राधिका त्रिपाठी II
सब कुछ क्षणिक है। उतना ही क्षणिक जितना पलकों का झपकना, सांसों का रुकना, आंसुओं का बिन बहे आंखों में समा जाना। तो फिर क्या बचा, और हम क्या बचाना चाह रहे हैं? सब कुछ तो क्षणिक है, नश्वर है। माटी में मिल जाना है यह रूप और यह शरीर। देह का मिलन भी कुछ क्षण आनंद देता है, और फिर खत्म। फिर यथावत क्या चलता रहता है, जिसकी पुनरावृत्ति बार-बार होती रहती है। यह सृष्टि जिसे गुनगुनाती रहती और मन घूम कर वही दोहराना चाहता है। वही देखना चाहता है और आंखों में भर लेना चाहता है। जोगी या जोगन बन गली-गली नचाना चाहता है।
नदियां रेत ही भिगोना चाहती हैं, पांव उसी गली के चक्कर लगाते हैं। होंठ उसे ही चूमना चाहते। आंखें उसी जगह चौराहा सी आते-जाते लोगों में आखिर क्या देखती हैं? जिसकी पुनरावृत्ति बार-बार हर ह्रदय में होती है…! निश्चय ही यह प्रेम है। जो अमृत्व को प्राप्त है। राधा के चरणों से निकल कर मीरा के ह्रदय तक उतरते विष को अमृत कलश बना देता है। मनुष्य को तृप्त कर देता है। जीवन देता, पथ देता और इच्छाएं जगाता। और अंतत: वैराग्य देता एकांत में लिप्त कर देता है।
प्रेम को कौन संग्रहित कर सकता है? प्रेम खुद में एक संग्रहालय है। कविताएं, रचनाएं कितना उकेर पाएंगी प्रेम के रस को? मात्र कुछ क्षण की मनोदशा को, कुछ पल के मौन को। बिछोह के कुछ पलों को समेट कर कितना लिखा या पढ़ा या फिर गाया जा सकता है? प्रेम को तो बस जिया जा सकता है। इसके सुगंध से सुगंधित हुआ जा सकता है। मृग मरीचिका सा भागा जा सकता है लेकिन व्यक्त नहीं किया जा सकता। कलम कहां चल पाती है या कहां पहुंच पाती है उस तक? ह्रदय की गति तक, आंखों की पुतलियों के थमने तक, जिह्वा के अकड़ने तक, गले की घुटन तक सब कुछ व्यक्त नहीं किया जा सकता है। सचमुच संपूर्णता से अव्यक्त नहीं किया जा सकता है।
प्रेम को कौन संग्रहित कर सकता है? प्रेम खुद में एक संग्रहालय है। कविताएं, रचनाएं कितना उकेर पाएंगी प्रेम के रस को? मात्र कुछ क्षण की मनोदशा को, कुछ पल के मौन को। बिछोह के कुछ पलों को समेट कर कितना लिखा या पढ़ा या गाया जा सकता है? प्रेम को तो बस जिया जा सकता है। इसके सुगंध से सुगंधित हुआ जा सकता है।
स्त्रियां कभी प्रेम में पागल नहीं हुईं, जो हुईं भी वो मीरा और राधा ही बनीं। बाकी रुक्मणी ही रह गईं। पागल होने का अधिकार स्त्रियां को कभी नहीं मिला। परंतु पुरुष सदैव प्रेम में पागल हुए। सिया की विरह वेदना में तो मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम भी व्याकुल होकर वन में भटके…
और सभी से पूछते हुए विलाप करने लगे…
हे खग हे मृग हे मधुकर श्रेणी तुमने देखी सीता मृगनैनी…!!
प्रेम में वह साधारण से भी साधारण मनुष्य की भांति वन में सीते, सीते की आवाज लगाते हैं।
प्रेम का संग्रहालय इतना बड़ा और इतना व्यापक है कि स्वयं शिव ने इसे संरक्षित किया है अपने कंधे पर। और सती के भस्म हो जाने पर संपूर्ण सृष्टि को नष्ट करने का प्रण उठा लिया…। अंतत: मौन धारण कर वैरागी बन गए। मौन धारण करना भी तो प्रेम है न। आत्मसात कर लेना प्रिय को स्वयं में वही स्वयंभूू शिव हैं। शीश पर गंगा को उतार लेना प्रेम का सम्मान और धरती पर गंगा का प्रवाह मुक्ति का मार्ग है। यह जीवनदायनी है अर्थात प्रेम ही जीवन है जो बाहर-भीतर बहता है। इसमें डूब जाना चाहिए बिन कुछ कहे। जो साथी अगर सच्चा है वो उबार ही लेगा। कर्तव्य पथ पर ले चलेगा। संवार देगा और खुद भी संवर जाएगा।
ईमानदारी, सच्चाई और परस्पर सम्मान प्रेम के मुख्य घटक हैं। एक दूसरे की निजता का ध्यान रखते हुए ‘कम्फर्ट जोन’ देना भी अहम है। त्याग और बलिदान तो बाद में आता है मगर इससे पहले एक दूसरे का आत्मविश्वास बढ़ाना और संकट के समय संभाले रखना ही असल प्रेम है। रिश्ते में आप आत्मकेंद्रित नहीं हो सकते। स्वार्थी व्यक्ति कभी प्रेम नहीं कर सकता। वह सिर्फ अपना सुख देखता है।
असल प्रेम वह है जिसमें आप दूसरे पक्ष की खुशी का अपने से ज्यादा खयाल रखते हैं तो इससे श्रेष्ठ कुछ भी नहीं। यही बलिदान है। आप साबित कीजिए कि एक दूसरे के लिए क्या मायने रखते हैं। मैं तुम से प्यार करता हूं, दिन में दस बार कहना प्रेम को जताता है। मैं तुम्हारे साथ हूं, दिन में एक बार सुनना प्रेम को सार्थक बनाता है। फिर दूरियों का कोई अर्थ नहीं रह जाता। फिर आप मन की यात्रा में हैं। साथ रहते हैं। साथ जीते हैं। यही प्रेम है।