प्रो सदानंद शाही II
उच्च शिक्षा के तीन प्रमुख उद्देश्य हैं। पहले से मौजूद ज्ञान का अध्ययन, नए संदर्भो में उसकी व्याख्या, तथा शोध व चिंतन-मनन के माध्यम से नए ज्ञान की खोज। लेकिन इसके लिए जैसे परिवेश की जरूरत है, क्या वह हमारे उच्च शिक्षा केंद्रों में मौजूद है? अभी हाल में प्रोफेसर बलिराज पांडेय काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अध्यक्ष बने हैं। उन्होंने अपने स्वागत समारोह में कहा कि सफल अध्यक्ष होने के लिए कुशल क्लर्क होना काफी है। सहसा यह बात जितनी दिलचस्प लग रही है, उतनी ही बड़ी त्रासदी की ओर भी संकेत कर रही है।
काशी हिंदू विश्वविद्यालय का हिंदी विभाग भाषा, साहित्य और शिक्षण के क्षेत्र में नेतृत्वकारी भूमिका निभाता रहा है। लाला भगवान दीन, श्याम सुंदर दास, रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, केशव प्रसाद मिश्र, विश्वनाथ मिश्र, बच्चन सिंह, शिव प्रसाद सिंह, और शुकदेव सिंह जैसे आचार्यो और नंद दुलारे वाजपेयी, शिवमंगल सिंह सुमन, नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी जैसे छात्रों ने देश और दुनिया भर में हिंदी का सिर ऊंचा उठाया है। ऐसे विभाग के अध्यक्ष को यदि कहना पड़ रहा है कि सफल अध्यक्ष होने के लिए कुशल क्लर्क होना काफी है, तो इस पर विचार करना जरूरी है।
सचमुच, यह एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि हमारे उच्च शिक्षा के केंद्रों में अकादमिक दक्षता या उत्कृष्टता की जगह लिपिकीय कौशल ने ले ली है। लंबा अकादमिक अनुभव वाले ज्यादातर लोगों का मानना है कि हमारे उच्च शिक्षा केंद्रों में ज्ञान-विज्ञान, विचार और सृजन को प्रेरित और प्रोत्साहित करने का माहौल नहीं रह गया है। स्वाधीनता के बाद हमारी चेतना में मौजूद राष्ट्रीय आंदोलन के उत्साह ने शिक्षा को ज्ञानर्जन और नए की तलाश के लिए उत्सुक बनाए रखा था। इसलिए उच्च शिक्षा के केंद्रों में अकादमिक आजादी कहीं ज्यादा थी। राष्ट्रीय आंदोलन की वैचारिक-मानसिक ऊर्जा के मद्धिम पड़ते ही शिक्षा केंद्रों से अकादमिक आजादी का माहौल धीरे-धीरे लुप्त होता चला गया। अब वहां विचार-विमर्श और चिंतन-मनन की न तो आकांक्षा दिखती है, न अवकाश।
उच्च शिक्षा केंद्रों को अनिवार्य रूप से रोजगारपरकता से जोड़कर देखा जाता है। ऐसे देश में, जहां अधिकांश आबादी गरीबी रेखा के नीचे है, यह स्वाभाविक भी है। इस चक्कर में हमारा जोर छात्र को स्वतंत्र, विकसित और विचारशील नागरिक बनाने पर नहीं, बल्कि हुनरमंद बनाने पर होता है। छात्रों को ऐसा हुनर सिखाया जाए कि वे रोजी-रोजगार की दिशा में सफल हो सकें। बेशक देश और समाज के विकास के लिए जरूरी है कि हमारे नागरिक समुचित रूप से हुनरमंद हों, कुशल हों, लेकिन इसके साथ यह भी जरूरी है कि वे नागरिक भी हों।
हमारी सबसे बड़ी विफलता यह है कि हम नागरिकता बोध से रहित हुनरमंदों की फौज तैयार कर रहे हैं। जो लोग शिक्षा के माध्यम से कोई हुनर नहीं सीख पाते, वे सरकारी मशीनरी के कल-पुरजे बन जाने की ख्वाहिश के साथ शिक्षा संस्थानों में आते हैं। मैकाले की बहुनिंदित शिक्षा नीति, जिसमें अंग्रेजी राज के लिए विभिन्न स्तरों के सेवक तैयार करने पर जोर था, कमोबेश आज भी चल रही है। सबसे बड़ी बात यह है कि हमारी आकांक्षा ही स्वतंत्र मनुष्य बनाने की अपेक्षा कल-पुरजा बनाने की हो गई है।
शिक्षा मंत्रलय के मानव संसाधन विकास मंत्रालय में बदल जाने से यह बात और पुख्ता हुई है। हमारे शिक्षा केंद्र मनुष्य को संसाधन बनाने में लगे हुए हैं। हमें शायद विकसित, स्वतंत्र और विचारशील मनुष्यों की जरूरत नहीं है। मनुष्य का यह रूप हमें स्वीकार्य नहीं है। इसीलिए मनुष्य को संसाधन में बदलने का उद्यम चल पड़ा है। जाहिर है, मांग और आपूर्ति के नियम के तहत हमें हमारी जरूरतों के अनुरूप संसाधन चाहिए। इसका संबंध हमारे समाज के सपनों और आकांक्षाओं से है। हमारे समाज की चालक शक्तियों की आकांक्षा अंधाधुंध उपभोग में अधिकतम साझेदारी की है। इसलिए जो मानव-संसाधन तैयार हो रहा है, वह इन्हीं प्राथमिकताओं के अनुरूप है। अंधाधुंध उपभोग से चौंधियाया हुआ। ऐसे संसाधन यानी मनुष्य ने परिवार और समाज से मिले मूल्यों को लगभग तिलांजलि दे दी है।
उपभोग के आलावा कोई जीवन मूल्य रह ही नहीं गया है। यह स्थिति भी सुखद नहीं लगती, इसलिए उच्च शिक्षा केंद्रों तक में राष्ट्रीय मूल्य, राष्ट्र गौरव, मानव मूल्य, मूल्य अनुशीलन जैसे अनेक पाठ्यक्रम बनाए और चलाए जा रहे हैं। बिना यह समझे कि जब शिक्षा का मुख्य ध्येय ही बदल गया है- अलग से मूल्य शिक्षा एक बेमेल का पैबंद बन जाने को अभिशप्त है।
इस सबसे हमारे उच्च शिक्षा केंद्र वैसे ही बन रहे हैं, जैसा हम उन्हें बनाना चाहते हैं। अकादमिक दक्षता और सृजनात्मकता की जगह लिपिकीय दक्षता और प्रशासनिक जड़ता को तरजीह देने वाले। प्रवेश परीक्षाएं हो रही हैं, प्रवेश हो रहा है, उपस्थिति का लेखा-जोखा रखा जा रहा है, क्रेडिट का हिसाब हो रहा है, सेमेस्टर की परीक्षाएं हो रही हैं। सेमेस्टर ब्रेक हो रहा है, रिजल्ट निकल रहा है और फिर प्रवेश की प्रक्रिया शुरू हो जा रही है। कुल मिलाकर, शिक्षा का हिसाब-किताब हो रहा है, शिक्षा गायब है।
रवींद्रनाथ टैगोर की एक कहानी याद आती है,जिसमें राजा ने तोते को शिक्षित करने का आदेश दिया था। राजा के मंत्रियों और शिक्षाधिकारियों ने शिक्षित करने के नाम पर तोते को इतने बंधनों में बांध दिया कि आखिरकार उसकी मृत्यु हो गई। मंत्रियों ने राजा को खबर दी कि तोता पूरी तरह शिक्षित हो गया है। अब वह शोरगुल नहीं करता, पंख नहीं फड़फड़ाता। इस कहानी के माध्यम से टैगोर शिक्षा के क्षेत्र में मौजूद व्यवस्था के बंधनों पर टिप्पणी करते हैं। उन्होंने खुले प्रांगण में शिक्षा की बात की थी, ताकि दीवारों और दरवाजों में कैद शिक्षा खुली हवा में सांस ले सके और एक मुक्ति की सोच रखने वाले राष्ट्र के लिए विकसित और उन्नत नागरिकों के निर्माण का वातावरण बन सके। लेकिन उसके ठीक विपरीत अब हम दीवारें उठाते जा रहे हैं। शिक्षा जिसे संकीर्णताओं और भेदभाव से मुक्ति का साधन बनना था, वह स्वयं अनेक तरह की संकीर्णताओं के बंधन में बंधकर लिपिकों के हाथ का खिलौना बन गई है।