रत्ना पांडे II
घनश्याम अपनी पत्नी शामली के साथ रहते थे। मध्यम वर्ग के घनश्याम के माता-पिता का दुर्घटना होने की वजह से देहांत हो गया था। उनकी पत्नी ने दो वर्ष पूर्व एक बेटे को जन्म दिया था, अब फिर से वह गर्भवती हो गई थी। घनश्याम अपनी पत्नी और बेटे मुकुल का बहुत ज्यादा ख़्याल रखते थे। नौ माह पूरे होते ही शामली ने फिर से बेटे को जन्म दिया। प्रसव के दौरान उसकी तबियत बिगड़ गई, डॉक्टर ने बहुत कोशिश की किंतु वह शामली को ना बचा पाए।
अब दोनों बच्चे घनश्याम को ही संभालने थे, नवजात शिशु को बड़ा करना उनके लिए बहुत मुश्किल हो रहा था लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। ना जाने कितनी तकलीफ़ें उठाकर वह अपने मुकुल और नकुल को बड़ा कर रहे थे। इसके साथ ही अपनी नौकरी भी उन्हें बचानी थी। सभी विषम परिस्थितियों के उपरांत भी धीरे-धीरे बच्चे बड़े होने लगे, स्कूल फिर कॉलेज और फिर नौकरी।
दोनों बेटों की पढ़ाई के लिए घनश्याम ने काफी कर्ज़ लिया हुआ था। सेवा निवृत्ति के बाद भविष्य निधि का पैसा मिलते ही उन्होंने अपना कर्ज़ उतारा और दोनों बेटों की एक ही साथ शादी भी कर दी, ताकि शादी का खर्चा दो बार ना करना पड़े। शुरु से ही घनश्याम की एक ही तमन्ना थी कि अपने बेटों को पढ़ा लिखा कर उनके पैरों पर खड़ा कर दें और उनका परिवार बसा दें, स्वयं के लिए उन्होंने कभी कोई ख़्वाहिश रखी ही नहीं। अपनी सभी जवाबदारी पूरी करके अब घनश्याम बहुत ख़ुश थे सोचते थे, अब सुकून के साथ रहूँगा। बेटे बहू और आगे चलकर नाती पोते, शायद अब मेरा संघर्ष ख़त्म हो गया।
नौकरी लगते से ही दोनों बेटों को दूसरे शहर जाना था, दोनों बेटों ने अपनी पत्नियों के साथ जाने की तैयारी कर ली। घनश्याम ने भी अपना बैग तैयार कर रखा था। जाने का वक़्त निकट आ रहा था लेकिन अब तक दोनों बेटों में से किसी ने भी उन्हें साथ चलने के लिए नहीं कहा था। घनश्याम की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। आख़िर कार घर के बाहर दो टैक्सी आकर रुक गईं ।
दोनों बेटे अपनी पत्नियों और सामान के साथ बाहर निकल गए लेकिन पिता को साथ ले जाने का ख़्याल तक उनके मन में नहीं आया। घर से बाहर निकलते समय छोटी बहू ने अपने ससुर की तरफ देखा तो उसे उनमें अपने पिता की छवि नज़र आई। उसके कदम वहीं रुक गए और उसके दिल में एकदम से यह ख़्याल आया कि भैया भाभी पिताजी को अपने साथ कितने प्यार से रखते हैं। इसीलिए आज मुझे अपने पापा की चिंता नहीं है वरना शायद उन्हें अपने साथ यहां लेकर आती तो फ़िर इस घर के मालिक, इनके पिता को यहां अकेला छोड़ कर कैसे जा सकती हूँ। मुझे मेरे माता-पिता ने ऐसे संस्कार तो नहीं दिए थे।
यहाँ पापा भी कितने अच्छे हैं सोचते हुए वह अपने कदमों को घर के अंदर ले गई और पिता घनश्याम का सूटकेस उठाते हुए बोली, “चलिए ना पापा आप क्या सोच रहे हैं ? मुझे लगा आप सूटकेस लेकर आ रहे हैं।”
छोटी बहू के मुँह से यह सुनकर घनश्याम को ज़िंदगी की वह ख़ुशी मिली जो उनके संपूर्ण जीवन के त्याग, संघर्ष और प्यार की अमानत थी। घनश्याम को छोटी बहू ने हाथ पकड़ कर टैक्सी में बिठाया खुद भी उनके साथ बैठ गई। नकुल ने अपनी पत्नी का यह रूप देखा तो उसकी आँखें स्वयं ही शर्म से झुक गईं साथ ही उसकी आँखों में अश्क भी छलक आए। आज उसे अपनी पत्नी पर गर्व महसूस हो रहा था।
यदि आज छोटी बहू समझदारी और इंसानियत का यह कदम नहीं उठाती तो घनश्याम की जीवन भर की मेहनत और तपस्या का उन्हें क्या सिला मिलता सोचकर रूह कांप जाती है।