डा. दीप्ति गुप्ता II
लेखक और लेखन का संयोजन कैसा होता है, बाबू जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को निकट से देख कर जाना। अमृतलाल नागर जिन्हें मैं बाबूजी कह कर संबोधित करती थी, आज भी जब याद आते हैं, तो एकाएक उनके ठहाके कानों में गूंज उठते हैं। जिंदादिल, उदार मन, हंसता चेहरा, मुस्कुराती आंखें उनकी ये खूबियां सिलसिलेवार आंखों में लहरा उठती हैं।
उनसे मेरी पहली मुलाकात मेरे शोध कार्य के दौरान १९७७ में हुई थी। आगरा विश्वविद्यालय से हिंदी में एमए के बाद मैंने अपने निदेशक से चर्चा के उपरांत नागर जी के उपन्यास साहित्य पर शोध करने का निर्णय लिया और अविलंब उनके उपन्यास खरीद कर पढ़ने शुरू किए। उनके उपन्यास इतने हृदयग्राही थे कि शुरू करने के बाद बीच में छोड़ने का मन ही नहीं होता था।
मैं जो भी उपन्यास पढ़ कर खत्म करती, फोन से उस पर, बाबूजी से जरूरी प्रश्न और संक्षिप्त बातचीत करती। जब भी फोन करती, उनके उपन्यासों के संदर्र्भ में रुचिकर बातें होतीं। लेखन के दौरान बाबू जी जिन अनमोल अनुभवों से गुजरे थे, उन्हें बताते समय वे अतीत में डूब जाते और उनके साथ-साथ मैं भी लखनऊ, बनारस की गलियों, मोहल्लों, वहां के नुक्कड़ों और हवेलियों में पहुंच जाती। इस पर भी तृप्ति नहीं होती। अनेक बार लंबी बातचीत भी होती, उसके बावजूद भी, उनके उपन्यासों के पात्रों और कथ्य से जुड़े अनेक वर्क अनछुए रह जाते।
बात साल 1977 की है। जून की खिली गर्मी, जब तब काले-काले बादलों से भरा आसमान, बीच बीच में मानसूनी हवा का शरारती झोंका, जो शोध के बजाए कविता लिखने को ललचाता, लेकिन कजरारे घुमड़ते बादल, फरफराती पुरवाई, पन्नों पर कविताएं उतारना -इतनी तरह के सुहावने लोभ मेरे आसपास मंडरा रहे थे, फिर भी, बाबू जी से मिलने का, साक्षात्कार करने का लोभ इन सब पर भारी पड़ा। इस यशस्वी और प्रतिष्ठित लेखक से अभी तक मैं फोन पर मिली थी, और कुछ खतों के माध्यम से, अब व्यक्तिगत रूप से मिलने जा रही थी, अतएव उत्साह और खुशी से मैं अत्यधिक उल्लसित थी।
लखनऊ पहुंचते ही, पहले मैंने बाबू जी को फोन किया और अपने पहुंचने की सूचना दी। जब मैंने उनसे मिलने का समय तय करने की बात कही, तो वे फिर वही पितृतुल्य भाव से भरे हुए, आदेश देते बोले, सबसे पहले, लखनऊ में तुम्हारा बहुत-बहुत स्वागत ! देखो बेटा, आज तुम पूरी तरह आराम करोगी, समझीं, सफर की थकान उतारो. कल शाम यहां आना, इत्मीनान से चर्चा करेंगे।
उनके स्नेह से आह्लादित सी, निरुत्तर हुई मैं उनका कहा मानने को विवश थी। बाबूजी से मिलने के उत्साह से छलकती, बिना आहट किए सधे कदम चलती, बाबूजी के निकट पहुंच कर, उनका ध्यान भंग करती बोली, बाबू जी प्रणाम। सुनते ही जैसे बाबू जी की तंद्रा टूटी और वे झटपट आंखों से चश्मा उतारते बोले, अरे ! आ गई बेटा, दीप्ति हो न? कहीं कोई और हो और मैं उसे दीप्ति समझ बैठूं।
नहीं कोई और नहीं, बाबू जी, आपने ठीक पहचाना, यह कहती मैं उस महान हस्ती के सान्निध्य से गदगद हुई, तुरंत उनके चरणस्पर्श के लिए झुक गई। लेकिन बाबू जी ने चरणों तक पहुंचने से पहले ही, मुझे हाथों से रोक कर, आशीष दिया और बड़े सत्कार से बैठने के लिए कहा। फिर, बाबू जी प्यार जताते बोले, यहां पहुंचने में किसी तरह की दिक्कत तो नहीं हुई? मैंने कहा, बाबू जी, बिलकुल नहीं। और घर में कदम रखने पर तो आपके बाहर वाले बुलंद दरवाजे से लेकर, दहलीज और आंगन, उनमें विराजमान सारे खिड़की-दरवाजों ने जो मेरा हंसते -मुस्कुराते स्वागत किया, उसे मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकती।
उसके बाद मैंने एक पल भी बरबाद किए बिना, बाबू जी से उनके उपन्यासों, कथ्य, विविध चरित्रों औए घटनाओं पर चर्चा करनी शुरू की। बाबू जी बोले, देखो बेटा, जरा भी हिचकना मत, जो कुछ तुम पूछना चाहती हो, निसंकोच पूछना। शोध के साथ न्याय करना है तो मेरा अच्छी तरह आपरेशन करना। तुम डाक्टर बनने जा रही हो। जितना अच्छा आपरेशन करोगी, उतनी ही अच्छी डाक्टर बनोगी…उनके इस शब्द कौशल में ध्वनित व्यंजना ने मुझे जितना हंसाया, उतना ही प्रभावित भी किया।
विस्तृत और रोचक संवाद के लिए मैंने आभार प्रकट किया और मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दिया कि बाबू जी के साथ काफी हद तक संतोषजनक चर्चा भलीभांति पूरी हो गई थी। लेकिन साथ ही मेरा मन यह भी कह रहा था कि यह चर्चा समुद्र में बूंद की मानिंद थी क्योंकि लेखक अमृतलाल नागर और उनका बहुरंगी समृद्ध साहित्य एक ऐसे विशाल उदधि के समान था, जिसमें बार बार जितने भी गोते लगाओ, उतना ही वह तथ्यपूर्ण बातें सोचने को, मनन करने को प्रेरित करता था। बातचीत के दौरान मैंने जब उनसे, उन्हें मिलने वाले पुरस्कारों के विषय में जानना चाहा तो वे निर्लिप्त भाव से बोले-
बेटा, अकादमी पुरस्कार हो या, प्रेमचंद पुरस्कार, मेरे लिए तो सबसे बड़ा पुरस्कार है-मेरे पाठकों से मिलने वाली सराहना और प्यार और मेरी रचनाओं से मिलने वाली रायल्टी। मेरी दिली तमन्ना है कि पूरी तरह सिर्फ अपने लेखन से मिलने वाली रायल्टी के बलबूते पर जीवन निर्वाह कर सकूं।
चर्चा को विराम देने से पहले, मैं उनसे एक और अंतिम सवाल करने से अपने को न रोक सकी. मैंने पूछा कि आप तो कलम के बादशाह हैं, कल्पना और रचनात्मकता के धनी हैं, तो उन्होंने फिल्मों का लेखन कार्य किस लिए छोड़ा? क्योंकि आप तो बड़े उम्दा संवाद और पटकथा लिख रहे थे वहां। मेरे इस सवाल पर, वे अतीत में डूबते हुए वे बोले, बेटा फिल्मों में लेखन का तो स्वागत है पर, स्वतंत्र लेखन का स्वागत नहीं है। कोई भी सच्चा लेखक और खास करके मुझ जैसा मुक्त स्वभाव का लेखक अपनी कलम को किसी का गुलाम नहीं बना सकता। इसलिए कुछ दिन तो वह दबाव झेला, लेकिन अंतत: फिल्म लेखन को अलविदा कहा और छोड़ आया वह माया नगरी।
फिर भी उन्होंने अपने बंबई प्रवास के दौरान जितनी भी पटकथाएं लिखी, संवाद लिखे, वे उनके सिनेलेखन की प्रवीणता के परिचायक हैं। १९५३ से लेकर ५७ तक लखनऊ के आकाशवाणी केंद्र में बतौर ड्रामा प्रोड्यूसर का पद बड़ी कुशलता से सम्हाला। मगर ये सब गतिविधियाँ रचनात्मक होते हुए भी, उन्हें वह सुख, वह सन्तोष नहीं दे सकी, जो उन्हें साहित्य सृजन में मिलता था। इसलिए बाबू जी इन क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा का परचम फहरा कर, अंतिम सांस तक पूर्णतया रचनात्मक लेखन में ही लगे रहे।
बाबू जी जैसा ज्ञान पिपासु, जिज्ञासु, जीवंत, यायावर, अनुभवों का पिटारा, बहुपठित, बहुभाषाविज्ञ, बहुआयामी व्यक्तित्व इस दुनिया में मिलना दुर्लभ है। वे जीर्ण-शीर्ण अर्थहीन पुरातनता का अनुसरण न कर, स्वस्थ व रचनात्मक नवीनता के हिमायती थे। विचारों, कार्यों और लेखन, सभी में उनके क्रांतिकारी स्वभाव की झलक मिलती है। यहां तक कि उनके व्यक्तित्व में भी इसकी छाप थी। ऊंचा कद, उन्नत मस्तक, खिलता हुआ गौर वर्ण, मुंह में पान की गिलौरी, हाथ में कलम, जब विचारमग्न हों तो समुद्र से गहरे, जब भावनाओं में डूबे हों तो खोए-खोए मौसम से और जब चुहल पर आए तो इतना अट्टहास, इतने ठहाके कि सारी कायनात हिल जाए। क्षण-क्षण में आते जाते विविध भावों से मुखर उनका चेहरा किसी किताब से कम न था।
लेकिन विनोद का भाव अन्य सब भावों को तिरोहित कर स्थायी रूप से उनके तेजस्वी मुख मंडल पर विराजमान रहता था। बाबू जी भांग के बड़े प्रेमी थे. मुझे याद है कि एक बार मैंने उन्हें फोन किया तो बा ने फोन उठाया और हंसी मिश्रित व्यंग्य से मुझे बताया – तुम्हारे बाबू जी भांग घोट रहे हैं। तब तक यह सुनकर वे खुद फोन पर आ चुके थे, पान भरे मुंह से बोले, देखो दीप्ति, मैं पक्का शिव भक्त हूं। भांग के बिना मेरी अराधना पूरी नहीं होती और यह कह कर उन्होंने फोन पर आदत के अनुसार एक जोरदार ठहाका लगाया।
मैं तीन घंटे नागर जी के सान्निध्य में रही और उन तीन घंटों में उनसे अनवरत इतनी महत्त्वपूर्ण चर्चा हुई कि जितनी शायद तीन माह साथ रहने पर ही संभव थी। मेरे विदा लेने का समय आ गया, सो उठते हुए मैंने कृतज्ञता जाहिर की और कहा, बाबू जी, मैंने आपका बहुत समय लिया। वैसे तो आपने मेरी लगभग सभी जिज्ञासाओं का शमन किया, फिर भी यदि कुछ और पूछने की जरूरत पड़ी तो फोन से अथवा खत लिख कर पूछ लूंगी।
उन दिनों बाबू जी ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’ लिखने में लगे थे. निस्संदेह लेखन कार्य किसी मंथन और तपस्या से कम नहीं होता।
यह मेरा सौभाग्य था कि मैं नागर जी जैसे महान और संवेदनशील रचनाकार से, उनके लेखन के उस दौर में मिली में मिली जब उनका लेखन अपनी पराकाष्ठा पर था। ‘मानस का हंस’ जैसी अमर कृति वे लिख चुके थे और दूसरी कालजयी रचना ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’ वे लिख रहे थे. उसके बाद उन्होंने ‘खंजन नयन’, ‘बिखरे तिनके’, ‘अग्निगर्भा’, ‘करवट’, और १९८९ में पीढियां जैसी श्रेष्ठ रचानाएं साहित्य जगत को दीं।
शोधकार्य सम्पन्न होने पर, बाबू जी के साथ, मेरी पिता-पुत्री वाली एक नवीन यात्रा शुरू हुई। इस यात्रा के दौरान उनके जीवन अनुभवों से मैंने बहुत कुछ सीखा, जीवन के स्याह और उजले पक्ष में स्वयं को साधने का गुरुमंत्र सीखा।
अतैव कहना चाहूंगी कि बाबू जी के रूप में पिता को पाकर मैने वाकई स्वयं को सौभाग्यशाली महसूस किया। उनकी अंतिम सांस तक (जनवरी 1990) उनके दुलार भरे संपर्क में रही।