व्यंग्य (गद्य/पद्य) हास्य-व्यंग्य

कवि की स्वर्ग से वापसी

राजेश्वर वशिष्ठ II

अस्पताल फाइव स्टार था। प्राइवेट रूम मिला, जहाँ सभी सुविधाएँ थीं पर मरीज के निकट केवल कुछ नर्सें या सहायक स्तर के लोग ही आते थे। घंटी बजा कर बुलाने की सेवा निरस्त की हुई थी। डॉक्टर वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए ही मरीज को डाइग्नोज़ करने की रस्म अदायगी कर रहे थे। फिर भी यहाँ घर से बेहतर सुविधाएँ थीं, ऑक्सीजन उपलब्ध थी, वेंटीलेटर थे और ड्रिप के ज़रिये कुछ दवाएँ भी दी जा रही थीं। सबसे बड़ी बात यह कि मेरे यहाँ होने से परिवार के लिए दोहरी आश्वस्ति थी – एक, कि मैं मरने से बच जाऊँगा, दूसरा मेरी वजह से यह बीमारी किसी अन्य परिवार जन को नहीं लगेगी। 

मेरे फेफड़ों का एक्सरे कह रहा था कि वहाँ वायरस का व्यापक हमला हुआ है और दी जा रही दवाएँ उस संक्रमण को ठीक करने का प्रयास कर रही हैं। वैसे तो अस्पताल में आने के बाद मरीज़ों की सेहत में सुधार होता है पर मेरी हालत धीरे-धीरे बिगड़ रही थी। साँस लेने में दिक्कत बढ़ रही थी और चेतना का स्तर गिरता जा रहा था। तीसरे दिन जब मेरे सामने लगी टीवी स्क्रीन पर मेरे बेटे का चेहरा उभरा और उसने पूछा – अब कैसा लग रहा है पापा, तो मैंने सिर्फ गर्दन हिलाई, मुझ में बोलने की शक्ति नहीं थी। 

पता नहीं रात के कितने बजे थे, आभास हुआ कि मुझे स्ट्रेचर पर लिटा कर फिर से अस्पताल की उस बड़ी सी जेल-नुमा वैन से कहीं ले जाया जा रहा है जो मुझे घर से अस्पताल लेकर आई थी। वैन चलती जा रही थी, रास्ता सुरम्य और सुरभित था, मुझे लग रहा था कि अब मैं ठीक से साँस ले पा रहा हूँ। अचानक एक कल-कल बहते झरने के पास ड्राइवर ने वैन को रोका और दरवाज़ा खोल कर मुझे वैन से उतरने के लिए कहा। मैंने हाथ जोड़ कर निवेदन किया – भाई मैं कोरोना महामारी का मरीज़ हूँ, अशक्त हूँ, तुम आनंद-पूर्वक स्नान कर आओ, चाहो तो मुझे बाद में स्पॉन्ज कर देना। ड्राइवर ने मुझे हाथ पकड़ कर वैन से नीचे उतारते हुए कहा – कवि, तुम्हारा बीमार शरीर तो अस्पताल में ही पड़ा हुआ है, तुम्हारी मृत्यु हो चुकी है और मैं तुम्हें स्वर्ग की ओर ले जा रहा हूँ। स्नान कर लो वरना वहाँ रिसेप्शन पर तैनात अप्सराएँ बहुत बेरुखी से पेश आएंगी। कई बार धर्मराज के यहाँ से मृतक का डॉज़ियर आने में घंटों लग जाते हैं। स्वर्ग ले जाने का यह अर्थ मत लो कि तुम्हें स्वर्ग में कोई रूम एलॉट हो चुका है, यह तो नरक के रास्ते में पहला जाँच स्थल है।

मुझे मरने का कोई खास दुख नहीं था क्योंकि कई महीनों से बरतन माँजने और अन्य घरेलू काम-काज करते-करते, मैं एक लेखक से मामूली ‘मेहरा (मेहरी का पुल्लिंग)’ बन गया था। पत्नी बरतनों पर छूटे धब्बे उसी कटुता के साथ मुझे भी दिखाने लगी थी जैसे वह अन्य मेहरियों को दिखाती थी। जब लेखन का मूड़ बनता तो उसी समय बर्तनों से भरे दो-दो सिंक, मुझे मुँह चिढ़ाने लगते। किसी तरह से लिखी गई, इक्की-दुक्की कविताओं में भी अब यही रुदन हावी था। ऐसे में जीवन के प्रति मोह का तो कोई कारण ही नहीं था। 

जब हम स्वर्ग पहुँचे तो दृश्य मनोहारी था। लगभग मैसूर के किले जैसा विशाल और भव्य भवन, बड़े-बड़े उद्यान, पक्षियों का कलरव और कई छोटी-छोटी पुष्करणियाँ थीं जिनमें कमल के फूल खिले थे। मुख्य भवन के स्वागत-कक्ष में अनेक एक-वस्त्रा परिचारिकाएँ थीं, जिन्हें देख कर मुझे राम तेरी गंगा मैली की नायिका मंदाकिनी का स्मरण हुआ। 

एक सुकन्या मेरे निकट भी आई जिसने अपने आई-पैड पर मेरी शक्ल का मिलान किया और मुझे एक आराम-दाई सोफे पर बिठाकर ठीक मेरे सामने बैठ गई। उस क्षण में मुझ जैसे व्यक्ति के सामने भी शब्दों का अकाल पड़ गया, शब्द मिले तो वाक्य नहीं बन पा रहा था। सुकन्या ने मुस्कराते हुए कहा – कवियों की वाक्य रचना अटपटी ही होती है, लजाइये मत, मन को खोलिए। 

मैं फिर भी शब्दों से कुछ नहीं कह पाया, जो आँखों से कह रहा था, उसे वह समझ नहीं रही थी। 

‘मेरा नाम सुकर्णा है।‘ उसने थोड़ा निकट आते हुए कहा।

‘सुकर्णा?’ मैंने चौंकते हुए कहा।

‘क्यों? अगर कोई स्त्री सुनेत्रा हो सकती है तो कोई अन्य स्त्री सुकर्णा क्यों नहीं हो सकती?’ उसने तीखी नज़रों से मुझे देखते हुए कहा। 

‘हो सकती है… हमारी पृथ्वी पर स्त्री के झुमकों की तारीफ तो होती है, मगर कानों पर कोई ध्यान नहीं देता, शायद इसलिए हम किसी स्त्री को सुकर्णा नहीं कहते।‘ मैंने कुछ खिसियाते हुए कहा। 

उस सुकन्या की भंगिमाओं को देख कर मुझे आभास हो रहा था कि अब इंद्र वैसी अप्सराएँ भर्ती नहीं करता जैसी मेनका या उर्वशी के ज़माने में होती थीं। नई तकनीकों के उपयोग ने उनका सलिल स्त्रीत्व छीन लिया है। सुकर्णा के पास सारी सूचनाएँ हैं, यहाँ तक कि वह मेरी सुनेत्रा के विषय में भी जानती है।

सुकर्णा ने साड़ी के पल्लू को, लहराने के लिए हवा के हवाले करते हुए, मेरी आँखों में देखते हुए कहा – 

‘कोई बात नहीं, अब तुम धरती से बहुत दूर हो, कवि हो, जीवन भर प्रेम की भूख से व्यथित रहे हो, किंतु अब मैं सिर्फ तुम्हारी हूँ। मुझ पर कोई प्रेम कविता लिखो न!’ 

विचित्र स्थिति थी, भले ही मैं मर चुका था पर मुझे सुकर्णा का, सुनेत्रा पर कटाक्ष अच्छा नहीं लगा। मैंने जीवन में प्रेम के आग्रह पर कभी प्रेम नहीं किया। कविता लिखने के निवेदन पर कभी कविता नहीं लिखी। मेरे लिए प्रेम कभी मात्र शरीर की क्रिया रहा ही नहीं, मन नहीं जुड़ा तो शरीर भी नहीं जुड़ा। 

सुकर्णा के चेहरे पर आते-जाते भावों से लग रहा था कि उसके पास दैवी शक्ति थी, और वह मेरे मस्तिष्क को महाभारत के संजय की तरह देख रही थी। 

‘कवि, क्या तुम्हें स्वर्ग में रहने की वांछा नहीं है?’ 

वह मेरी कान के पास आकर फुसफुसाई। उसकी गर्म साँस मेरे चेहरे को तपा रही थी। 

‘तुम्हारा विस्तृत डोज़ियर मेरे आई-पैड में है। मुझे मालूम है तुम अपनी सभी कविताएँ किसी ‘सुनेत्रा’ को समर्पित करते हो। सुनो, मुझे उस स्त्री से ईर्ष्या होती है इसलिए महाराज इंद्र की संस्तुति पर, धर्मराज से विशेष अनुमति लेकर मैंने तुम्हें यहाँ बुलाया है। ठीक से आँखें खोल कर देखो, मैं सर्वांग सुंदर हूँ, अनेक कलाओं में प्रवीण हूँ। नृत्य जानती हूँ, संगीत विशारद हूँ और ऐंद्रजालिक भी हूँ। बस, अब तुम मुझसे प्रेम करो।‘ वह कहे जा रही थी।

मैंने अनुभव किया कि स्वर्ग मेरे रहने के लायक नहीं है। मेरे लिए प्रेम चाहे स्वतंत्रता का प्रतीक न हो पर वह स्वेच्छा से है, मन और शरीर की एक घनीभूत क्रिया है। इन परिस्थितियों में सुकर्णा से बचने के लिए मुझे नरक स्वीकार कर लेना चाहिए।

‘क्षमा करें देवी, मेरे लिए प्रेम सदा एक दैवी प्रसाद की तरह रहा है। स्वर्ग में चूँकि सभी देव हैं, संभव है आप मेरी इस भावना को समझ न पाएँ। आप मुझे सहर्ष नरक में भेज सकती हैं। मैं यहाँ मुक्ति के लिए आया हूँ, किसी बाध्यकारी सहवास के लिए नहीं।‘ मैंने दृढ़ता से अपनी बात कह डाली। 

सुकर्णा की बेचैनी और खीझ, धरती की किसी उस आई. ए. एस. अधिकारी जैसी थी, जिससे किसी आई. पी. एस. अधिकारी ने विवाह करने से मना कर दिया हो। वह लगभग दस मिनटों तक ऊँची आवाज़ में किसी से फोन पर बात करती रही। फिर खुद को संयत करते हुए मेरे पास आई। 

‘तुम सुनेत्रा से प्रेम करते हो, करो… मैं तुम्हें मुक्त करती हूँ। धरती पर इतने ज़िद्दी पुरुष भी रहते हैं जो किसी अप्सरा का भी तिरस्कार कर सकते हैं, मुझे अनुमान नहीं था। मुझे स्वीकार करना होगा कि सुनेत्रा भाग्यवान है।‘ उसने आवेश में भर कर कहा।

‘लेकिन मैं तो मर चुका हूँ… अब धरती पर कैसे लौट सकता हूँ?’ मैंने शालीनता पूर्वक निवेदन किया।

‘तुम्हारा शरीर अभी तक अस्पताल में ही है। नर्स कई घंटे से कुर्सी पर बैठे-बैठे सो रही है, मैं तुम्हें अभी तुम्हारे बेड पर पहुंचवाती हूँ। अभी तुम्हारे जीवन में कुछ वर्षों का समय है, जी लो, खूब कविताएँ लिखो सुनेत्रा के लिए। जब सामने कोई अति अव्यावहारिक पुरुष हो, एक स्त्री को दूसरी स्त्री से ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए, मैं समझ गई हूँ।‘

वैन चल रही है। मैं किसी बीमार मरीज की तरह चैन से लेटा हूँ। 

आज बहुत राहत है। डॉक्टर का संदेश है कि फेफड़ों का संक्रमण ठीक हो रहा है। कोरोना की ताज़ा रिपोर्ट भी निगेटिव आ गई है। कल मुझे अस्पताल से रिहा किया जा सकता है।

About the author

राजेश्वर वशिष्ठ

श्री राजेश्वर वशिष्ठ जी आकाशवाणी मे उद्घोषक के पद पर कार्य के बाद,सार्वजनिक क्षेत्र के एक बैंक से कार्यपालक के रूप मे सेवानिवृत । फिलहाल गुरुग्राम में रहते हुए स्वतंत्र लेखन। ‘मुट्ठी भर लड़ाई’(उपन्यास ), कविता देशान्तर-कनाडा(कविताओं का अनुवाद ), ‘सोनागाछी की मुस्कान’ (कविता संग्रह), ‘अगस्त्य के महानायक श्री राम’ (चरित्र काव्य), याज्ञसेनी:द्रौपदी की आत्मकथा (उपन्यास ), प्रेम का पंचतंत्र (लव नोट्स) के रूप मे अपना महती योगदान देने वाले श्री वशिष्ठ जी को सुनो वाल्मीकि के लिए ‘हरियाणा साहित्य अकादमी का श्रेष्ट काव्य संग्रह’ सम्मान-2015 एवं सलिला साहित्यरत्न सम्मान 2016, ऑरा साहित्य रत्न सम्मान 2018 प्राप्त हो चुकें हैं।

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