अश्रुतपूर्वा II
जो तुम आ जाते एक बार
कितनी करुणा कितने संदेश
पथ में बिछ जाते बन पराग
गाता प्राणों का तार तार
अनुराग भरा उन्माद राग;
आंसू लेते वे पद पखार।
हंस उठते पल में आद्र नयन
धुल जाता ओठों से विषाद।
2.वे सूने से नयन, नहीं
जिनमें बनते आंसू मोती,
वह प्राणों की सेज नहीं
जिसमें बेसुध पीड़ा सोती;
ऐसा तेरा लोक, वेदना
नहीं, नहीं जिसमें अवसाद
जलना जाना नहीं, नही
जिसने जाना मिटने का स्वाद…!
3. मूक सुख दुख कर रहे
मेरा नयन शृंगार सा क्या
झूम गर्वित स्वर्ग देता
नित धरा को प्यार से क्या?
आज पुलकित सृष्टि
क्या करने चली अभिसार लय में
कौन तुम हृदय में?