काव्य कौमुदी ग़ज़ल/हज़ल

अपने भीतर दिया जलाना है

मनस्वी अपर्णा II

२१२२  १२१२  ११२/२२

खुद की लौ में यूं झिलमिलाना है
अपने भीतर दिया जलाना है //१//

चांद के साथ सब सितारे और
आसमां को जमीं पे लाना है //२//

तीरगी को उधर हटा भी दो
रौशनी को इधर बुलाना है //३//

थाम कर हाथ इन उजालों का
कल के सायों अब भुलाना है //४//

अपनी आंखों में भर के उम्मीदें
आसमां से नजर मिलाना है //५//

जल के बुझ जाएं वो चिराग नहीं
चांदनी घर में अब खिलाना है  //६//

नूर से अपने आप रौशन हूं
सिर्फ  खुद को यकीं दिलाना है //७//

About the author

मनस्वी अपर्णा

मनस्वी अपर्णा ने हिंदी गजल लेखन में हाल के बरसों में अपनी एक खास पहचान बनाई है। वे अपनी रचनाओं से गंभीर बातें भी बड़ी सहजता से कह देती हैं। उनकी शायरी में रूमानियत चांदनी की तरह मन के दरीचे पर उतर आती है। चांद की रोशनी में नहाई उनकी ग़ज़लें नीली स्याही में डुबकी ल्गाती है और कलम का मुंह चूम लेती हैं। वे क्या खूब लिखती हैं-
जैसे कि गुमशुदा मेरा आराम हो गया
ये जिस्म हाय दर्द का गोदाम हो गया..

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