कविता काव्य कौमुदी

इंद्रिय बोध

सदानंद शाही II

शब्द
तुम्हारा नाम था वह
जो गूंजता रहा
मेरे भीतर
मैं आकाश हुआ।

स्पर्श
वह हवा की छुवन थी
समीरन सी
त्वचा से होती हुई
आत्मा तक पहुंची
बह चली पवन उनचास
आत्मा समुद्र में
लहरें ही लहरें हैं…..

रूप
रूप की आंच में सिंकता रहा
जैसे आग में सिंकती है रोटी
आग जलती रही
मेरे भीतर
मेरे बाहर
मैं सिंकता रहा
उम्र भर।

रस
पृथ्वी को
तुम अखंड फल की तरह मिले
पृथ्वी के मुंह में उतर आया पानी
अपार जलराशि
लहरायी
मैं निर्विकल्प
डूबता चला गया…..

गंध
वह धरती की गंध थी
मेरे नथुनों से होते हुए
मेरी आत्मा में घुस आई थी
मेरे अस्तित्व में घुलमिल सी गई थी
चाहूँ भी तो अलग नही हो सकता
धरती की गंध से..

About the author

सदानंद शाही

कुलपति
शंकराचार्य प्रोफ़ेशनल यूनिवर्सिटी, भिलाई
छत्तीसगढ़ ।

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