संस्मरण

नीरज को फिल्म निर्माता क्यों कहने लगे थे मनहूस

दीप्ति गुप्ता II

मेरी न जाने कब-कब  की (1983- 1999) लिखी  हुई कविताओं  के संग्रह का  ड्राफ्ट तैयार  करते-करते  2004 से  जनवरी  2005  आ गया, मतलब कि 2005  में वह फाइनल  हुआ। फिर सोचा  किसी वरिष्ठ कवि के आशीष वचन लेने चाहिए। अचानक  मन में  आया,  क्यों  न नीरज  जी से निवेदन किया जाए। अगर, इस  काव्य संग्रह के  लिए वे आशीर्वचन लिखेंगे, तो मेरे लिए कितना प्रेरणास्पद होगा। मैंने पूना के पिम्परी में कवि सम्मेलनों के आयोजक  राकेश  श्रीवास्तव जी से नीरज जी का  फोन नंबर लिया। किसी से मुझे पता चला  था  कि  2004 में श्रीवास्तव  साहब द्वारा  आयोजित  कवि सम्मेलन में  नीरज जी, तबीयत खराब होने की वजह से नहीं आ पाए थे और भोपाल तक आकर लौट गए थे। आयोजक को जनता की बहुत सुननी पड़ी थी। सबकी राशि लौटानी पड़ी, साथ ही, पूना के स्थानीय  हिन्दी और  मराठी के  समाचार पत्रों में  भी  इस घटना  की  काफी आलोचना  हुई।
अतैव, मुझे लगा कि नीरज जी तक पहुंचने के लिए, उनके परिचित  श्रीवास्तव  साहब  सबसे  सही स्रोत हैं। सो मैंने उनसे पता  व फोन नंबर लिया और बड़े सोच-विचार के बाद, अपनी पसंदीदा दस कविताओं की फोटो कॉपी, अपने एक पत्र के साथ नीरज  जी को  डाक से फरवरी  2005 में भेज दी। मुझे न जाने क्यों लगा कि  अगर गीत-ऋषि नीरज जी,  गेय  कविताएं लिखने वाले इतने  सिद्धहस्त गीतकार, उन्हें  मेरी छन्द मुक्त  कविताएं  पसंद नहीं आईं  और  कूडे  में  फेंक दी,  तो  क्या  होगा? इसलिए  मैंने  सोचा कि  अपनी कविताएं  गीतकार बालकवि वैरागी जी को भी भेज  देनी चाहिए, जिससे दोनों में से किसी एक  के आशीष  की चार-पांच  पंक्तियां  तो आ ही जाएगी  और फिर, अविलम्ब  किताब प्रकाशित  करा  ली जाएगी! यद्यपि  बालकवि  वैरागी  भी गेय कविताएँ ही लिखते थे, लेकिन उनको भेजने की हिम्मत इसलिए जुटा पाई कि वे अक्सर पूना आते रहते थे और उनके सामने  मैंने महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा के  कार्यक्रमों में  कई  बार अपनी छंद-मुक्त कविताओं का पाठ  किया  था, जिनमें से एक बार रिश्ते और सूर्य समाया नयनों में आज, कविताएं, उनको इतनी पसंद आई थी कि जब उस कार्यक्रम  के अन्त में उन्होंने सबको सम्बोधित  किया, तो  उन्होंने मेरी  दोनों  कविताओं  को सराहते हुए उनका उल्लेख किया, जो मेरे लिए अप्रत्याशित खुशी की बात थी। एक अन्य कवि के मुक्तक भी उन्हें बहुत पसंद आए थे। इसलिए  उस छोटी सी पहचान से साहस जुटा कर, उन्हें  भी  मैंने  उन्हीं  दस कविताओं  की फोटोकॉपी  भेजने की हिमाकत  की।
मुझे पहली बार, बालकवि जी की बहुत बड़ी विशेषता  पता चली कि कि  वे खत प्राप्ति की सूचना तुरंत  देते  थे, जिसका प्रमाण था, उनके सुघड़ लेख में लिखा हुआ कुछ पंक्तियों का एक पोस्टकार्ड। उनसे  कविताओं की प्राप्ति की सूचना  का  पोस्टकार्ड  मिलते ही मुझे बहुत अच्छा लगा और तसल्ली  हुई। उसके एक सप्ताह बाद, वैरागी जी ने  मेरी  कविताओं को पढ़ कर, सिलसिलेवार  बड़े ही कायदे, से अपने विचार, शुभकामनाओं  के साथ, बहुत ही  दिल से लिख भेजे।
मार्च शुरू हो गया था और और नीरज जी के आशीष और शुभकामनाओं की प्रतीक्षा करते-करते आधा मार्च बीत गया था। इतना समय बीत जाने पर •ाी नीरज जी का कोई जवाब फरवरी तो फरवरी, मार्च  के मध्य तक भी नहीं नहीं आया, तो मुझे अपनी कविताएं अपने काल्पनिक भय  के अनुसार  कूड़ेदान में  फिंकी  नजर आई।  मुझे निराशा घेरने लगी। खैर, मैंने  निर्णय लिया कि वैरागी जी ने इतने विस्तार से मेरी कविताओं के लिए आशीर्वाद लिख कर भेजा  हैं, सो अब किताब छपने दे देनी चाहिए।  दो दिन बाद, मैं पाण्डुलिपि लेकर, घर से निकल ही रही  थी कि  मोबाइल बज  उठा।  एक अनजान मोबाइल नंबर देख कर, मैंने बेमन से फोन  उठाया।  मेरे पास  नीरज का  घर वाला नंबर था, इसलिए  नीरज का मोबाइल मैं पहचानी ही  नहीं। उधर  से आवाज आई__
मैं नीरज बोल रहा हूँ , क्या दीप्ति से बात हो सकती  है? यह सुनते ही एक क्षण के लिए  मैं सन्न सी  रह गई।  मुंह से बोल ही नहीं  निकले।  इतने  में, फिर  नीरज  जी की गुरु गंभीर आवाज उभरी
अरे भाई, क्या  मैं दीप्ति से बात कर सकता हूँ।
तब  मैंने  तुरंत अपनी आश्चर्य  मिश्रित खुशी को सम्हालते हुए कहा- जी दादा,  प्रणाम!  मैं बोल रही  हूँ। वे फिर उधर से वे बोले-दीप्ति, तुम्हारी कविताएं मिल गई हैं। मैं दो सम्मेलनों में अलीगढ़ से बाहर गया हुआ था। कल ही लौटा हूँ, तो डाक देखते समय, तुम्हारी कविताएं  हाथ लगी। फरवरी की भेजी हुई कविताओं पर आशीष-वचन लिखने में  देर हो गई। अब यह बताओ कि तुम्हारी पुस्तक छपने गई या अभी रोक रखी है?
मैंने आधा झूठ और आधा सच कहा, क्योंकि उस समय मैं पाण्डुलिपि लेकर प्रकाशक से मिलने जा रही थी और नीरज दादा से आशीष-वचनों की उम्मीद मैं छोड़ चुकी थी, फिर भी मैंने कहा__- दादा  अभी रुकी हुई है। आपके  आशीष  वचनों  की  प्रतीक्षा कर रही थी…।
बस, फिर क्या था,  दादा ने आश्वासन दिया  कि  एक सप्ताह का समय और दो।  तुम्हारी कविताएं  बहुत  पसंद आई। भले ही तुम छन्द-मुक्त लिखती हो, पर कविता का असली प्राण, उसकी संवेदना और भावनात्मक लय होती है, जो तुम्हारी कविताओं  में बखूबी बरकरार है और दिल को पकड़ती है।
उस पल, मेरे लिए उनके मुख से सकारात्मक बात सुनना, किसी आशीर्वाद से कम नहीं था। लगे हाथ, मैंने उनसे यह भी पूछ लिया कि क्या वे मेरी अंग्रेजी कविताओं के संग्रह का भी  विमोचन  हिंदी काव्य-संग्रह के साथ कर देंगे? उन्होंने खुशी से हामी भर दी कि कविता तो कविता है -किसी भी भाषा में हो, क्या फर्क पड़ता है। कवि का हृदय हर भाषा की कविता का सम्मान करता है और मैं उन्हें आभार देती नहीं थकी।
ठीक दस दिन बाद मेरे पास  उनका ‘पांच पेज’ का आशीर्वाद आ गया, जो बाद में, टाइपिस्ट की लापरवाही की वजह से, टाइप होने बाद, फाइल में से उसके बच्चे ने खेल-खेल में खत के पन्ने निकाल कर, कागज की नाव बनाने के चक्कर में मोड़-तोड़ कर फाड़ डाले।  बाद में जब पता चला तो, मुझे लगा कि मेरा तो कीमती खजाना लुट गया। गुस्सा तो मुझे बहुत आया, पर क्या करती। बच्चे की कोई गलती नहीं थी, सारी गलती उस टाइपिस्ट की थी, जो फाइल खुली छोड़ कर दूसरे कमरे में थोड़ी देर के लिए आराम करने चला गया था।

दो दिग्गज कवियों  के इतने खूबसूरत और विस्तार से लिखे आशीष-वचनों को पाकर मैं धर्म-संकट पड़ गई कि दो आशीर्वचन छपवाने चाहिए कि नहीं? किसे छपवाऊं और किसे छोडूं? कहां तो आशीर्वचनों के लाले पड़ते नजर आ रहे थे और अब जब मिले तो, छप्पर फाड़ कर  मिले। सोचा, सोचा, और खूब सोचा। अन्तत: दोनों को ही ससम्मान पुस्तक में संजोने का निर्णय लिया। दोनों ने इतने स्नेह और दिल से लिख कर भेजा था, तो मैं किसी के भी लिखे को न छपवाने का अपराध नहीं कर सकती थी। दोनों ही मेरे लिए सम्माननीय और स्तुत्य कवि थे।
खैर, इस तरह खुशी और उत्साह में भरे हुए, दिन बीतते गए। पुस्तक भी मई के अन्त तक छप कर आ गई। तब तक मैंने उसके लोकार्पण पर कोई सोच-विचार इसलिए नही किया था क्योंकि मैं किताब पर परिचर्चा कराना, उससे बेहतर समझती थी।
तभी एक बहुत आत्मीय परिचित परिवार का फोन आया। पढ़ने की शौकीन भाभी जी को मेरी हर गतिविधि की खबर रहती थी और उनको नीरज दादा और बालकवि जी के खतों के बारे में भी पता था। इतना ही नहीं, उनसे उनके कवि-पति को भी सारी कहानी मालूम थी। सो उन दोनों ने सुझाया, बल्कि सुझाया नहीं, जिद सी करते हुए कहा_-जब नीरज जी और बालकवि जी ने आपकी पुस्तक के लिए इतना सुन्दर लिख कर भेजा है, तो दोनों में जो वरिष्ठ  हैं, यानी नीरज जी से आप विमोचन क्यों नहीं करा लेती? परिचर्चा को छोडिए और विमोचन कराइए।
मैंने कहा-अरे आप लोग क्या बात कर रहे हैं। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर के प्रतिष्ठित कवि, नीरज जी जैसी महान कवि, भला क्यों आएंगे  और वो भी ऐसे  छोटे से काम के लिए। कोई बड़ा कवि-सम्मेलन होता, जिससे उन्हें काव्यं यशसे अर्थकृते…की उपलब्धि भी होती तो, वे निश्चित ही आते।
मेरी विशिष्ट सलाहकार भाभी जी बोली – अच्छा आप फोन तो करके देखें, हद से हद  हां या  ना ही तो करेंगे। मुझे उन  दोनों की यह बात समझ आ गई और लगा कि पूछने में क्या हर्ज है, लेकिन मेरे मन में दोनों भाव रहे कि आ जाएं, तो उनके दर्शन हो जाएंगे और उनके सुरीले कंठ से कविताएं सुनने का सुअवसर मिलेगा सो अलग- साथ ही यह विचार भी मन में कौंधता रहा कि न भी आए तो, मैं  ढेर इंतजाम और  तैयारी  की भागदौड़ से बच जाऊंगी और परिचर्चा कराऊंगी।
इस डावांडोल मन:स्थिति में मैंने नीरज जी का फोन घुमाया – उधर से  उनके पुत्रवत सेवक ‘सिंग सिंग’ (अजीब सा नाम)  ने फोन उठाया और मेरे द्वारा नीरज दादा के बारे में  पूछने पर , वह नीरज जी  से बोला- पूना से दीप्ति  दीदी का फोन  है।
मुझे उसका किसी अपरचित के लिए दीदी संबोधन बहुत भाया। आखिर इतने कद्दावर कवि का सेवक था, तो पूरा सधा हुआ क्यों न होता। फोन में नीरज जी की आवाज स्पष्ट  आई कि ला इधर फोन दे, वहां लिए क्यों  खड़ा है…और उसने  नीरज जी को फोन थमा दिया।
मैंने  हिचकते हुए पूछा- दादा! एक बात पूछनी  है। क्या आप  मेरे काव्य संग्रह  के लोकार्पण  के  लिए पूना आने  का समय निकाल सकेंगे? सुनते ही नीरज  दादा  ने सोचने  का भी  समय  नहीं लिया और  खुशी जाहिर करते हुए बोले- क्यों नहीं,  क्यों नहीं….! मैं तो सोच रहा था कि इस लड़की ने लोकार्पण वगैरह की कोई बात क्यों नहीं की?
पहले की तरह एक बार फिर दादा ने मुझे अचरज में डाल दिया! मैं जिस तरह उनके पहली बार आए फोन पर निशब्द हो गई थी, तो, इस बार, लोकार्पण पर आने की स्वीकृति पाकर निशब्द हो गई। विश्वास नहीं हुआ कि उन्होंने एक बार भी अपनी व्यस्तता अथवा अपनी तबीयत की बाबत मना करने की कोशिश की। जैसा कि मैंने अक्सर सुना था और अखबारों में पढ़ा था कि उनकी व्यस्तता इतनी चरम पर होती थी कि आज भोपाल, तो कल दिल्ली में, तो कुछ दिन बाद अमेरिका में।
इसलिए मैंने सुनिश्चित किया।  सच दादा, पक्का आएंंगे? वे सहजता से बोले-ऐसे ही नहीं कहा रहा दीप्ति-पक्का आऊंगा और अगले ही महीने की तारीख रखना पर, मुझ से पूछ कर। इस बार मुझे  विश्वास हो गया कि वे तो आने के लिए  पक्की तरह से  तैयार हैं। मैं सोचने लगी कि ये क्या हुआ और कैसे हुआ…मिनटों में  प्रोग्राम तय भी हो गया।
इसके बाद  खुशी तो उड़न छू  हो गई और  उनके  ठहरने आदि की, विमोचन के लिए बढ़िया हॉल, अतिथियों के बैठने की उचित व्यवस्था आदि की तैयारी की चिन्ता और तनाव ने मुझे घेर लिया। पूना के साहित्यिक समूह से मैंने राय-मशवरा किया, तो उनकी खुशी का तो ठिकाना ही नहीं था।
बहरहाल, एक सप्ताह के अंदर, नीरज जी के ठहराने की सारी व्यवस्था एक साहित्यकार साथी की मदद से कोरेगांव पार्क में हो गई। उनका अपने  लिए नया खरीदा हुआ और पूरी तरह से  सजा-संवरा, खूब बड़ा अपार्टमेंट नीरज  दादा की आवभगत के लिए और अधिक तैयार कर दिया गया। वे कवि-साथी इसलिए भी खुश थे कि उस नए घर में, उनसे पहले ख्यात कवि गोपालदास नीरज जी  के चरण-कमल पड़ेंगे। उनकी किस्मत अच्छी थी, नीरज जी की उनसे भी अच्छी कि उनके लिए एक ऐसे शान्त, सुरम्य और खूबसूरत घर जैसे माहौल वाली जगह  में (होटल रूम में नहीं) ठहरने की व्यवस्था हो गई थी और मेरी किस्मत भी अच्छी थी कि मुझे बिना किसी परेशानी के इतनी बढ़िया मदद मिल गई थी।
लोकार्पण के लिए मैंने पूना के इंजीनियरिंग कालेज का प्रसिद्ध फिरोदिया हॉल चुना। इसी बीच, नीरज  जी ने  18 जुलाई  (2005) की तारीख, पूना आने के लिए निश्चित की और मैंने इस तिथि के लिए फिरोदिया हॉल बुक करा लिया। जुलाई के पहले सप्ताह में सभी साहित्यकारों को निमंत्रण-पत्रिका भी भेज दी गई थी। लोकार्पण का बैनर बन कर तैयार हो रहा था।
अठारह जुलाई खरामा-खरामा नजदीक आ रही थी। निश्चित तारीख से, दो दिन पहले, नीरज दादा अलीगढ से, मुंबई अपने पौत्र पल्लव के पास पहुंचे। दादा का अपने प्यारे पौत्र के लिए ख्याल-दुलार उन्हें मुंबई खीच ले गया। उस समय पल्लव बम्बई की किसी कंपनी में कार्यरत था। दादा उसके साथ अठारह की दोपहर12.00 के लगभग पूना पहुंच गए। एक खास तिराहे पर, मेरी कार खडी हुई  थी और मैं मोबाइल पर पल्लव से थोड़ी-थोड़ी देर में पूछ लेती थी कि कहां तक पहुंचे। कभी पल्लव मुझे बता देता था कि उनकी टैक्सी मुम्बई-पूना हाइवे पर किस टर्न पर है। दादा के लंच का समय हो गया था। जैसे ही वे पहुंचे मैं अविलम्ब दोपहर के भोजन के लिए उन्हें एम, जी रोड ले गई। वहाँ स्थित, ब्रिटिश काल के बने  प्रसिद्ध एवं शानदार राम-कृष्ण होटल के वातानुकूलित डाइनिंग हॉल में दादा और पल्लव ने राहत की सांस ली। सबसे पहले ठंडा पानी पिया।
पल्लव को शाम को ही निकलना था ! मैंने उससे कहा भी कि रुक जाओ, कल चले जाना, लेकिन उसे आफिस का जरूरी कार्य था, सो वह रुक नहीं सका। वह मुम्बई के लिए निकल गया और मैं दादा को  कोरेगांव पार्क, उनके अपार्टमेंट में, हमारे साहित्यकार मराठी कवि यानी उस घर के मालिक के सुपुर्द करके (जो उस दिन नीरज दादा के लिए उस घर में पहले से विराजमान थे) घर आ गई। माँ को देखना था, शाम के लोकार्पण की तैयारी करनी थी। साथ ही, रात्रि-भोज की भी केटरर से खबर लेनी थी! मैंने रात्रि-भोज दो कारणों से रखा था कि पूना में वे (हिन्दी और इंगलिश की ) मेरी पहली पुस्तकें  थीं, जो प्रकाशित हुई थीं  और जिसका विमोचन मेरे परिचित परिवार के सुझाव पर जब तय हुआ था, तो वे चाय-नाश्ते की बात कह रहे रहे थे। पर, मैंने  सोचा कि हिन्दी, मराठी  और उर्दू  तीनों भाषाओं के साहित्यकार नीरज जी जैसी महान हस्ती के आगमन से बहुत खुश है और उनसे मिलने के लिए उत्साहित हैं, तो इस बहाने  तीनों भाषाओं के साहित्यकारों का एक मुलाकात क्यों न हो जाए। अतैव, नीरज जी के आगमन के इस खास मौके पर मुझे रात्रि-भोज  देना मुझे जरूरी लगा ! यह भी मुझे अंदाजा था कि जब दादा  की कविताएं शुरू होंगी तो, कार्यक्रम 12 या 1.00 बजे से पहले तो समाप्त होगा नहीं। सो मेरी यह भावना भी बलवती थी कि इतनी देर बैठे रहने वाले हमारे अदबी साथी बिना भोजन के घर न जाएं।
शाम को पूना के फिरोदिया सभागृह में नीरज जी की ‘मुख्य अतिथि’ के रूप में उपस्थिति में मेरी दो पुस्तकों का विमोचन बहुत ही मनोहर और  काव्यमय वातावरण में हुआ। कार्यक्रम  के अध्यक्ष  साहित्यकार अज्ञेय जी  के ‘तारसप्तक’ काव्य समूह के  प्रख्यात कवि  हरिनारायण व्यास थे।  दामोदर खडसे, शरदेन्दु शुक्ल  और प्रेमा स्वामी वक्ता थे ! पूना के हिन्दी, उर्दू  और मराठी  के साहित्यकार कार्यक्रम में आए थे। मैंने कार्यक्रम का संचालन  आॅल इंडिया रेडियों, पुणे  के हिन्दी अधिकारी ‘सुनील देवधर  जी’ से करवाया था। लोकार्पण कार्यक्रम  सम्पन्न हो जाने  पर, नीरज  जी  की  कविताओं का जो दौर चला तो  काफी देर बाद  थमा।  बाहर  पानी बरस रहा था और सभाागृह  में नीरज की मधुर-मंदिर कविताएं बरस रही थीं।

1) अब के सावन में

अब के सावन में ये शरारत मेरे साथ हुई,
मेरा घर छोड़ के, कुल शहर में बरसात हुई

श्रोताओं की मांग पर दादा ने अपना सिग्नेचर गीत सुनाया…

2) कारवां गुजर गया

स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गये सिंगार सभी बाग के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे!

इस तरह एक के बाद एक  कविताओं की झड़ी लगती रही। नीरज जी क्षीणकाय तो थे ही, सो उन्होंने देर होती देख, श्रोताओं से करबद्ध निवेदन कर, कार्यकम को 12:30  बजे  विराम दिया।  मंच पर लोगों  की  बेतहाशा  भीड़ लग  गई।  सब नीरज  जी को प्रणाम और चरण स्पर्श  करते रहे और मुझे  पुष्पगुच्छ व बधाई  देते रहे।
अगले  दिन पिम्परी  के राकेश श्रीवास्तव साहब ने, पूना में मेरी  पुस्तकों  के लोकार्पण पर नीरज जी के आगमन का  सदुपयोग करते  हुए ‘एक  शाम : नीरज-निदा के नाम’  से एक रात्रि  कार्यक्रम  रखा लिया था। इससे पहले,  दिन में  नीरज  दादा,  मेरे घर  दोपहर के खाने पर आए। मैं तो खाना बनाने में लगी रही और वे बीबी (मां)  को अपने  जीवन और  फिल्मी दौर  की ढेर बातें  सुनाते रहे ! बीच-बीच में  सुनने  के लिए  मैं भी लिविंग रूम में  पहुंच जाती थी। एसडी बर्मन, देवानन्द साहब  और नीरज जी की  टीम ने  काफी साथ काम किया। जब दादा ने फिल्म-इंडस्ट्री में कदम रखा, उन दिनों प्रेम-पुजारी  फिल्म  बन रही थी। नीरज  जी  को एसडी. बर्मन ने  एक सीन की सिचुएशन बता कर, अगली सुबह  तक  गाना लिख कर, देने के लिए कहा ! दूसरी ओर  देवानन्द साहब को बुला कर, नीरज जी  के वापस  जाने  लिए  एक हवाई टिकट  का इंतजाम  करने के लिए कहा,  यह सोच कर कि  नीरज जी मंच के कवि भले ही कितने मशहूर हों और बढ़िया लिखते हों, लेकिन  फिल्मों के लिए क्या  गाने लिख  पाएंगे। नीरज दादा ने रात भर गाने के  बोल बार-बार लिखे-मिटाए। जब तसल्ली हो गई तो गीत फाइनल किया। अगले दिन  दस बजे, जब  बर्मन  दा  को  नीरज  जी ने ‘रंगीला रे ! तेरे रंग में…..’ सुनाया तो,  बर्मन दा उछल पड़े  और तुरंत देवानंद साहब को फोन किया कि जो फ्लाइट बुक कराई थी, उसे कैंसिल किया जाए।
बस, तब से जो नीरज जी, बर्मन टीम का हिस्सा बने, तो लंबे समय तक वहीं रहे। इतना  ही नहीं, दादा इस टीम से अलग अन्य  फिल्मों के लिए भी गीत लिखते रहे। राज कपूर साहब की फिल्म मेरा नाम जोकर का यह गीत ऐ भाई, जरा देख के चलो, आगे ही नहीं, पीछे भी… नीरज दादा का ही लिखा हुआ है।  उनके अन्य गीतों की सूची मैं नीचे दे रही हूं। नीरज जी ने यह बात बेहिचक बताई  कि वे जिस फिल्म  के लिए भी वे अपने गीत देते, वह फ्लॉप हो जाती थी, पर, उनके गाने खूब लोकप्रिय होते थे। इसलिए फिल्म जगत के निर्माता -निर्देशक उन्हें मनहूस मानने और कहने लगे थे। यह जान कर भी, वे कुछ और साल तक गीत लिखते रहे, लेकिन अन्तत:  फिल्मों की असफलता से दुखी होकर, फिल्मी दुनिया को विदा कह कर, वापस अलीगढ चले गए।
शाम को नीरज दादा को पूना के पिम्परी जाना था। राकेश भाई ने मुझसे कहा था कि आपको अरूर आना है। ऐसा न हो कि आप टाल जाए। दूर सबर्ब में एक तो रात का कार्यक्रम, कब शुरू होगा  और कब समाप्त, इसका  कुछ भरोसा नहीं था। दूसरे मैं मां को अकेला  छोड़ कर जाने के लिए अनिच्छुक थी। उससे एक दिन पहले, मेरा तीन घंटे का कार्यक्रम छह घंटे में यानी रात्रि के एक बजे समाप्त हुआ था। लेकिन, नीरज दादा की कविताओं की प्रशंसक मेरी मां बोली कि इनको  लाइव सुनने का मौका कहां जल्दी से मिलेगा, इसलिए जरूर जाना चाहिए। तब,  मैं और मेरी पहचान  का  एक परिवार  ‘नीरज-निदा  शाम’  के लिए दादा के साथ ही पिम्परी गए। वहां का ‘रामकृष्ण मोरे ‘सभागार बहुत विशालकाय है, वह खचाखच भरा हुआ था।  पहले हम  सब  निदा साहब से  नीरज  जी के साथ  लता मंगेशकर  जी  के  होटल में मिले। काफी देर बातें होती  रहीं। सात बजते ही हम सब सभागार में पहुंच गए। उससे पहले एक छोटी सी बैठक में फोटोग्राफरों की भीड़ ने घेर लिया और नीरज जी के साथ अनेक लोगों ने फोटो खिंचवाए।
नीरज दादा बच्चों की तरह, तस्वीरे खिंचते समय, सोफे पर बैठी, मुझसे उनके पास खड़े होकर फोटो खिंचवाने को कहते, तो  एक दो बार तो मैंने उनका कहा  मान लिया, पर फिर बाद में मैंने विनम्रता से, उनसे चुचाप कहा कि वे बार-बार मुझे न बुलाएं। उस उबाऊ  फोटो-सेशन से किसी तरह मुक्ति पाकर मैं और मेरी सहेली, नीरज दादा के साथ हॉल में  पहुंचीं और हमें स्वागत टीम ने अगली पंक्ति में बैठाया। कुछ पल बाद ही दादा मंच पर पहुंच गए, जहां निदा साहब पहले से ही बैठे हुए थे और नीरज जी की प्रतीक्षा कर रहे थे।
नीरज जी और निदा साहब मंच पर  ऐसे जमे कि लोग उठने का नाम ही नहीं ले रहे थे। उस भीड़ में नीरज दादा की  मांग बहुत अधिक थी  रात के दो बज गए जो, मेरे लिए प्रतिकूल समय था, लेकिन  ऐसे कार्यकम  कभी-कभी ही सुनने को मिलते हैं, सो मैं उस  प्रतिकूलता को  झेल गई।  तदनन्तर हम सबको ससम्मान रात्रि भोज  के लिए डायनिंग हाल में ले जाया गया। नीरज दादा ने, मैंने और हमारी सहेली ने  कुछ नहीं खाया।  सबके कहने पर और साथ देने के लिए  बस जूस ले लिया। फिर इतनी  दूर से  घर आते-आते  सुबह  के चार बज गए। लेकिन दो दिन नीरज जी को और अगले दिन  साथ में निदा साहब को सुनना हमेशा  के लिए यादगार बन गया।
नीरज जी की कविताएं तो हम सबने बार-बार सुनी ही हैं, लेकिन कुछ  फिल्मी  गीतों  को छोड़ कर, शायद सब  गीत  आप सबको याद न हों,  तो उनकी  सूची  आप  देख सकते हैं-
गीत फिल्म गायक
लिखे जो खत तुझे
कन्यादान
रफी
ऐ भााई जरा देख के चलो  मेरा नाम जोकर
मन्ना डे
दिल आज शायर है
मेरा मन तेरा प्यासा गैम्बलर किशोर कुमार
जीवन की बगिया महकेगी   तेर मेरे सपने  किशोर- लता
मैंने कसम ली   तेरे मेरे  सपने   किशोर-लता
मेघा छाए आधी रात … शर्मीली लता
ओ मेरी शर्मीली शर्मीली किशोर
फूलों के रंग से दिल कि कलम से प्रेम पुजारी किशोर
रंगीला रे …. प्रेम पुजारी   लता- किशोर
राधा ने माला जपी श्याम की   तेरे मेरे सपने     लता
कांरवां गुजर गया … नई उम्र की नई फसल     रफी
सुबह  न आई, शाम न आई   चा  चा चा     रफी
वो हम ना थे, वो तुम न थे . चा चा चा     रफी
आज मदहोश हुआ जाए रे   शमीली     किशोर-लता
खिलते  हैं गुल यहाँ      शमीर्ली     किशोर
एक मुसाफिर हूँ मैं, एक मुसाफिर है  – गुनाह

नीरज जी ने यह बात बेहिचक बताई कि वे जिस फिल्म  के लिए भी वे अपने गीत देते, वह फ्लॉप हो जाती थी, पर, उनके गाने खूब लोकप्रिय होते थे। इसलिए फिल्म जगत के निर्माता -निर्देशक उन्हें मनहूस मानने और कहने लगे थे।

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