पूर्णिमा सहारन II
मिसेज गुप्ता ने अखबार के बड़े-बड़े विज्ञापनों पर नजर डाली और तह करके मेज पर रख दिया और उठ कर बाहर लॉन में आ गई जहां रंगीन बल्बों की लड़ियां लगाई जा रही थीं। तभी बराबर वाली कोठी से मिसेज बंसल की आवाज सुनाई दी। वे भी शायद अपने लॉन में ही थीं। मिसेज गुप्ता ने कुछ विचार किया और गेट खोल कर उनके गेट पर पहुंच गई।
लता!… उन्होंने मिसेज बंसल को गेट से ही आवाज लगाई।
अरे! मिसेज गुप्ता! अंदर आइए ना! उन्हें गेट पर खड़े देख कर मिसेज बंसल गेट की ओर लपकीं।
अंदर आने का अभी समय नहीं। एक जरूरी बात है, सुनो! मिसेज गुप्ता वहीं, गेट से ही बोलीं। तब तक मिसेज बंसल गेट पर पहुंच गई और गेट का एक हिस्सा खोल कर उनके समीप खड़ी हो गर्इं।
जी कहिए।
तुमने पेपर में देखा? मैसेज भी आ रहे फोन पर…।
क्या? कैसे मैसेज? मिसेज बंसल ने जिज्ञासा से पूछा।
तनिष्क और कई जगह डायमंड पर डिस्काउंट चल रहा है। आज धनतेरस है। तो…मैं सोच रही थी कुछ ले आएं। ज्यादा कुछ नहीं तो कानों के टॉप्स या अंगूठी ही ले लूंगी।
ओह हां! मैसेज तो मेरे फोन पर भी आ रहे हैं। अगले महीने जूही का जन्मदिन है। मैं भी उसके लिए कुछ देख लूंगी। कहिए, कब चलना है?
दीये ले लो बहन जी…। तभी गली में ठेले पर दीपक बेचते कुम्हार ने उनकी बातों में खलल डाल दिया।
किस भाव दे रहे हो? मिसेज गुप्ता ने पूछा।
एक रुपए का एक।
इतना महंगा? बाजार में तो बीस रुपए के तीस मिल रहे हैं! मिसेज गुप्ता ने दो साल पहला रेट बोला। जबकि बीस रुपए के पच्चीस तो पिछले साल ही खरीदे थे।
नहीं बहन जी! इतना कहीं नहीं मिल रहा। आप कहिए… कितने चाहिए? दो-चार फालतू दे दूंगा। वह बड़ी कोठी देख कर मन ही मन आस लगा बैठा था कि कम से कम पचास-पचास दीपक तो ले ही लेंगी।
ना! रहने दो।
ले लो बहन जी। बीस के पच्चीस दे दूंगा। पिछले साल इसी भाव में बेचे थे। कुम्हार की आवाज में थोड़ी विनती घुल गई थी। परंतु उन्होंने कुम्हार के चेहरे पर एक नजर तक न डाली जिसके चेहरे पर आई आस की चमक क्षण भर में ही धूमिल पड़ गई थी।
अरे… नहीं चाहिए, आगे बढ़ो। कुम्हार को टका सा जवाब देकर वे मिसेज बंसल से फिर मुखातिब हुई…
लंच के बाद चलते हैं। दोपहर में ही काम हो जाएगा। फिर शाम को पूजा भी तो करनी है!
प्रोग्राम सेट करके दोनों अपनी-अपनी कोठियों में प्रविष्ट हो गई।