कविता काव्य कौमुदी

अबकी बार जो मिलोगे

सांत्वना श्रीकान्त II

मेरी भाषा अलग है
तुम्हारी भाषा अलग है,
जम्मू से आती हुई
गद्दी जनजातियों की चीखें
लद्दाख की मूक बर्फ से
ढकी पहाड़ियों को चीरती
आदिवासियों की पीर
दोनों ने ही महसूस किया है,
असम में नागरिकता
न मिलने का दुख
दोनों भाषाओं में
एक जैसा ही होता है।
राजस्थान के एकाकी मरुस्थल
पीठ टिकाए है जैसे अरावली पर
ठीक वैसे ही मैं-
तुम्हारे कंधे पर सिर टिकाए
भूल जाना चाहती हूं
बंजर धरती का दर्द।
कच्छ के सुर्ख सफेद रेगिस्तान की पीड़ा
मुझसे होकर तुम तक
भी तो जाती है,
जैसे उल्का पिंड से जन्मा है
सोनार लेक,
वैसे ही जन्मना चाहती हूं मानवता को
तुम्हारे आलिंगन से,
सुंदरवन के मैंग्रोव्स जैसे
जन्मते हैं सजीव प्रजक
वैसे ही नवजात को
जन्म देना चाहती हूं
जो दुनिया के दलदल में भी
बचा पाए अपना अस्तित्व।
पश्चिमी तट सुंदरता ओढ़े
भूस्खलन की अनिश्चितता में,
नीलकुरिंजी की प्रतीक्षा में,
देखो मुन्नार को पर्वत
जितनी गहरी ताक लगाए हैं
वैसे ही तुम मेरी
प्रतीक्षा कर रहे होगे,
तुम्हारी कामनाओं को लेकर
मैं इच्छामती नदी की तरह
बहती हुई आऊंगी
अबकी बार जो मिलोगे
तुम अरब सागर का
सारा नीलापन मेरे माथे पर मलना
और मैं सोख लूंगी
तुम्हारी उदासियों का खारापन।

About the author

santwana

सशक्त नारी चेतना के स्वर अपनी कविताओं में मुखरित करने वाली डाॅ सांत्वना श्रीकांत का जन्म जून1990 में म.प्र. में हुआ है।सांत्वना श्रीकांत पेशे से एक दंत चिकित्सक हैं। इनका प्रथम काव्य-संग्रह 'स्त्री का पुरुषार्थ' नारी सामर्थ्य का क्रान्तिघोष है।

इनकी कविताएँ प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं- गगनांचल, दैनिक भास्कर,जनसत्ता आदि में प्रकाशित होती रहती हैं।

साथ ही वे ashrutpurva.com जो कि साहित्य एवं जीवनकौशल से जुड़े विषयों को एक रचनात्मक मंच प्रदान करता है, की संस्थापिका एवं संचालिका हैं।

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