संजय II
भारत के बड़े शहरों में गौरेया कम दिखाई देती है। कई जगह तो यह दिखती भी नहीं। घर-आंगन में अपनी चहचहाहट से आसपास के वातावरण को जीवंत रखने वाली यह चिड़िया अब कम ही दिखती है। यह सवाल किया जाए कि पिछली बार आपने गोरैए को कब देखा तो आप तुरंत जवाब नहीं दे पाएंगे। दिल्ली जैसे शहर में बढ़ते ध्वनि प्रदूषण से यह नन्हीं जान घबरा गई है। सरकार की नजरों में दिल्ली बेशक हरी-भरी हो गई हो, लेकिन सच्चाई यही है कि कंकरीट के इस जंगल में वृक्षों की संख्या कम होते जाने से गोरैयों का बसेरा कम हो गया है।
भारतीय महानगरों में भागमभाग की जिंदगी और छोटी-बड़ी कारों की चकाचौंध में खाए मध्यवर्गीय तथा बेहिसाब समृद्धि से अघाते अभिजात्य समाज को गोरैए की चिंता करने और उन्हें दाना पानी देने की फुर्सत ही कहां है। न छत है, न आंगन जहां गोरैया आकर फुदके। रही सही कसर सीमेंट के जंगल की तरह उग आर्इं कालोनियों ने पूरी कर दी है।
कोई दो-तीन दशक पहले घर-आंगन में गोरैया फुदकती हुई एकदम पास आ जाती थी। बच्चे भी उन्हें देख कर खिल उठते थे। वाकई यह इतनी प्यारी चिड़िया है कि इसके बिना किसी भी गृहस्थ का घर बच्चों की किलकारियों के बावजूद सूना है। एक समय था जब सूर्योदय से पहले गोरैए की चहचहाहट और कौवे की कांव-कांव सुन कर बिस्तर से उठ जाते थे। बड़े शहरों के लोगों ने घड़ी में अलार्म लगाना भी तब शुरू किया जब भोली-भाली गोरैया हम सब से रूठ गई।
गोरैए का रूठ जाना जायज है। अपनी आधुनिक जीवन शैली में हम इतने स्वार्थी हो गए हैं कि हमें दूसरों के जीवन की तनिक परवाह नहीं। हम अपने असपास इतना प्रदूषण फैला रहे हैं कि उससे कीड़े-मकोड़े जहरीले हो जाते हैं, जिन्हें खाकर गोरैए का जीवन खतरे में पड़ जाता है। और हमें इनकी जरा भी चिंता नहीं होती। इसलिए दीवार घड़ियों में चिड़िया की चहचहाहट भली लगती है।
हम अपने घरौंदे बनाने के लिए लगातार सीमेंट के जंगल बनाते जा रहे हैं। इससे गोरैए का बसेरा छिनता जा रहा है। वैसे भी नए बन रहे फ्लैटों में गोरैए के लिए घोंसला बनाने की जगह ही नहीं बच रही। जबकि पुराने जमाने में घरों में छज्जे होते थे। कमरों के ऊपर रोशनदान भी जहां सीधी-सरल यह चिड़िया अपना घर बसा लेती थी और बच्चों के लिए दाना-पानी लेने निकल जाती थी। अब शीशे और स्टील के दरवाजे-खिड़कियों के कारण घरों में उसके घुसने के रास्ते बंद हो गए हैं। बालकनी भी है तो उसे भी ढक कर लोगों ने कमरे बना लिए हैं। घोसले की जगह बची ही कहां?
शहरों की कालोनियों में पार्क तो दिखाई देते हैं पर घने वृक्ष नहीं। गांवों में भी बगीचे सिमट रहे हैं। खेतों में कीटनाशकों के प्रयोग से मरे कीट गोरैए के खाने लायक नहीं। इनके बच्चे पहले आधा खाते थे और आधा गिरा देते थे, अब वह भी नहीं मिलता। क्योंकि शहरी बच्चे प्लास्टिक की थैलियों और डिब्बो में बंद फास्टफूड खाते हैं। अब घरों से भी कम ही जूठन निकलता है। छतों पर भी कोई दाना-पानी रखने नहीं जाता। तो गोरैया खाए क्या और रहे कहां? मोबाइल टॉवरों से निकल रहीं तरंगें भी इनहें बेचैन करती हैं। इनका क्या करें?
गोरैए के संगी-साथी भी नहीं दिखते अब। उसके साथ डोलती मैना को देखे अरसा हो गया। तोता महाराज के दर्शन भी दुर्लभ हैं। पेड़ों की कटाई से इन पक्षियों का खत्म होता प्राकृतिक आवास आज भारत ही नहीं पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय है। अरसा पहले अंतरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ के बार्सिलोना सम्मेलन में दुनिया भर के पक्षियों की स्थिति पर जारी रिपोर्ट में चिंता जताई गई थी। इसमें सबसे ज्यादा गोरैया जैसी देसी और घरेलू पक्षियों की संख्या कम होते जाने को गंभीरता से लेने के लिए कहा गया।
यूरोपीय देशों में स्काईलार्क और डव जैसे पक्षियों का तेजी से कम होना इस बात का संकेत है कि प्रकृति के साथ छेड़छाड़ के नतीजे किस खतरनाक स्तर तक जा पहुंचे हैं। ब्राजील की स्पिक्स, मकाव, हवाई द्वीप के कौवे और पुउली की प्रजाति पूरी तरह खत्म हो चुकी है। अब गोरैए का क्या होगा? यह हमें सोचना है। हो सके तो इनके लिए घर की बालकनी या छत पर इनके लिए कोई घरौंदा बनाइए। इन्हें दाना-पानी दीजिए। हो सकता हैं ये लौट कर आएं। और आप गुनगुनाएं- ओ री गोरैया, अंगने में आ जा रे…।
हम अपने घरौंदे बनाने के लिए लगातार सीमेंट के जंगल बनाते जा रहे हैं। इससे गोरैए का बसेरा छिनता जा रहा है। वैसे भी नए बन रहे फ्लैटों में गोरैए के लिए घोंसला बनाने की जगह ही नहीं बच रही।