संस्मरण

कच्ची सड़क से उतरतीं कुछ यादें  

अंजू खरबंदा II

मजनूं का टीला रोड से गुजरते हुए मीठी स्मृतियां बरबस ही आंखों के सामने मुस्कराने लगीं। सिग्नेचर ब्रिज से उतरते हुए मन बचपन की गलियों में खो गया। किसी समय यह कच्ची सड़क हुआ करती थी। उस समय हम बच्चों को पंद्रह मई का इंतजार बेहद बेकरारी से हुआ करता था इसके पीछे दो कारण थे-पहला स्कूल में दो महीनों की छुट्टियों की शुरुआत और दूसरा सिंधियों का मेला।
किंग्जवें कैम्प में हमारा घर ठीक डीटीसी डिपो के सामने वाली गली में था। ई ब्लॉक में कुछ सिंधी परिवार रहा करते थे। उनके बच्चों में नीलम लगभग मेरे बराबर की थी तो खूब आना-जाना था। मकान नंबर 413 मेरे बाबा जी यानी ताया जी का था। उन्होंने पीछे के कमरे में प्लास्टिक के खिलौने बनाने वाली मशीन लगाई हुई थी। छोटे-छोटे रंग-बिरंगे तीन खानों वाले टिफिन बॉक्स, फूल, बॉल। इसके अलावा और भी कितना कुछ बनता था वहां। ये हम बच्चों के लिए कौतूहल का विषय होता कि मशीन में प्लास्टिक की गोलियां डालने पर वह खिलौनों का रूप कैसे ले लेती हैं…।
जब सिंधियों का मेला लगता तो बाबाजी वहां खिलौनों की दुकान लगाया करते। एक छोटा सा टैंट होता, जमीन पर दरी बिछा कर सारे खिलौने सजा दिए जाते। मेला घूमने आने वाले लोग अपने बच्चों को जब खिलौने दिलवाते, तो बच्चों के चेहरों की रौनक देखने लायक होती। हम भाई-बहनों को पापा जी तो कभी चाचाजी घुमाने ले जाते। चाचाजी साईकिल पर पेटी रख लेते और हम दो बच्चे मजे से उस पर बैठ जाते और जिस दिन साईकिल न होती तब चाचाजी हमें अपने कंधे पर बैठा कर मेले ले जाते। करीब चार किलोमीटर का रास्ता होगा, पर गली के लोग आपस में बातें करते हुए पैदल ही आते जाते।
मेले में पहुंच कर सबसे पहले संत दरवेश गुरुद्वारे में दर्शन के लिए जाते। लाईट से जगमगाता हुआ गुरुद्वारा, लंबी कतार में लग ‘जय शहंशाह’ के जयकारे लगाते हुए हम बहुत बड़े हॉल में पहुंच दर्शन करते। वहां पहले से ही बैठे सैकड़ों भक्त बैठे सिंधी में गाई जाने वाली कव्वाली के मधुर स्वरों के साथ-साथ झूम रहे होते। भले ही उस वक्त मैं छोटी सी थी पर कव्वाली का मधुर संगीत मुझे बहुत लुभावना और सुकून भरा लगता।
दर्शन कर हम उत्साहित हो मेले में घूमने चल पड़ते। वहां खूब सारी दुकानें होती, पर मेरे लिए सबसे आकर्षण का केंद्र होता भिश्ती। वह अपनी पीठ पर पानी से भरे चमड़े के बड़े से थैले से जब कच्ची सड़क पर पानी का छिड़काव करता तो मिट्टी की सोंधी-सोंधी खुशबू वातावरण में फैल जाती। मैं भिश्ती को तब तक अपलक देखती रहती जब तक कि वह पानी का छिड़काव करते हुए आंखों से ओझल न हो जाता।
मेले में घूम-घूम कर जब हम थक जाते तो बाबा जी की दुकान के पीछे बिछी दरी पर लेट जाते। कुछ देर बाद चाचाजी आवाज लगाते-चलो चलो लंगर का समय हो गया। और हम भाग कर लंगर की लाइन में जा लगते। थोड़ी देर बाद नंबर आता तो बहुत बड़े हॉल में आराम से बैठा कर लंगर खिलाया जाता। हॉल में फैली सुस्वादु खुशबू और बाल्टियों में दाल-चावल और अचार-पापड़ लकरे घूमते सेवादार जब सूखे पत्तों वाले पत्तल पर चावल रख उस पर गर्मा-गर्म दाल उड़ेलते तो उसकी महक से भूख और भी बढ़ जाती। उस दाल-चावल और पापड़ का स्वाद आज भी मानो जुबान पर है।
आज जब चलती कार से दरवेश बाबा के मंदिर को देख सिर झुका कर प्रणाम किया तो तेजी से दौड़ती उस पक्की सड़क को देख कर वो कच्ची सड़क बहुत याद आई।

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ashrutpurva

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