लघुकथा

बुलंद इरादे और बैसाखी

अंजू निगम II

वह खासी पुरानी इमारत थी जिसके तीसरे माले में वह रहती थी। ऊपर तक चढ़ते मुझे हफनी आ गई।
‘रेनू के हाथ में जादू है। एक बार उसके सिले कपड़े पहन लोगी तो दूसरे किसी दर्जी की तरफ मुड़ोगी भी नहीं।’ शिखा ने बड़े विश्वास के साथ जब कहा, तो मैंने भी सोचा,जरा उसके कहे को परख लूं पर जगह देख सारा जोश ठंडा पड़ने लगा।
‘शिखा ने भी कहां फंसा दिया, चढ़ते चढ़ते दम फूलने लगा।’ सोचते हुए उसने शिखा को सौ लानतें भेजीं। रेनू अपनी मां के साथ रहती थी। दरवाजा उसकी मां ने ही खोला। चेहरा शिष्ट, सौम्य।
मैंने आने की वजह बताई। ‘आईए बैठिए, शिखा ने बता दिया था। रेनू बस आती होगी। आज देर हो गई।’ यह कह पानी लेने अंदर चली गई।
घर एकदम साफ, स्वच्छ। सारा सामान करीने से समेटा गया। मैं कमरे का मुआयना करती रही।
ट्रे में पानी का गिलास रखे जब वे आर्इं तो बात करने के इरादे से मैं बोल उठी, ‘आपकी बेटी के हाथों का जादू हमे यहां खींच लाया। वैसे सूट की सिलाई कितनी हैं?’ पता होते भी मैंने पूछ लिया।
‘सिपंल सूट के ढाई सौ और कुछ डिजाइनर बनवाना हो तो पांच सौ से छह सौ के बीच।’ एकदम प्रोफेशनल की तरह उन्होंने सिलाई बताई।
‘हमारी बुटीक वाली कुमकुम तो हमारे पैसों का मोह ही नहीं करती। जो मुंह से कह दे वही देना पड़ता है। जीएसटी का तमगा दिखा पक्की रसीद भी नहीं देती। फिटिंग इतनी बढ़िया देती है कि छोड़ा नहीं जा रहा।’ मेरे मन ने खाका खींचा।
तभी रेनू की मम्मी सिलाई की बानगी दिखाने के लिए तीन चार सूट उठा लाई। देख कर, मेरी आंखों की चमक बढ़ गई। इतना बारीक और साफ काम। डिजाइनर सूट तो लाजवाब लग रहे थे। ‘इनके तो कुमकुम पंद्रह सौ से कम न लेती और दस अहसान से हमे अलग लपेटती।’ मैंने मन ही मन हिसाब लगाया।
इसी दौरान सीढ़ियों से किसी के ऊपर आने की आवाज आई। ‘लगता है रेनू आ गई।’ बोल रेनू की मम्मी सीढ़ियों की तरफ बढ़ गई। रेनू ही थी। दोनों हाथों में बैसाखी लिए।
जिन सीढ़ियों को चढ़ते समय मुझे हफनी आ गई, उसे रेनू कम से कम एक बार तो जरूर चढ़ती-उतरती होगी। मेरा मन खुद पर शर्मिंदा हो उठा। उसने शायद मेरे मन के भाव पढ़ लिए थे।
‘आपका नाम सुन कर यहां आई थी। आप जितने पैसे लेंगी, मैं देने को तैयार हूं।’ मुझे लगा नहीं कि ये दया का सागर लहरा मैं उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचा रही हूं।
बहुत हल्के पर दृढ़ आवाज में वह बोली, ‘मुझ पर दया मत दिखाइए। मेरे लिए स्वाभिमान ऊंचा है, पैसा नहीं और फिर बैसाखी की जरूरत मेरे पैरों को हैं, दिमाग को नहीं।’

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