पुस्तक समीक्षा

काने मच्छर की महबूबा

राजीव तनेजा II

आमतौर पर किसी भी किताब को पढ़ते हुए मैं एक तरह से उसमें पूरा डूब जाता हूँ और यथासंभव पूरी किताब के दौरान उसी पोज या मूड में रहता है। अपनी तरफ से मेरा भरसक प्रयास रहता है कि मेरी नजर से कोई उल्लेखनीय या अहम..तवज्जो चाहने लायक बात ना छूट जाए। ऐसे में अगर तमाम तरह के चुनिंदा प्रयासों के बावजूद किसी किताब को पढ़ते पढ़ते औचक ही आपकी हँसी छूट जाए और अजीबोगरीब तरह से मुँह बनाते हुए जबरन आपको अपनी हँसी को रोकना पड़े तो ऐसे में आप उस कमबख्त लेखक को क्या कहेंगे जिसने उस व्यंग्य संग्रह को लिखा है।
मैं बात कर रहा हूँ अनेक प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में काम कर चुके प्रसिद्ध व्यंग्यकार अतुल मिश्र के व्यंग्य संग्रह ‘काने मच्छर की महबूबा’ की। किताब पर बात करने से पहले ‘मेरी एक स्वीकारोक्ति’ कि अतुल जी के फेसबुक स्टेटस कई बार इतने ज्यादा मजेदार होते हैं कि उन्हें मैं स्क्रीनशॉट के जरिए चोरी करने से खुद को रोक नहीं पाता कि उन्हें मुझे व्हाट्सएप पर शेयर कर अपने मित्रों को गुदगुदाना या हँसाना होता है। अब स्क्रीनशॉट इसलिए कि वे अपने स्टेटस को इमेज के बजाय टाइप कर के लिखते हैं और टाइप्ड मैसेज को भेजने से उसमें वो बात नहीं रहती। खैर..चलिए अब बात करते हैं उनके इस व्यंग्य संग्रह की।
इस व्यंग्य संकलन में अगर कहीं सोचने को लेकर  दुविधा मिलती है कि आखिर..क्या सोचा जाए कि सोच को और ना सोचना पड़े। तो कहीं इसमें विद्यार्थियों से उनके पूर्वजों के बन्दर होने की मास्टर द्वारा तसल्ली की जा रही है। कहीं किसी के विद्वान होने या ना होने पर मजेदार कटाक्ष किया जा रहा है तो कहीं इसमें टीआरपी की अंधी दौड़ में पागल मीडिया असली मुद्दों को दरकिनार करता दिखाई देता है।
इसमें कहीं किसी व्यंग्य में हमारे प्रधानमंत्री मंत्री के अमेरिकी दौरों के दौरान उनकी मुस्कुराहट और शिखर सम्मेलनों की व्यर्थता पर कटाक्ष दिखता है। तो कहीं नेताओं को नोटों की माला पहनाने के चलन पर छींटाकशी होती दिखाई देती है। कहीं इसमें शुगर फ्री ‘शुगर’ और साल्ट फ्री ‘साल्ट’ के जरिए भारतीयों की मुफ़्त पाने और कंपनियों की..इसे भुनाने की मंशा पर बात की गई है तो कहीं इसमें परिवहन विभाग की मिलीभगत से चल रही अवैध बसों और उनमें पिसती आम जनता और उनकी होती दुर्दशा का चित्रण है।
कहीं इसमें रेल दुर्घटना के बाद मीडिया द्वारा उसे ऊटपटांग ढंग से कवर करने को लेकर मजेदार ढंग से व्यंग्य का ताना बाना बुना गया है। तो कहीं मच्छरों की आपसी बैठक के जरिए देश में चल रही मिलावटखोरी पर कटाक्ष है। कहीं इसमें डायनासोरों की उत्पत्ति और विलुप्ति के प्रश्न के जरिए आजकल के नेताओं और उनकी कार्यशैली एवं नीयत (?) की बात है तो कहीं इसमें गलियों में कुत्तों की बढ़ती भरमार को लेकर चिंता जताई गई है। कहीं इसमें ‘कथनी कुछ और करनी कुछ और’ की तर्ज पर मद्यनिषेध के खोखले पड़ते सरकारी नारों की धज्जियां उड़ाई गई हैं। तो कहीं इसमें देश की अदालतों में बरसों से लंबित पड़े मुकदमों और लेटलतीफी वाली अदालती प्रक्रिया पर कटाक्ष दिखता है।
कहीं इसमें पुरानी मनोरंजक लोकगीत शैली आल्हा के जरिए संसद में नेताओं की कारस्तानियों को उजागर किया गया है। तो कहीं इसमें सत्तापक्ष की रैली पर मधुमक्खियों  का हमला होते दिखाई देता है। कहीं इसमें पुलिसिया मिलीभगत से गरीब मास्टर के घर पड़ी डकैती और उसकी वजह से अमीर लोगों में जलन के मारे अफरातफरी का माहौल पनपता दिखाई देता है। कहीं इसमें शराफत का नकाब ओढ़े लोगों की असलियत खुलती दिखाई देती है तो कहीं इसमें मौसम विभाग की अजब-गजब भविष्यवाणियों के मद्देनजर आमजन समेत किसान तक उससे ठीक उलटे काम करते दिखाई देते हैं।
कहीं इसमें टिपिकल बॉलीवुड स्टाइल की डरावनी फिल्मों और उनकी कहानी पर मजेदार कटाक्ष नजर आता है। तो हिंदी अखबारों और उनके पत्रकारों के शोषण और दुर्दशा का प्रभावी चित्रण दिखाई देता है। कहीं इसमें विज्ञापन की एवज में बिकते अखबारों के प्रेस कार्ड की बात है तो कहीं इसमें विधायकों का बात बेबात धरने पर बैठ जाना नजर आता है। कहीं सरकारी दफ़्तरों में रिश्वत ना लेने वालों पर कटाक्ष दिखाई देता है।
कहीं इसमें सरकारी गाड़ियों के अफसरों के परिवारों द्वारा दुरुपयोग किए जाने की बात नजर आती है। कहीं ‘अतिथि तुम कब जाओगे?’ की मंशा लिए मेहमानों के घर से जाने का इंतजार किया जा रहा है।
हँसने के अनेकों मौके देते इस मजेदार व्यंग्य संग्रह में कुछ जगहों पर वर्तनी की छोटी-छोटी त्रुटियाँ दिखी तथा कवर डिजायन भी थोड़ा अनाकर्षक लगा। इसमें जहाँ एक तरफ कुछ व्यंग्य देव आनंद सरीखे सदाबहार दिखाई दिए तो कुछ व्यंग्य, मरुभूमि में बारिश की हलकी झलक जैसे बेअसर होते दिखाई दिए।
समय की माँग के अनुसार तत्कालीन विषयों को लेकर लिखे गए व्यंग्य बाद में व्यर्थ या बिना मतलब के दिखाई देते है। ऐसे ही कुछ व्यंग्य आज के समयानुसार ना होने के कारण अपनी विट..अपनी मारक क्षमता खोते से दिखाई दिए। उदाहरण के तौर पर एक व्यंग्य में ओबामा को अमेरिका का राष्ट्रपति एवं लादेन को पाकिस्तान में छुपा बताया गया है। इसी तरह एक अन्य व्यंग्य में मुख्यमंत्री को हजार के नोटों की माला पहनते हुए दिखाया गया है जबकि हजार के नोट अब अप्रासंगिक हो..बन्द हो चुके हैं।
इसी तरह एक अन्य व्यंग्य में एक भव्य भूतिया इमारत की बाहरी संरचना की तुलना भव्य काँग्रेस पार्टी से और उसी इमारत की जर्जर भीतरी हालात की तुलना भारतीय जनता पार्टी की लुटी-पिटी हालात से की गई है जबकि वर्तमान में इन पार्टियों की हालत इससे ठीक उलट है।
122 पृष्ठीय इस व्यंग्य संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है बुक्स क्लीनिक ने और इसका मूल्य रखा गया है 200 रुपए।

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ashrutpurva

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