राधिका त्रिपाठी II
स्त्री जब प्रेम के सर्वोच्च शिखर पर होती है, तब वह अपने तन पर और मन में लाल रंग धारण करती है। जीवन के आखिरी समय में वही लाल रंग अपनी मांग में सजा कर अग्नि की लाल लपटों में समाहित हो जाती है। स्त्री और प्रेम दोनों पूरक हैं एक दूसरे का। कोई भी स्त्री प्रेम से विमुख नहीं हो सकती। ऐसा करेगी तो वह निर्मम हो जाएगी। वह बुद्ध नहीं बन सकती। समाज को ज्ञान नहीं दे सकती। वह सिद्धार्थ की यशोधरा ही रहेगी चाहे राजकुमार उनको छोड़ कर चले जाएं। बुद्ध को मध्य मार्ग का बोध सुजाता नाम की स्त्री ने ही कराया था। मगर संसार की स्त्रियां पहले से ही मध्य मार्ग पर चलते हुए अपने प्रेम और परिवार को साधती आई हैं।
स्त्री की सार्थकता यही है कि वह प्रेम को हृदय में स्थान दे, मगर इसके साथ शस्त्र भी धारण करे। शस्त्र यानी शिक्षा और आत्मविश्वास। ये दोनों उसके ऐसे अदृश्य हथियार हैं जो जीवन के हर कठिन समय में काम आते हैं। समाज न तो स्त्री को समझ सकता है न ही उसके प्रेम को। इसलिए नारी सशक्तीकरण जरूरी है। दूसरी ओर स्त्री ने जब भी प्रेम किया वो मीरा बन गई और पूरे संसार में प्रेम का विस्तार किया। न मिलन की आस सजाई न ही प्रेम के बदले प्रेम मांगा। उसने बस प्रेम किया मूर्त और अमूर्त दोनों रूप में। प्रेम उसकी निजता है। उसकी गरिमा है।
प्रेम में स्त्री कभी प्रेमिका नहीं हो पाई, वह मां हो गई। मातृत्व धारण कर वह वस्तुत: अपने प्रेम को ही प्रकट करती है। दूसरी ओर पुरुष बालक होकर उसके आंचल में समा जाता है। उसकी पौरुष शक्ति में प्रेम तलाशना स्त्री के लिए मुश्किल होता है। क्योंकि वह समाज और लोगों में बंटा होता है। प्रेम में पुरुष या तो पशुता प्रदर्शित करता है या पौरुष शक्ति दिखा कर खुश होता है। चाहे स्त्री को मानसिक और दैहिक कष्ट क्यों न हो। आज दुनिया भर में स्त्रियों के खिलाफ हो रही हिंसा के पीछे भी कई पुरुष शामिल हैं। दो देशों के बीच युद्ध में या आतंकवाद के दौरान स्त्रियां ही जुल्म की शिकार हुईं। उन्हें पुरुषों ने रौंदा।
किसी भी तरह स्त्री को हासिल कर लेना ही पुरूष का प्रेम है तो यह प्रेम निश्चित रूप से नहीं है। जबकि स्त्री का प्रेम त्याग का प्रतीक है। स्त्री त्याग करती है सपनों का, अपनों का और समाज का, तब वह धारण करती है प्रेम को। जबकि पुरुष चाहता है नाम, प्रतिष्ठा और दौलत। वह सब कुछ चाहता है। मगर जब समाज की मर्यादा और स्त्री की कोमलता को अंगीकार करता है तो वह प्रेम को अपने सुलभ स्वरूप पाता है।
ऐसा कहना भी गलत होगा कि स्त्री ही सिर्फ प्रेम में महान हो सकती है। कई पुरुष भी स्त्रीतत्व से परिपूर्ण होते हैं। यह गुण जब पुरुष धारण करता है तो वह प्रेम में स्वयं को देवताओं के समक्ष खड़ा कर देता है। लेकिन यह कम ही सुनने और देखने को मिलता है। ऐसे पुरुष समाज में बिरले ही मिलते हैं। संसार को ऐसे पुरुष चाहिए जिनके हृदय में स्त्री धड़कती हो। जैसे शक्ति के बिना शिव और राधा के बिना कृष्ण अधूरे हैं, वैसे ही स्त्री के सच्चे प्रेम के बिना कोई भी पुरुष अधूरा है।
मैंने कई जोड़ों को एक साथ दुनिया से विदा लेते हुए देखा है। कई युगल अलग-अलग देश में रहते हुए भी मन की दूरियां मिटा देते हैं। यहां तक कि उनकी सांसें भी थम जाती हैं कि अब तुम नहीं तो मैं भी नहीं। ऐसे कई उदाहरण है जो शरीर से अलग बेशक हों परंतु आत्मा से एक होते हैं। देह से ऊपर उठ कर रूहानी स्तर पर प्रेम करना भी स्त्रियों ने ही पुरुषों को सिखाया है। प्रेम सत्य है, शाश्वत है।