वंदना सहाय II
‘एस्क्यूज मी’ कहती हुई एक महिला की कोमल आवाज ने बरखा के तेज चल रहे कदमों को सहसा रुकने पर मजबूर कर दिया। हालांकि, वह एक पल के लिए भी रुकना नहीं चाहती थी, क्योंकि वह यहां अपने बेटे को स्कूल छोड़ने के लिए आई थी और स्कूल में देर न हो जाए इसलिए उसने अपनी कार को पार्किंग जोन में नहीं लगाया था। अब वह डर रही थी कि कहीं ट्रैफिक पुलिस ने आकर जैमर लगा दिया तो लंबा-चौड़ा चक्कर हो जाएगा। फिर उसे घर पहुंच कर अपने पति के लिए लंच भी तैयार करना था। पर, इस कोमल आवाज के एक शब्द ने जैसे उसके पैरों में बेड़ियां डाल दीं।
वह उस चेहरे को देखना चाहती थी, जिसने उसे पीछे से आवाज दी थी। उसने मुड़ कर देखा-एक भद्र महिला हल्के रंग के सलवार-सूट में मुस्कुरा रही थी। बड़ा-सा एक स्लेटी रंग का पर्स कंधे से लटकता हुआ और बाल बिखरे-से, जैसे घर से जल्दबाजी में यूं ही निकल आई हो। छोटी-छोटी बातों से हो आए तनाव की वजह से मुस्कुराने का मन नहीं रहने पर भी बरखा को औपचारिकतावश मुस्कुराना पड़ा। उसने पूछा-कहीं आप बरखा, आई मीन बरखा सक्सेना तो नहीं?
थोड़ी-सी हैरान होते हुए बरखा ने कहा-हां, मैं बरखा हूं, इतना सुनते ही महिला की बांछें खिल गईं। उसने मुस्कुराते हुए कहा-याद आया, मैं स्तुति। स्कूल में हम दोनों एक ही क्लास में पढ़ा करते थे। इतना सुनते ही बरखा ने धीरे-धीरे अपने स्मृतियों को झकझोरना शुरू किया। स्मृतियां सहज ही जाग उठीं और उसे गलबहियां डाले बरसों पीछे खींच ले गईं, जहां स्कूल परिसर में ढेर सारी सहेलियां थीं। पर उन सबके चेहरों पर समय की धूल चढ़ गई थीं। जल्दी ही धूल साफ हो गई और उसमें से एक चेहरा निकला- सांवला-सलोना स्तुति का। पर, वह चेहरा अब परिपक्व दिख रहा था।
स्तुति, जो उसकी बेंच से दो कतार पीछे वाली बेंच पर बैठा करती थी। बिल्कुल गुमसुम-सी, किसी भी बात का बड़ी मुश्किल से हां या ना में जवाब देने वाली और अक्सर अकेली रहने वाली। सब कुछ याद आने पर अब बोलने की बारी बररखा की थी-अरे, स्तुति तुम यहां! कितनी बदल गई हो, बिल्कुल गृहणी दिखाई दे रही हो। और तुम भी तो…वाक्य पूरा होने से पहले ही स्तुति बरखा से लिपट गई।
स्कूल की एक-एक यादों को आपस में पिरोते हुए दूसरी बातें भी मालूम होती चलीं गईं कि उन दोनों के बेटे उसी स्कूल में पढ़ रहे थे। स्तुति को एक और बड़ी बेटी भी थी। उसने यह भी बताया कि कई बार उसके मन में आया कि वह उसे आवाज दे। पर, हर बार आवाज उसके गले में अटक जाती थी कि कहीं गलती से किसी दूसरी महिला को आवाज न लगा बैठे। पर आज उसने सारी झिझक तोड़ डाली थी।
एक दिन यूं ही आते-जाते बातें करने के दौरान स्तुति ने बरखा से अपने यहां आने की जिद की। उसने कहा कि उसके पास ढेरों बातें हैं, साझा करने के लिए जो यूं ही आते-जाते नहीं की जा सकतीं। बरखा तैयार हो गई और उसने आने के लिए इतवार का दिन रखा। बेटे को पति के पास छोड़, वह बरखा के दिए पते पर पहुंच गई। उसने कॉल-बेल बजाया। घर के अंदर से स्तुति निकली। वह थकी हुई-सी दिखाई दे रही थी। गले लगा कर उसने उसे अपने ड्राइंग-रूम के अंदर बैठाया। साधारण सा साफ-सुथरा ड्राइंग-रूम, हर चीज अपनी जगह पर व्यवस्थित ढंग से रखी हुई थी।
हल्की-सी मुस्कान अपने होठों पर बिखेरते हुए स्तुति कहने लगी-तुम नहीं जानती कि तुम्हारे यहां आने से मैं कितनी खुश हूं। ढेर सारी बातें मन के पिटारे में बंद हैं, जिसे मैं तुम्हारे साथ साझा करना चाहती हूं। बचपन की दोस्ती की तरह कुछ भी नहीं है। मैं आज भी तुम्हें उतना ही अपने मन के करीब पाती हूं, जितना बचपन के दिनों में। स्कूल पास करने के बाद जितने भी दोस्त बने, उनसे मैं बस औपचारिक रूप से ही जुड़ पाई। तुम्हारी तरह कोई मिला ही नहीं।
स्तुति लगातार इधर-उधर की बातें किए जा रही थी। बरखा के मन में हो रहा था कि स्तुति अपने पति को बुला कर उससे परिचय क्यों नहीं करवा रही। आज तो इतवार है, उसके पति को तो घर पर ही होना चाहिए। और अगर कहीं बाहर भी गया हुआ है, तो वह इसे कह भी तो सकती है। पर, समय जब कुछ ज्यादा ही निकल गया तो बरखा के धैर्य ने जवाब दे दिया और उसने स्कूल वाले शरारती अंदाज में कहा-अरे ! इतनी देर से अपने पति को कहां छिपा रखा है? उनसे मेरा परिचय क्यों नहीं कराती? क्या तुम्हें डर है कि मैं उन्हें लेकर कहीं भाग जाऊंगी?
स्तुति के चेहरे पर खेलती हुई स्मित रेखा सहसा समट गई। उसका सांवला चेहरा स्याह पड़ गया, जैसे चेहरे की बत्ती गुल हो गई हो। उसने चुप हो नजरें नीची कर लीं। ठीक वैसे ही, जैसे स्कूल के दिनों में किसी सहेली की बात से मन को ठेस पहुंचने पर कर लिया करती थी।
सहसा, उसने नजरें उठाई और सामने वाली दीवार की ओर देखने लगी। जब उसने अपने-आप को पहेली बनती स्थिति से जोड़ने की कोशिश की तो चौंक उठी। उसने स्तुति की आंखों से रंगहीन बूंदों को गिरते हुए देखा-हां, वे आंसू ही थे।
हां, इतनी देर से मैं तुम्हारा परिचय अपने पति से ही तो करवाने की कोशिश कर रही हूं, कहते हुए स्तुति ने बरखा का हाथ थाम कर उसे एक कांच लगी अलमारी के सामने लाकर खड़ा कर दिया। लेकिन बात कहां से शुरू करूं? समझ में नहीं आ रहा, कहते हुए स्तुति फफक कर रो पड़ी। बरखा ने जैसे ही स्तुति को बांहों में भरा, उसकी निगाहें अलमारी के अंदर रखी एक तस्वीर पर पड़ी, जिस पर माला चढ़ी हुई थी। उच्छवासों के बीच स्तुति कहने लगी-यह तस्वीर मेरे पति दिवाकर की है, जो आज से नौ साल पहले हमें अकेला छोड़ कर चले गए थे। उस समय आदित्य मेरी गोद में ही था और आकांक्षा सिर्फ तीन साल की थी।
अपने पल-पल सूख रहे होठों को वह भींच कर बोले जा रही थी-दिवाकर के जाने के बाद तो मुझे ऐसा लगा था, जैसे कि सारी दुनिया ही मेरे लिए खत्म हो गई है। जिंदगी की सारी खुशियां मुट्ठी में भरी रेत की तरह धीरे-धीरे सरक कर स्वयं समाप्त हो गई। जी में आया कि खुद को मार डालूं। पर, अपने-आपको जिंदा रखा-आदित्य और आकांक्षा के लिए, जिनके लिए दिवाकर हर पल जीया करते थे। वे बच्चों को पढ़ा-लिखा कर सफलता के शिखर पर बैठाना चाहते थे, कहते हुए स्तुति एक पल के लिए रुक सामने देखने लगी।
बरखा ने देखा-ग्यारह-बारह साल की एक बच्ची हाथ में पानी का गिलास लिए आई और बिना कुछ कहे स्तुति की ओर बढ़ा दिया। बच्ची का रंग दूध की तरह सफेद था, आंखें बड़ी-बड़ी और होंठ बिल्कुल लाल। सफेद ड्रेस और कंधे तक खुले, घुंघराले बालों में वह ऐसे दिख रही थी, जैसे डिब्बे में बंद बार्बी डॉल बाहर निकल आई हो। बच्ची चुपचाप खड़ी हो, स्तुति की आंखें पोंछने लगी। बरखा बच्ची को देख पिघल उठी। स्तुति कुछ अलग-सी आवाज बना कर इशारों के साथ बच्ची को समझाने लगी इन्हें नमस्ते करो, यही हैं बरखा आंटी जिनके बारे में मैं तुम्हें इतने दिनों से बता रही हूं और बरखा यह है मेरी गुड़िया-सी बेटी आकांक्षा।
बरखा ने भावुक होकर आकांक्षा को अपनी गोद में खींच लिया। उसके जाते ही स्तुति फिर से कहने लगी, जब आकांक्षा ने जन्म लिया तो मैं और दिवाकर दोनों बड़े खुश थे, एक प्यारी-सी बेटी को पाकर। पलंग पर जब यह सोई होती तो लगता जैसे कोई परी आसमान से उतर कर सो रही हो। हमने गौर किया किया कि दो साल बीत जाने के बाद भी न वह कुछ ढंग से बोल नहीं पाती थी और न ही दूर से आती कोई आवाज इसे आकर्षित कर पाती थी। हमारा दिल बैठने लगा। जब हमने इसे बड़े से बड़े डॉक्टरों को दिखाया तो पता चला कि हमारी गुड़िया आंशिक रूप से गूंगी और बहरी है। हम दोनों भीतर ही भीतर टूट गए। बहुत इलाज करवाने पर भी कुछ खास फायदा नहीं हुआ। उसका दाखिला सामान्य बच्चों के स्कूल में नहीं हो सका। घोर निराशा के अंधेरे में हमारा बेटा आदित्य कब अपनी मुस्कान से उजाला कर गया, कुछ पता ही नहीं चला।
पति की तस्वीर को निहारते हुए स्तुति ने फिर से कहना शुरू किया- जानती हो, दिवाकर कहते थे कि उनकी नजरों में मैं दुनिया की सबसे खूबसूरत स्त्री हूं। मैं अपने अति साधारण रंग-रूप से परिचित थी, इसलिए मुझे लगता था कि ये मुझे बहला रहे हैं। पर, उनकी आंखों में उमड़ता प्यार मुझे सचमुच ही दुनिया की सबसे सुंदर स्त्री होने का ताज पहना जाता। वे हर समय मुझे गाढ़े रंग की सलवार-सूट या साड़ी लाकर देते और मुझे पहन कर दिखलाने को कहते। पहन कर जैसे ही मैं तैयार हो आइने के सामने खड़ी होती, आईना झूठ नहीं बोल पाता और मैं रुआंसी होकर बोल पड़ती- कितनी बार कहा है कि गाढ़े रंग के कपड़े मुझ पर अच्छे नहीं दिखते, फिर इन्हें मेरे लिए क्यों लाते हो? दिवाकर झट-से मेरी आंखों में आंखें डाल कर कहते हैं कि यह आईना तो झूठा है। सच तो मेरी आंखें बयां करती हैं और सचमुच जब मैं इनकी आँखों में झांकती तो वहाँ मुझे प्यार का पारावार हिलोरे लेता हुआ दिखाई देता।
बरखा सब कुछ सुनती रही नि:शब्द। एक बार फिर से स्तुति की आंखों से वेदना की बाढ़ बह चली थी और शायद वह इसी प्रवाह को रोकने के लिए चौके में जाकर चाय-नाश्ता बनाने लगी। बरखा उठ न सकी। आवाज के साथ ही लगा कि जैसे उसके पैरों को भी लकवा मार गया हो।
सामने प्लेट में नाश्ता रख और हाथ में चाय पकड़ा कर स्तुति ने फिर से अपनी बात जारी रखी-एक दिन दिवाकर ने मूवी जाने का प्रोग्राम बनाया। मैं बच्चों के साथ तैयार हो रही थी कि वे आए और आकर कहने लगे कि तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही है। सीने में भारीपन और हल्का सा दर्द हो रहा है। मैंने इसे साधारण एसिडिटी समझा और गोलियां लाने चल दी। जब लौट कर देखा तो वे जमीन पर छटपटा रहे थे और कुछ बोल नहीं पा रहे थे। जब तक मैं इन्हें लेकर अस्पताल पहुंची तब तक ये दुनियां छोड़ चुके थे। मैं आकांक्षा के सामने खुलकर रो भी न सकी, क्योंकि वह कुछ समझ नहीं पा रही थी और आदित्य छोटा था।
दामाद के जाने के बाद मेरे पिता जी पर वज्रपात हुआ। वे प्रशासनिक सेवा अधिकारी थे। उनके पास बड़ी-बड़ी बातें बोलने का लाइसेंस था। पर, शायद उन्हें किसी ने बताया नहीं था कि उनके लाइसेंस की वैलिडिटी सामाप्त हो चुकी है। उन्हें मेरे लिए संवेदना कम और दुनिया की बातों की परवाह ज्यादा थी। उन्होंने बिना कुछ सोचे-समझे ही यह तुगलकी फरमान जारी कर दिया कि मैं शहर छोड़ कर गांव जाकर उनके साथ रहूं, जहां वे रिटायरमेंट के बाद सेटल हो गए थे। उनका मेरे साथ शहर में रहना मुश्किल था क्योंकि उन्हें गांव में ढेर सारे नौकर-चाकरों के बीच रहने की आदत पड़ गई थी और उनके बीच रहना उनका फेवरिट पासटाइम बन गया था। शहर की चमक-दमक से बच्चों को दूर रखने का मतलब था-उनके भविष्य को अंधकारमय बनाना। मुंबई में रहने वाला मेरा छोटा भाई भी यह उड़ती खबर छोड़ गया था कि यदि मैं चाहूं तो आदित्य को उसके पास पढ़ने के लिए भेज सकती हूँ। पर, कई कारणों से मैं आश्वस्त न हो सकी। भला मैं अपने जिगर के टुकडेÞ से अलग कैसे रह सकती थी। दिवाकर के जाने के बाद यही दोनों बच्चें मेरी दोनों आंखें थे।
ससुराल में मेरी सास ने मुझे ही दिवाकर की मौत का जिम्मेदार ठहराया और मुझसे संबंध-विच्छेद कर लिया। शायद उनकी नजरों में मैं एक डायन थी और उन्हें यह डर था कि मैं उनके दूसरे बेटों को भी निगल जाऊंगी।
काफी दिनों तक मेरे और मेरे पिता जी के बीच वाद-विवाद चलता रहा। मैं अकेली समय के झंझावात से जूझती रही और अंत में अपना मन पक्का कर लिया कि मैं अपने पति के आॅफिस में अनुकंपा के आधार पर नौकरी करूंगी। जहां मैं अपने पति के आॅफिस में बड़े अफसर की पत्मी के रूप में इज्जत पाती थी, वहीं अब एक सामान्य-सी विधवा क्लर्क के रूप में नौकरी करने लगी। शुरुआत में जिन अफसरों ने मेरे पति के साथ काम किया था वे सब मुझे कलिग की पत्नी के रूप में इज्जत दिया करते थे। पर, जैसे-जैसे समय बीतता गया मैं एक असहाय विधवा क्लर्क ज्यादा बनती चली गई।
मैंने यह भी गौर किया कि लोग मेरे वैैधव्य से सहानुभूति के नाम पर मेरा तमाशाा देखते हैं। फिर मैंने अपने टूटे हुए व्यक्तित्व के एक-एक टुकड़े को जोड़ना शुरू किया। जिन गाढ़े रंग के कपड़ों को मैं दिवाकर के रहते पहनने से बचती रही, वहीं गाढ़े रंग के कपड़ें मुझे उनके जाने के बाद बचाते रहे। जिस दिन भी मैं सफेद साड़ी पहन, लाचार बन आॅफिस गई, लोगों को मेरा वैधव्य बहुत पसंद आया।
स्तुति की आंखों की नमी अब सूख चुकी थी और उनमें अब रोष नजर आ रहा था। उन आंखों को देख बरखा को राहत मिली और उसने जाने को इजाजत मांग ली। ड्राइविंग सीट पर बैठ कार ड्राइव करते हुए बरखा रास्ते भर यही सोचती रही- इतनी कम उम्र में स्तुति ने कैसे वह सब सहा होगा? वह लड़की जो स्कूल की छुट्टी की भीड़ से घबरा कर दुबक जाया करती थी, उसने दुनिया की भीड़ का अकेले कैसे सामना किया होगा? स्कूल में कभी किसी से नहीं लड़ने वाली लड़की ने कैसे अपने और अपने बच्चों के हक के लिए लड़ाई की होगी?
समय पंख लगा कर उड़ा जा रहा था। स्तुति ने बेटे को स्कूल बस से भेजना शुरू कर दिया था। स्तुति और बरखा में अब बहुत कम मुलाकातें होने लगीं थीं। एकाएक बरखा के पति का तबादला किसी दूसरे शहर में हो गया और बरखा ने अपने बेटे और पति के साथ दूसरे शहर में आकर गृहस्थी संभाल ली। शुरू-शुरू में तो मोबाइल फोन पर अक्सर बातें हो जाया करतीं थीं। पर, धीरे-धीरे यह अंतराल बढ़ने लगा और एक समय ऐसा भी आया कि जब अपने-अपने बच्चों के लिए देखे गए सपनों को आकार देते-देते दोस्ती एक बार फिर से यादों की सिलवटों में समा गई ।
बरसों बीत गए थे। स्तुति और उसके बच्चों की छवि अब बरखा के दिमाग से उतर चुकी थी कि एक दिन मैले-कुचैले एक लिफाफे ने उन सबको ताजा कर दिया। हुआ यह कि जब बरखा शॉपिंग कर अपने घर लौटीं तो हल्की-सी बूंदा-बांदी शुरू हो हो चुकी थी। सहसा उसकी नजर कीचड़ से बने अजनबी जूतों की छाप पर पड़ी, जो लेटर-बॉक्स के पास जाकर खत्म हो गए थे। वह समझ गई कि कोई चिठ्ठी आई है। लिफाफे को बाहर निकाल कर भेजने वाले का नाम पढ़ने लगी। खुशी से दिल झूम उठा भेजने वाले का नाम था- स्तुति, और चिठ्ठी में लिखा था- प्यारी बरखा मैं जानती हूँ कि तुम सपरिवार ठीक होगी। हम दोनों अपने-अपने परिवार की जिम्मदोरियां निभाने में व्यस्त थे। पर, जब दिवाकर के जाने के बरसों बाद इतनी बड़ी खुशी मिली तो दिल ने सबसे पहले तुम्हें याद किया। क्योंकि मेरे लिए अपना का तुम ही पर्याय हो। दिवाकर के जाने के बाद मेरी जिंदगी एक सुरंग बन कर रह गई थी जिसमें सिर्फ चलना होता था- अथक। जहां थक जाती थी, वहीं रात मान लेती। पर, इस राम की कमी सुबह नहीं होती थी, चारों ओर अंधेरा, सन्नाटा…।
मैं बुढ़ापे की ओर बढ़ने लगी थी और बच्चे जवानी की ओर। आदित्य ने तो अपनी तेज बुद्धि, मेहनत और लगन के चलते इंजीनियरिंग में दाखिला ले लिया और अब वह कुछ महीनों में इंजीनियर भी बन जाएगा। पर, आकांक्षा के लिए मैं हर पल चिंतित रहती थी कि मेरे बाद उसका क्या होगा। मेरे आॅफिस में ही एक कम उम्र के इंजीनियर लड़के ने ज्वाइन किया था-बड़ा नम्र और मृदुभाषी। पता नहीं क्यों वह मुझसे हमदर्दी करता। जहां भी मैं अटकती, वह झट से उसका हल ढूंढ लेता। आॅफिस के कामों के साथ ही वह घर की समस्याओं को भी सुलझाता। मैं उससे बड़ी प्र•ाावित थी। उसके माता-पिता दूसरे शहर में रहते थे।
एक दिन मैंने उसे खाने के लिए अपने घर पर बुलाया। उसके बाद वह अक्सर हमारे घर आने लगा। आकांक्षा भी उससे मिल कर खुश होती थी। एक दिन उसका कॉल मेरे मोबाइल पर आया और वह फार्मल बातें करने के बाद थोड़ा हकलाते हुए बोलने लगा-आंटी मैं आपकी आकांक्षा को पसंद करने लगा हूँ। मेरा विश्वास कीजिए, मुझे किसी लड़की की खनकती आवाज ने उतना आकर्षित नहीं किया जितना कि आकांक्षा के मौन ने। भले ही आपकी आकांक्षा में आपके डाले गए संस्कार बोलते नहीं हैं, पर दिखते जरूर हैं। वह जैसे इशारों से बातें करती है, मैं उन इशारों को समझना चाहता हूँ और तमाम उम्र उसके ही इशारों पर चलना चाहता हूं। एक बात का विश्वास कीजिए, मेरा प्यार इनफैचुएशन नहीं है। आकांक्षा के साथ खुश रहने के लिए आप का आशीर्वाद चाहिए। अपना आशीर्वाद जरूर दीजिएगा, और उसने फोन बंद कर दिया। बरखा, मैं बता नहीं सकती कि चंद लम्हों में हुई इन बातों ने मेरे दिल पर से कितना बड़ा बोझ उतार दिया। मुझे एहसास हुआ कि मेरी जिंदगी की सुरंग में आज पहली बार सुबह हुई है और मैं उगता हुआ सूरज देख रही हूं।
चिठ्ठी पढ़ते-पढ़ते सहसा बरखा की आंखें नम हो गईं और आंखों से दो बूंद गालों पर ठहर गईं-जैसे बारिश की बूंद आ ठहरी हो।
उसने लेटर बॉक्स से लिफाफे को निकाला। भेजने वाले का नाम था-स्तुति। आगे क्या लिखा था उसमें?