काव्य कौमुदी ग़ज़ल/हज़ल

चांद बादलों के मधुमास में देखा

वंदना मौलश्री II

कल रात एक हसीं ख्वाब देखा
बहकते जज्बात को मदहोश देखा।

अनमनी सी रात कुछ नशे में थी
चांदनी को बादलों के आगोश में देखा।

बेनकाब रहने वाले चांद को
शरमाए से नकाब में देखा।

बहकती शबनमी सी रात थी
चांद बादलों के मधुमास में देखा।

दिल की गहराई में कशमकश थी
सांसों से सांसों का मिलन देखा।

तन्हा थी उनींदी लंबी रातें
उन्हें खुशियों के आगोश में देखा।

न जाने कौन था अजनबी
खुद को जिनके ख्यालों में देखा।

न होता था किसी सरगम का असर
जज्बातों को किसी के आगोश में देखा

न जाने क्यों तड़पती हैं बिजलियां
पहाड़ों से उनको लड़ते देखा।

कहर बरपाए दिनकर कितना
धरती को सावन के आगोश में देखा।

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