था….बड़े होने की जद्दोजहद से परे हम गांव में गुलेल चला रहे थे, बंटे खेल रहे थे। पेड़ पर चढ़ कर अमरुद तोड़ रहे थे।  स्कूल शुरू होने वाले थे, हम दोनों वापस कोरबा आ गए और घर पर इस नए सदस्य को पाया। दामोदर नाम था उसका… वो हमारी अनुपस्थिति में डैडी के साथ घर पर रह रहा था और हम लोगों के घर के कार्य करने के प्रयास कर रहा था।
 पतला-दुबला, गेहुएं रंग का दामोदर कोरबा के पास के ही एक गांव का रहने वाला था। रिश्तेदारियों में किए जाने वाले छल से वाकिफ वह भी अपना गुजर बसर तिवारी भोजनालय में पानी भर और छोटे मोटे काम निपटा कर किया करता था। खाना उसे वहीं मिल जाता और जो पैसे मिलते, गांव भेज दिया करता था। 
अब वह हमारे घर में रहता, खाना बनाना उसे भी नहीं आता था पर उसका प्रयास रहता कि वह किसी तरह हमें कुछ भी खिला दे ताकि हम भूखे न रहें। वो हृदय से हम सबकी सेवा में लगा रहता। कुछ-कुछ व्यवस्थित सा समय निकलने लगा और बहुत सी चीजों की अहमियत समझ में आने लगी। उसकी कर्तव्यनिष्ठा के अनगिनत उदाहरण हैं और उसके ईमानदारी और भोलेपन के भी।
पूरी-पूरी रात डैडी के पांव दबाता रहता। एक बार का किस्सा है। वह हर रोज की तरह रात में पैर दबा रहा था, सुबह डैडी उठे …. उसे पाँव दबाते ऊंघते देखा तो कहा। तुम पूरी रात यहीं रहे? उसने भोलेपन से कहा, आपने कहां कहा कि बस रहने दो। ये किसी मूवी का दृश्य नहीं था … जिंदगी में खून के रिश्तों के अलावा कुछ रिश्ते ऐसे बन जाते हैं जो अपनी जगह हौले-हौले पर दृढ़ता के साथ बना लेते हैं। उसमें मर्द या औरत का ठप्पा ममता तय नहीं करते, ममत्व किसी भी लिंग का मोहताज नहीं होता यह उससे ज्यादा कौन समझा सकता था। लड़कियों की अपनी जरूरतें होती हैं, लड़कों  की अपनी। मां उस मिट्टी जैसी होती है जहाँ रिश्ते पनपने की जगह ढूंढ लेते हैं, उसमें आर्द्रता होती है, मुलायमियत होती है। पिता बरगद के वृक्ष की तरह जिनकी सघन छाया धूप ताप से दूर रखती है।  
मम्मी  की अनुपस्थिति में वह अनेकों बार मां बना, उसने मम्मी बन कर हर वो नसीहत हमें दी जो बढ़ती बच्ची की जरूरत थी और हर उस बात पर गोल्डी के कान खींचे जहां उसे ठहरने की जरूरत थी। हमारे बगीचे को माली मिल गया था, जिसे पाकर फूलों का कुम्हलाना कम होने लगा था। कभी मम्मी की कमी को कम करने का प्रयास करता, कभी बड़ा भाई बन कर पहरेदारी करता, अन्नपूर्णा बन कर रसोई संभालता…उसके बिना हमारे जीवन की कल्पना अब बेमानी थी। सबको एक डोर में पिरोने के उसके प्रयास सार्थक हो रहे थे…।
गर्मी में वो रात को दो बजे तो कभी तीन बजे उठ कर कूलर में पानी डालता ताकि हम लोगों को ठंडी हवा पूरी रात मिलती रहे। हमारी परीक्षा के दिनों में वो साथ में हमारे कमरे में नीचे बैठा रहता। हमें समय समय पर चाय बिस्किट देता। हम उसे  सुबह चार बजे उठाने के लिए कह कर सो जाते और वो पूरी रात जागता ताकि उसकी नींद ना लग जाए। वो हमें  उठा कर चाय बना कर  देता। हम सिर्फ परीक्षा के समय चाय पीते थे। उसे जब पता लगता कि हम कक्षा में प्रथम आए हैं तो वो बहुत खुश होता। हमारे लिए दूर एक होटल से एक कागज में मिठाई लाता।

३)
हम दोनों हॉस्टल में पढ़ने कोरबा के बाहर आ गए और वो घर पर डैडी का ख्याल रखता रहा। इस बीच उसकी शादी हो गई और दो बच्चे भी। उसके छोटे छोटे बच्चे भी गर्मी की छुट्टियों में कोरबा आ जाते। डैडी ने उन बच्चों की पढ़ाई की जिम्मेदारी उठा ली थी वो हमारे परिवार के हर सुख-दुख में, हर निर्णय में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शामिल रहा। छुट्टियों का समय अब एक और परिवार के साथ व्यतीत होता रहा और हम दोनों डैडी की चिन्ता से मुक्त अपने आसमानों को देखने लगे।
हमारी नौकरी की प्रथम पोस्टिंग के समय वो हमारे पास आ गया किन्तु इस बार उसने अपनी भूमिका बदल ली थी। इस बार वो अपनी स्वीटी का अभिभावक था। घर में कार्य करने वाली कमला बाई को वो आदेश देता ऐसा करो, वैसा बनाओ… हमारी स्वीटी को यह पसन्द नहीं है। मुन्नी का इस तरह ख्याल रखा करो….वगैरह वगैरह। कमला बाई और उसमें अक्सर नोक झोंक होती रहती और हम मन ही मन इन दृश्यों का आनंद लेते रहते…।आखिर उसने हमें दस वर्ष की उम्र से बड़ा होते जो देखा था। देखा क्या … एक तरह से पाला था। उसके हमारे साथ होने का मतलब था कि डैडी और गोल्डी सब हमको लेकर निश्चिंत रहते।
हमें पढ़ाई के लिए दो वर्ष के लिए विदेश जाना था, वह सारा सामान पैक करवा रहा था और हम भोपाल, दिल्ली और मुंबई के चक्कर काट रहे थे। उसे हर सामान पता था और जब हमें अपनी ही सुध नहीं थी वह हमें तसल्ली और हिम्मत देता रहा क इसी बीच, एक दिन शाम का खाना खिलाते हुए वो हमारे पास आकर बोला – मुन्नी, तुम्हारे पास वहां कितने दिन के बाद मुझे आना होगा? और हम अवाक से मुंह ताकने लगे… हमें तो ख्याल ही नहीं आया कि यह व्यक्ति, शायद दुनिया में हमारा ख्याल रखने को ही अपने जीवन का उद्देश्य समझता है। हमें कुछ देर तक कुछ सूझा ही नहीं … कुछ समय बाद हमने मुस्कुराते हुए उसे जवाब दिया .. शायद वहां जरूरत ना लगे, पढ़ने जा रहे हैं तो हॉस्टल में रहेंगे। यदि आवश्यकता लगेगी तो तुम तो हो… तुम्हें बुला लेंगे।
वह खुश हो गया, हां, यह ठीक रहेगा …तब तक हम गांव हो आएंगे …पर तुम घबराना नहीं … जब कहोगी तुम्हारे पास रहेंगे बिटिया…। हम मुस्कुरा कर सोचने लगे कि दुनिया दामोदर जैसे लोगों से ही  खूबसूरत है। हम पढ़े-लिखे लोगों के पास जो तराजू होते हैं उनमें मैन्युफैक्चरिंग फाल्ट होता है। 
हम हर चीज को नफे नुकसान के तराजू पर तौलते हैं, एक दामोदर था जो हर वक्त हमारी चिन्ता करता था, हमारा ध्यान रखता था, हम हमेशा उसकी जिम्मेदारियों में सबसे ऊपर रहे जिसे वह बहुत शिद्दत से बिना किसी तकलीफ के निभाता रहा।

४ )
हम विदेश चले गए और वो अपने गांव, वहां की जिम्मेदारियां निपटा कर वापस हमारे घर लौट आया। उसके बच्चे भी बड़े हो रहे थे जो हमारे परिवार की जिम्मेदारी रहे। उसके दोनों बच्चों की पढ़ाई पूरी हो गई और शादी भी। अब सब अपनी अपनी जगह व्यवस्थित अपनी जिंदगी जी रहे हैं। उसने अपने गांव की जगह हमारा साथ चुना …। 
गोल्डी ने अपनी पढ़ाई पूरी कर एक हॉस्पिटल खोल लिया है कोरबा में, दामोदर हम लोगों की सफलता को अपनी पूंजी मान खुशी से इतराता फिरता रहता। उसकी तपस्या के बारे में हमारे जिक्र को एक भोली सी मुस्कान से आया गया कर देता।
समय के साथ दामोदर बूढ़ा हो चला था और विगत कुछ दिनों से बीमार हमारे अस्पताल के आईसीयू वार्ड में भर्ती। डैडी मिलने गए तो बहुत मुश्किल से आँख खोल पाया। भाई से पूछा तो बताया कि वो बहुत कमजोर हो गया है। निमोनिया हुआ है, इलाज थोड़ा लंबा चलेगा। रोज उसका हाल-चाल पूछते रहे परन्तु सरकारी काम की जिम्मेदारियों के बीच जाना कल में टलता रहा। इस बात की तसल्ली रही कि डैडी और गोल्डी और उसका परिवार साथ है।
फिर एक सुबह तबीयत ज्यादा खराब होने की बात पता चलते ही जाने की तैयारी कर ही रहे थे कि उसके जाने की खबर आ गई। स्मृतियों का पिटारा जैसे खुल गया हो और हम इधर उधर स्मृतियों को समेटने का असफल प्रयास कर रहे हैं। हर छोटी-बड़ी स्मृति में अटक जा रहे….हम लोगों के जीवन के सबसे कठिन समय का साथी, जिसने हम तीनों को अपने इर्द-गिर्द बांध लिया था। आज वो डोर टूट गई है पर उस डोर के सिरे हमारे हाथ से अभी भी लिपटे हैं और हम इस आस से बंधे हैं कि उस डोर को टूटने नहीं देंगे।
डैडी ने गांव ले जाकर उसे कंधा दिया और उन्हीं के शब्दों में, आज दामोदर अध्याय की समाप्ति…, एक और मां हमें छोड़ कर चली गई आज…!!
यह आंसू हैं कि रुक ही नहीं रहे ….
पता नहीं कर्ज उतार गया या चढ़ा गया।

About the author

Amandeep Gujral

अमनदीप गुजराल
उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में जन्मी अमनदीप गुजराल ‘विम्मी’ की प्रारंभिक शिक्षा बालको (छत्तीसगढ़) के केंद्रीय विद्यालय में हुई। लिखने का क्रम आठवीं कक्षा से शुरू हुआ, जो प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं एवं साझा काव्य संकलनों से गुजरता हुआ संग्रह (ठहरना जरूरी है प्रेम में) के रुप में सामने आया है। वे कहानियां भी लिखती हैं। एमकॉम तक शिक्षा प्राप्त अमनदीप नवी-मुंबई में निवास करती हैं। लेखन उनके लिए उम्मीद की किरण है। श्रद्धा है, एक सतत प्रयास है।

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