कविता काव्य कौमुदी

न जाने अब प्रेम था कि नहीं

अनामिका सिंह II

नाद्या,
यदि तुम होती सामने तो
मैं टांक देती अपने
एक-एक प्रश्न को
उसी तरह तुम्हारे कानों में
जैसे तुम और ज्यादा
खुले कर लेती थी अपने कान
उस अद्भुत वाक्य को सुनने के लिए

‘नाद्या मैं तुमसे प्यार करता हूं’

और सुन कर भीड़ जाती थी
हवाओं के खिलाफ,
अपने भय के खिलाफ
एक पुलकित जश्न में डूब जाती
यह जाने बगैर की क्या सच में
तुम्हारे कानों में वही आवाज आई है।

नाद्या तुम फिसलती हो
ऊंची पहाड़ी से,
बफीर्ली तेज हवाओं के खिलाफ
हवाओं के तेज शोर में,
घुलती है वही एक आवाज।

‘नाद्या मैं तुमसे प्यार करता हूं’

पहली बार सुनने के बाद
बार-बार सुनने की विकलता
बदल देती है तुम्हारे भय को
एक उन्मादी सफर में।

नाद्या यह एक मजाक था
क्या तुम जानती थी?

सिलबट्टे पर पिसी गई मिर्च की तरह
हाथ में बाकी है थोड़ी सी जलन

न जाने अब प्रेम था कि नहीं।

बताओ चेखव,
कौन सा मजाक सत्य माने
और कौन से सत्य को
मजाक मान कर भूल जाएं।

गली से गुजरते हुए मोड़ पर
आती है याद,
इसी घर के दो दरवाजों में से एक
खुलता था मेरे लिए,
अब बंद रहता है दरवाजा,

न जाने प्रेम था कि नहीं।

मेरे नाम के पुकार की एक आवाज
इसी घर की खिड़की से आई थी।

यही भिक्षुक की तरह खड़ी हूं,
पलट कर देखी हुई
और सोचती हूं

न जाने प्रेम था कि नहीं ।

कानों में घुलता हुआ संगीत
पीछा करता है देर तक,
देर तक सुनती हूं मैं आवाज यहां।

बताओ चेखव,
हम क्या,
तुम्हारा मजाक भी कानों में
खौलता हुआ मीठा जहर
बन गया था उस लड़की के लिए
वह भी सोचती रही होगी उम्र भर,

न जाने प्रेम था कि नहीं।

मन का भार उठाने अब कौन आएगा
ये गलियां इतनी वीरान हैं
और एकदम खाली

ऋतुओं से झड़ा हुआ फूल हूं,
न जाने अब कहां जाऊंगी!

About the author

अनामिका सिंह

अनामिका सिंह उत्तर प्रदेश् के मुजफ्फरनगर की रहने वाली हैं। उन्होंने बीएड और और स्नातकोत्तर तक श्क्षिा ग्रहण की है। लेखन, अध्ययन और शिक्षण में उनकी विशोष अभिरुचि है। वे लिखती हैं तो बच्चों को पढ़ाती भी हैं।

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