अंजू खरबंदा II
होशियारपुर से शादी का बुलावा आया था। ट्रेन से जाना तय हुआ। सर्दी हल्की-हल्की दस्तक देने लगी थी। इसलिए सोचा, चलो इस बार एसी की बजाय जनरल कोच से सफर का आनंद लिया जाए।
पहले बीवी-बच्चे जनरल से जाने पर कुछ नाराज हुए, पर फिर थोड़ी ना-नुकुर के बाद मान गए। दिल्ली से लगभाग आठ घंटे का सफर। सीट बुक थी तो ज्यादा परेशानी नहीं हुई। बच्चों ने झट खिड़की वाली सीट झपट ली। सारा सामान सेट कर मैं और पत्नी बातों में मशगूल हो गए ।
‘दीदी! जम्मू की शॉल ले लो! बहुत बढ़िया है!’
रंग बिरंगी शॉलों का भारी गट्ठर उठाए एक संवाली-सलोनी कजरारी आंखों वाली युवती पत्नी से इसरार करने लगी।
‘कितने की है?’
‘अढाई सौ की!’
‘इत्ती महंगी!’
‘ज्यादा पीस लोगी तो कम कर दूंगी!’
‘मैंने दुकान खोलनी है क्या?’
‘ले लो न बहनों-भाभियों के लिए!’
मैंने पत्नी को इशारा किया तो उसने आंखें तरेर कर मुझे चुप रहने का संकेत दिया।
‘अच्छा पांच पीस लूं तो कितने के दोगी?’
‘दो सौ रुपए पर पीस ले लेना दीदी!’
‘न! सौ रुपए पर पीस!’
‘दीदी, सौ तो बहुत कम है!’
कहते हुए उसका गला रुंध गया और उसकी कजरारी आंखें भर आई।
‘चल न तेरी न मेरी डेढ़ सौ पर पीस!’
‘अच्छा दीदी… ठीक है! लो रंग पसंद कर लो।’
कुछ सोचते हुए उसने कहा और गट्ठर पत्नी के सामने सरका दिया।
पत्नी ने पांच शॉलें अलग कर लीं और मेरी ओर देख रुपए देने का इशारा किया।
मैंने झट 750 रुपए निकाल कर दे दिए।
उसके जाने के बाद रास्ते भर पत्नी की सुई इसी बात पर अटकी रही
‘वो एक बार में ही डेढ़ सौ में मान गई, गलती की थोड़ा तोल मोल और करना चाहिए था!’
और मेरी सुई…अतीत में जा अटकी थी।
बेटी को गोद में बिठा रेलगाड़ी की खिड़की से झांकता मैं सोच रहा था-
मेरे पिता भी रेलगाड़ी में सामान बेच जब थके-हारे घर आते तो उनकी आंखों में भी वही नमी होती थी जो आज उस लड़की की आंखों में थी।