कविता काव्य कौमुदी

मधुवन

शिलाएँ मौन रहती हैं किंतु हवाएँ सच बोलती हैं
तुम्हारी अनुपस्थिति में भी मातृ प्रेम का रस घोलती हैं
विश्वास की नाव में भरकर आशाएँ मैं हूँ आता
पाकर संबल प्रखर सूर्य सा पुनः लौट कर जाता ।

कहता हूँ कालिंदी से तुम ऐसे ही सदा बहती रहो
मेरी मूक भावनाओं को तुम माँ तक पहुँचाती रहो
शिवा सा अति विस्तृत हो चुका है उसका अस्तित्व
उसकी आहुतियों की भस्म मलकर मैं पा रहा हूँ अपनत्व।

समय के पृष्ठों पर मुझे रचनी थी स्व कविताएँ
विगत क्षणों की भर स्मृतियाँ लिखनी थीं व्यथाएँ
जब मौखिक सांत्वनाएं भी न दे पाया तुम्हे जीवन भर
मानस में लिखे मेरे ग्रंथ क्या पढ़ पाएगा नील अंबर?

तुमने कहा अग्नि वर्षा में भी शीतल रखना निज तन मन
बैशाख की धूप में भी खिलेगा तुम्हारी ख्याति का मधुवन।

कादंबरी
श्रंगों पर आच्छादित स्वर्णिम परतें हृदय हुआ कुसुमित
उसकी चिट्ठी पर लगे सिंदूर सा नभ हुआ आलोकित
सभी शब्द आए ओढ़ कर व्यर्थ अभिमान की चादर
भूल गया मैं लिखना उत्तर जो नयनों में उभरा आदर।

उतर आया मैं संग पश्चिमी तट पर लिए अनेक सितारें
किंतु लिख नहीं पाया मम प्रेयसी के स्वर भीगें इशारे
ये मौन शिलाएं कह रहीं जैसे वो लिए हों सपने हजार
किंतु निशा भी तो गुफाओं में छुपी सी लिए निद्रा अपार।

स्वर्ण मंडित शिखरों से यह प्रश्न करना है अकारण
अंबर का आँचल क्यों है मात्र उनके लिए आवरण
व्यथा की अपेक्षा शीतल पवन समेटे है विस्फोटक चिंगारी
मैं नहीं, यह घना अंधकार ही कहेगा स्वयं की पीड़ाएँ सारी।

चलो, कादंबरी! अलकों को समेटों नभ के गहरे नीलेपन से।
मैं चन्द्रापीड तुम्हे क्षितिज तक ले चलूँ दूर अधूरेपन से।।

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ashrutpurva

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