डॉ. पूनम मानकर पिसे II
प्राकृतिक मिठास एवं सभी पदार्थों का मूलभूत स्वाद बरकरार रखने के लिए किसी भी पकवान में ‘चीनी कम’ होना लाजमी है। “चीनी कम” अनीता कुमार जी द्वारा बचपन से प्रौढ़ावस्था तक के जीवन में बदलते मनोभावों को कविता में गूंथने की सफल कोशिश है। यह उनका पहला काव्य-संग्रह है जो कविताओं के स्तर को देखते हुए बहुत परिपक्व और समीचीन लगता है।
जब अनीता कुमार जी से मेरा परिचय हुआ तो यह एक ऐसा रिश्ता बना जो उनके शब्दों, कलात्मक पोस्टों, सूखे फूलों, पत्थरों को रंगने, सजाने के हुनर, फोटोग्राफी, कविता पाठ के मनभावन अंदाज आदि से गहराता चला गया। उनके व्यक्तित्व के बारे में जैसा सोचा था चीनी कम की कविताओं में हूबहू वैसा ही नजर आया।
भूमिका में लिखे शब्द लेखिका की साफगोई एवं प्रामाणिकता का परिचायक हैं जिनकी इस संग्रह को पढ़ते हुए पुष्टि होती है। संग्रह में शामिल उनसठ कविताएँ साठ होने की हड़बड़ी में बिल्कुल नहीं है। कवियित्री ने इस पुस्तक में जीवन के रंग बिरंगे फूलों का एक खूबसूरत गुलदस्ता सजा दिया है। जो भी है बिना प्रयास है और सहज है। भूमिका में कवियित्री ने लिखा है – “मेरे लिए कविता लिखना दिनभर की कड़ी मेहनत और भागदौड़ के बाद, ठंडी खुली हवा में किसी हरे हरे पेड़ के नीचे बैठकर प्राणायाम करने जैसा है।” यही कारण है कि संग्रह की कविताएं मध्यमवर्गीय स्त्री की दिनचर्या में उसकी परेशानियाँ, व्यथाएँ, सपने और प्रकृति के सानिध्य में बीतते सुकून के पलों को खूबसूरती से रेखांकित करती हैं।
कविताओं में मासूमियत और अल्हड़पन जितना खिलखिलाता है उतनी ही संजीदगी, गंभीरता, उदासी, खींझ, मन का थाह पाने की जद्दोजहद भी है। स्री मनोभावों के अनगिनत रंग कवियित्री प्रकृति के संग साझा करती है। संग्रह की यात्रा प्रकृति का निजता बोध भी है जो मन के किवाड़ खोल कर शांति और समन्वय की ओर ले जाने की यात्रा जैसा है।
स्री के मनोभावों को किसी विमर्श से इतर संतुलित रूप में दर्ज करने की कोशिश है ‘चीनी कम’। दर्द, वेदनाएँ, खीझ, झुंझलाहट कहीं भी आक्रोश में तब्दील हुए बिना, बेआवाज़ कागज पर दर्ज हो जाती है, जो कर पाना कतई आसान नहीं रहा होगा। कुछ कविताएँ स्री मन की छटपटाहट लिए मन के समानांतर चलती रहती है, मानो शब्दों से आहत मन की थाह लेने की कोशिश हैं।
बेटी अवंतिका द्वारा बनाए गए नीलाभ मुखपृष्ठ पर सफेद झक ‘चीनी कम’ शीर्षक, आकाश में खिले बिजली के फूल सा आभास देता है।
अब आइए देखते हैं चीनी कम संग्रह की कविताओं में छिपे सूक्त वाक्यों को। ये वाक्य इस संग्रह को भीड़ से अलग कर देते हैं।
इस समाज में /स्री की मिठास ही /हर परेशानी का मूल है।
आटा गूंथती है स्री – मन, मस्तिष्क और उंगलियों के /कार्य कौशल के बीच चल रहे/ निरंतर मंथन से/ स्री तैयार कर लेती है /नरम मुलायम आटा/कोई नहीं जानता/ स्रियाँ आटे के साथ/ रोज अपनी आत्मा भी गूंथती है।
कुछ सौगातें स्री को पीढ़ी दर पीढ़ी विरासत में मिलती है। इन विरासतों को सम्हालने में कड़ी मशक्कत करती स्री से ही हर घर रौशन है, इस बात को रेखांकित करना चाहती है कविता अनमोल सौगातें – सेवई की लड़ियाँ! /आम, नींबू और आँवले के अचार!/भारतीय स्त्रियों के रसोई घर की/ ये अनमोल सौगाते हैं आभूषण सरीखी! /जिनको स्री गढ़ती है/अपनी पसीने की गाढ़ी कमाई से!
स्री की दिनचर्या में जीवन के अनमोल सूत्र गाँठ बँधाती कुछ कविताएं अप्रतिम है। स्री की सुबह – सच तो यह है/इस पृथ्वी पर स्त्रियों के जागने पर ही/ होता है सूर्योदय। कपड़े सूखते हैं – कड़कड़ाती धूप में चमक उठते हैं/ झक सफेद कपड़े/ स्री के दुख की तरह। बचा रहे स्वाद – स्री को मालूम है /तपने, झुलसने के बाद ही/ आता है जीवन में स्वाद/ मंगोड़ी की तरह। वह लगा देती है रिश्तों की कढ़ाई में/ प्रेम का छौंक! /मंगौड़ी के सौंधेपन में/ घुल जाता है उसके आंसुओं का नमक। मेरी रात – रात/ मेरी उदास आंखों में भर देती है /अपना सुरमई काजल, /बड़े प्यार से मेरे चिबुक पर लगा देती है दिठौना/ लेती है बलैयाँ/ ओढ़ा कर अपना आबनूसी आँचल। प्रतीक्षारत दिया – रात को जल्दी है जाने की/ समेट रही है अपनी काली चादर/ दीये की आंखों में/ उतर आया है गहरा काजल/ भोर होने तक।
कुछ कविताएं अल्हड़ बच्चियों सी फुदकती, किशोरियों सी खिलखिलाती, जीवन के सबसे खुशनुमा वक़्त को समेटे हुए हैं। आशा और उम्मीद के झूले पर पेंगे भरती, प्रकृति का आनंद उठातीं अपनी ही धुन में मगन। झूला – अबोध बच्चियों-सी उत्सुकता लिए/ बाहर झाँकती हैं उसकी दो चोटियाँ/ जिनमें गुंथी हैं/ आशाओं और कामनाओं की सुगंधित कलियाँ। सारा आकाश मेरा है – झूठी दिलासाओं और लालसाओं के/ निरर्थक बोझसे स्वयं को मुक्त कर/ फूल सी हो गई है लड़की/ नई भोर की किरणें आतुर थीं/ उसे गले लगाने को /उसने देखा/ घुल रहा है आकाश में/ उसके ही गालों का गुलाबी रंग। एक झलक – रोज सुबह की सैर पर/ मेरी बेचैन निगाहें ढूँढ़ने लगतीं है/ उस गुल-पनाग सरीखी/ लड़की को /जो घर से निकलते वक्त़/ बड़ी पोशीदगी से/ अपनी उलझनों को इकट्ठा करके/ गूँथ लेती थी कस कर चोटी में। जूड़े का रहस्य – रिश्तो के खिंचाव की तरह/ अब खुशबू को परे हटाते हुए/ लटें बेवजह आपस में उलझ जाती थी।/लड़की ने चतुराई से /छिपा दिया है उलझनों/ हताशा और बेबसी को /अपने जूड़े के पीछे।
स्री के सौदर्य को निखारते आभूषणों का स्री मन के अनकहे दर्द को चितेरने में प्रतीकों के रूप में प्रयोग, कविताओं को अलग ऊँचाइयाँ प्रदान करता है। यहाँ घुटते हुए दर्द को बेबाकी से आवाज़ देने का अलग अंदाज़ नजर आता है। चूड़ियों के रंग – नन्ही मुनिया मचल-मचल जाती थी/ रंग- बिरंगी चूड़ियाँ देखकर/ वही टूटी चूड़ियाँ/ आज उसकी सुंदर कलाई पर/ गहरे जख्म छोड़ने लगी थी/ परंपराओं और कर्तव्यों की/ डोरी से बँधी हुई/ जिम्मेदारियों का बोझ सिर पर लादे -लादे/ मुनिया आज भी गोल-गोल घूम रही है/ चूड़ियों के गोल घेरे में। मंगलसूत्र – अल्हड़ लड़की को/ अनेक अनुष्ठानों और आशीर्वचनों के बीच/ पहना दिया गया मंगलसूत्र/ एक दिन थक कर चूर होते हुए/ वह बुदबुदाई../कितने निरर्थक थे वे/ आशीर्वचन और प्रशंसाएँ/ काश!मंगलसूत्र में / मेरा भी मंगल निहित होता। विवशता – अपने गले पर हाथ फिराते हुए/ उसे महसूस हुआ कि चुभ रहा है/ गले में पड़ा यह मंगलसूत्र /इसे मैं कैसे उतारूँ/ मैं नहीं जानती /यह जीवन का पर्याय है/ या मृत्यु का?
जीवन के अनगिनत रंगों में भी प्रकृति के रंग सबसे अधिक मनमोहक होते हैं। इनके बिना तो जीवन का इंद्रधनुष अधूरा है। लेखिका ने इस इंद्रधनुष को अपनी कविताओं में मनभावन रूप में सजाया है। सहज भाषा में प्रकृति का मानवीकरण संग्रह का सबसे सशक्त एवं सुंदर पक्ष है। उदयाचल से चढ़ते क्रम में अस्ताचल की ओर बढ़ते सूरज के मनमोहक रूप विविध शीर्षकों के अंतर्गत देखने को मिलते हैं। सूर्य स्पर्शा 1, सूर्य स्पर्शा 2 में सूरज का गुनगुना एहसास है। हठी सूरज – धूप के ये चंचल छौने /मेरी बंद हथेलियों के बीच झाँकते हैं आर -पार / खेलने लगते हैं लुका छिपी का खेल/ मेरे गालों और कानों को छूते हुए!/शायद सूरज से नहीं देखी जा रही/ मेरी उदासी/ दरख़्तों की ओट से /चोरी छिपे उसी ने भेजा है/अपने इन नन्हे शावकों को। धूप सहेली – अचार, मसाले और मुरब्बे/ सीले कपड़े,/रजाई, कंबल/ सभी की जमती है चौपाल धूप संग/ अपनी सहेली के साथ तपते और जलते हुए ही/ मैंने पाया है खिताब/ कुशल गृहिणी होने का!
सूरज के साथ-साथ हवा, बादल, बारिश सभी संगी-साथी बन कविताओं में रंग भरते हैं। रंग और निखरते जाते हैं..फूलों के साथ महकते रहते हैं..कविता भी महकती है…एहसासों को महकाते हुए। गुलाबी कनेर – झर जाते हैं हँसते हुए/ गुलाबी कनेर के फूल/ मुरझाई उदास घास पर/ मेरे शब्दों में घुलने लगा है/ कनेर के फूलों का गुलाबी रंग/ खिलखिला उठती है मेरी उदास कविता! पिघलती चांदनी – बहुत दूर चाँद /व्यस्त है अपने किसी/ नवोन्मेषी मिशन में/ सिखा रहा है नटखट तारों को/ बाल गीत और कविताएँ।
जीवन की दुश्वारियों के बीच प्रकृति की गुदगुदी से मुस्कुरा उठता है जीवन। अनीता जी की कविताओं का विन्यास उपमाओं की अलग दुनिया में ले जाता है। दुपट्टे की उदासी – तुम्हारी हँसी सुन कर/ सुबह-सुबह खिल जाती थी पीली धूप/ और मेरे दुपट्टे पर बिखर जाते थे सरसों के फूल/ तुम से लिपट कर /मेरा दुपट्टा हो जाता था सुर्ख लाल! फूल यूं ही तो नहीं दे जाते खुशियाँ – संदल सी महक लिए/ जंगली फूल/ आज भी मुस्कुरा रहे हैं/ कँटीली झाड़ियों से घिरे हुए! वह हो गई थी बावरी – हवाओं में घुली है/ पहाड़ी दरख़्तों की गंध/ बुरांश के लाल चटख़ फूलों ने/ अपनी मादकता में/ लपेट रखा है पर्वतों को/ सड़कें निखर कर हो गई है और भी साँवली! और फिर बदल गया मौसम – उसने अंजुरी में भरे उन फूलों का /कर दिया नदी के जल में तर्पण/ नदी मुस्कुराई/ और फूल/ तितली बन गए /उसने महसूस किया /फूलों की अनूठी महक /अब भी मौजूद है/ उसकी हथेलियों में!
बदलते मौसमों के बीच मानवीय सभ्यता और आधुनिकता के बदलते पैमानों पर पर्यावरण के प्रति चिंतन भी कविताओं में उभर कर आता है, त्रिहरि से टिहरी तक – कैसा होगा हमारे पर्यावरण का भविष्य! /मैं नहीं जानती/ इस निर्जन सभ्यता का /क्या होगा अंत! छोटे छोटे अवसाद, निराशा और हताशाओं के बीच भी, कविताएँ प्रेम की संभावनाएँ तलाश ही लेती है.. स्वीकारोक्ति – मैं प्रेम को खोजती नहीं/ प्रेम को जीती हूँ।
कुल मिलाकर लेखिका के शब्द एक अलग वर्णमाला को रचते हुए अपनी अलग भाषा में पहचान बनाते हैं। वर्णमाला – यह स्पष्ट है/ जब जब घुल जाती है कलम की स्याही में/ तुम्हारी प्रेम संवेदनाएँ/ तो स्वयं सरस्वती की वीणा से/ प्रस्फुटित होती है अलौकिक रागिनी!
सधी हुई कलम और भाषा माधुर्य से यह बिल्कुल प्रतीत नहीं होता की लेखिका का यह पहला कविता संग्रह है। मेरी दृष्टि में अनीता कुमार इस समय की सबसे मौलिक कवियित्री हैं। संग्रह निश्चित ही संग्रहणीय है।
काव्यसंग्रह: चीनी कम
कवयित्री: अनीता कुमार
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