कविता काव्य कौमुदी

चाँद की चिकोटी 

ऊर्वशी घनश्याम II

कच्ची पक्की पगडंडियां
हुलस के गले मिली
राह चलते
ढेरों बातें
सर्द तल्खियां
दांतों तले दबा गयी।

दिल की दौड़ में
पीछे छूटे घर घूंघट_
अलाव और चौके
दूब की बिछावन पे
सूर्ख रंग बिखेर दिए।

रंगीन बटुए से निकाले
खनकते सिक्के
दोनों हथेलियों ने
जी भर चूमें
आंखों ही आंखों में
फिर से मिलने के वादे लिए।

अपने अपने पंख
कमर में खोंसे
आसमान की चादर
देह पे लपेटे
उड़ा ले चले, वो
अपनी चोंच के तिनके।

मचान पर सूरज
टोकरी सिर पर
सांझ की लाली
अंक में भर कर
सखियों ने काटी
चांद की चिकोटी….

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ऊर्वशी घनश्याम

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