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आधुनिक हिन्दी काव्य की यात्रा (भाग-१) 

प्रताप नारायण सिंह II

पिछले तीन महीनों में मैंने आधुनिक हिन्दी काव्य के १४ युग-प्रतिनिधि कवियों की रचनाओं, उनके वैचारिक आधार, उनकी रचना – प्रक्रिया और उनकी काव्यगत विशेषताओं का समग्र रूप से अध्ययन किया|  इस बीच मैंने कुछ रचनाकारों के विषय में लेख भी पोस्ट किए थे जिसमें मूलतः पाठ्यपुस्तकों की सामग्री का सम्पादन था, उसमें मेरी अपनी दृष्टि का समावेश कम था| किन्तु, यह लेख मेरे अपने दृष्टिकोण और समझ को प्रस्तुत करता है|  

तो आइए आधुनिक हिन्दी काव्य की यात्रा आरम्भ करते हैं –  

हिन्दी साहित्य के शास्त्रीय काल विभाजन के विषय में लगभग सभी लोग जानते होंगे| उसके विषय में दसवीं – बारहवीं कक्षा में काफी कुछ पढ़ा दिया जाता है| वह विभाजन अपनी जगह और अपने आधार पर बिलकुल ठीक है| उससे इतर यदि मैं हिन्दी साहित्य को एक और आधार पर वर्गीकृत करूँ तो मुझे मुख्यतः दो काल दिखाई पड़ते हैं – १.जन – सामान्य के निरपेक्ष काल २.  जन – सामान्य  के सापेक्ष काल| इसमें दूसरे काल को “आधुनिक काल” कहा जाता है| आधुनिक काल से पूर्व रचे गए साहित्य में जन साधारण को स्थान नहीं मिल पाया था| उस काल में साहित्य का नायक कोई महामानव, राजा, विशिष्ट योद्धा इत्यादि हुआ करते थे या फिर शृंगारपरक रचनाएँ की जाती थीं| आधुनिक काल में पहली बार साहित्य में जन सामान्य का अवतरण होता है| यहाँ से साहित्य की दिशा बदल जाती है|
आधुनिक हिन्दी साहित्य का आरम्भ सन 1850 से माना जाता है (मतान्तरों को छोड़कर, बहु-स्वीकार्यता के आधार पर) और संयोग की बात है कि इसी वर्ष आधुनिक हिन्दी साहित्य और हिन्दी खड़ी बोली के प्रवर्तक और पितामह हरिश्चंद्र का जन्म भी होता है| 
हरिश्चंद्र एक चमत्कारी व्यक्तित्व के स्वामी थे| उन्हें जीवन बहुत छोटा मिला था (मात्र ३५ वर्ष का) और कार्य बहुत बड़े करने थे| अपनी इस अल्पायु में ही उन्होंने जो कार्य संपादित किए वे अविस्मरणीय हैं, साथ ही चमत्कृत भी करते हैं| उन्होंने  ७० ग्रंथों की रचना की, जिसमें लगभग सभी विधाएँ सम्मिलित हैं| इसके अतिरिक्त उन्होंने यात्राएँ की, पत्रिकाओं का सम्पादन किया, समाजसुधार के कार्यों में सक्रिय रहे| उनके चारों ओर साहित्यकारों का एक दल एकत्रित हो गया था जिसे भारतेंदु – आभा मंडल कहा जाता था| हरिश्चंद्र को १८८० में “सार सुधा निधि” नामक पत्रिका के माध्यम से घोषणा करते हुए तत्कालीन साहित्य समाज ने एकमत होकर “भारतेंदु” की उपाधि दी| कहा जाता है कि भारतेंदु को यह सम्मान राजा शिवप्रसाद को अंग्रेजों के द्वारा “सितारे हिन्द” की उपाधि देने पर साहित्य समाज की एक प्रतिक्रया का फल था| साहित्यकारों का लगाव और आदर हरिश्चंद्र के प्रति अधिक था| 
उन्नीसवीं सदी के दूसरे अर्धांश में साहित्य का परिदृश्य अचानक बदल जाता है और पहली बार साहित्य में आमजन के सुख –दुःख, पीड़ा, क्षोभ इत्यादि को स्थान मिलता है| इस काल के पहले खंड को ‘भारतेंदु युग’ के नाम से जाना जाता है और वास्तव में आधुनिक हिन्दी साहित्य जिस विशेषता – आमजन का समावेश – के कारण आधुनिक कहलाता है वह भारतेंदु की ही देन है|  

भारतेंदु युग में सृजन – 

भारतेंदु युग के सबसे प्रमुख साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चन्द्र ही थे| भारतेंदु ने रीतिकालीन काव्य प्रक्रिया से स्वयं को विमुख करते हुए एक नए ढंग का सृजन प्रस्तावित किया| उन्होंने गद्य और पद्य दोनों की भाषा और अंतर्वस्तु में बदलाव किया| उस समय तक काव्य के लिए स्वीकार्य भाषा ब्रज थी| हरिश्चंद्र ने भी अपने काव्य का अधिकांश भाग ब्रज में ही लिखा है| आरम्भ में उन्हें हिन्दी खड़ी बोली में काव्य सृजन करने में कठिनाई और असंतुष्टि होती थी| किन्तु जब अंतर्वस्तु बदला तो वह कठिनाई और असंतुष्टि समाप्त हो गई और वे अपने नाटकों के लिए खड़ी बोली में भी काव्य रचना करने लगे| गद्य वे खड़ी बोली में पहले से ही लिख रहे थे और उसका परिमार्जन भी कर रहे थे| 
भारतेंदु युग का राजनीतिक परिवेश देखें तो देश परतंत्र था| १८५७ की क्रांति विफल हो चुकी थी| सत्ता ईस्ट इंडिया कंपनी से ब्रिटिश राज के हाथों में जा चुकी थी| अंग्रेजों के अत्याचार से भारतीय जन मानस में भयंकर दुःख और पीड़ा व्याप्त थी| ऐसे में हरिश्चंद्र को प्रेम औत्र सौन्दर्य के गीत गाना स्वीकार्य नहीं था| अतः उन्होंने भारतीयों की पीड़ा को अपनी कविताओं, नाटकों, लेखों इत्यादि में उतारना आरम्भ किया| भारत की दुर्दशा” नाटक में अपने क्षोभ को व्यक्त करते हुए लिखते हैं – 

रोवहु मिलि के आवहु भारत भाई
हा ! हा ! भारत दुर्दशा ने देखी जाई|
सबके पाहिले जेहि ईश्वर धन-बल दीनों
सबसे पाहिले जे रूप रंग रस भीनो
अब सबके पीछे सोई परत लखाई
हा ! हा ! भारत दुर्दशा ने देखी जाई|

मानव जीवन की तत्कालीन समस्याओं को समाहित करते हुए जब हिन्दी खड़ी बोली में काव्य सृजन आरम्भ हुआ तो उसमें रीतिकालीन कला, सौन्दर्य और मधुरता के स्थान पर गद्यात्मकता, क्षोभ और तीक्ष्णता थी| भारतेंदु आरम्भ में जब ब्रज में लिखते हैं तो  काव्य इस तरह का होता है – 

गूँजहिं भँवर विहंगम डोलहिं बोलहिं प्रकृति बधाई
पुतली सी जित तित तितलीगण फिरहिं सुगंध लुभाई
ये पंक्तियाँ काव्यगत कला – तत्वों से युक्त हैं|

किन्तु जब वे हिन्दी खड़ी बोली में लिखते हैं तो भाषा और शिल्प इस तरह का होता है – 

चूरन सभी महाजन खाते, सारा जमा हजम कर जाते।।
चूरन खाएँ एडिटर जात, जिनके पेट पचै नहीं बात।।
चूरन साहेब लोग जो खाता, सारा हिंद हजम कर जाता।।
चूरन पूलिसवाले खाते, सब कानून हजम कर जाते।।

यहाँ भाषा बोलचाल की रखी गयी है और इसमें काव्यगत कला – तत्वों का अभाव  दिखता है| किन्तु उस समय जो वातावरण था उसके अनुरूप ही काव्य की अंतर्वस्तु और भाषा होनी थी| साथ ही यह हिन्दी खड़ी बोली में काव्य की शैशवावस्था थी| अभी तक को खड़ी बोली में कविता रचने की कल्पना भी नहीं की जा रही थी| 
हरिश्चंद्र ने आरम्भ में भक्ति और शृंगार की भी रचनाएँ की थी| किन्तु बाद में उनका मुख्य विषय “नवजागरण”, “राष्ट्रीय चेतना” और हिन्दी का सुधार एवं प्रचार प्रसार रहा| भारतवासियों की दुर्दशा उनके मन को निरंतर मथ रही थी| नवजागरण के लिए एक संपर्क भाषा की आवश्यकता थी, जो सबको जोड़ सके, उसमें हिन्दी की भूमिका महत्वपूर्ण थी| 
इस तरह हम देखते हैं कि भारतेंदु युग में काव्य का मूल स्वर नवजागरण था, काव्य भाषा के रूप में हिन्दी खड़ी बोली का आरम्भ हो चुका था| किन्तु खड़ी बोली की रचनाओं में कला तत्वों का ह्रास दिखता है, उसके स्थान पर कथ्य की नयी भंगिमा दिखाई देती है, जो आकर्षित करती है| 

द्विवेदी युग – 

यह युग महावीर द्विवेदी के नाम से जाना जाता है, उसका मूल कारण यह है कि भारतेंदु ने जो खड़ी हिन्दी के प्रयोग और परिष्करण का कार्य आरम्भ किया था उसे महावीर प्रसाद द्विवेदी ने बहुत तेजी से आगे बढ़ाया| वे “सरस्वती” नाम की एक पत्रिका निकालते थे और खड़ी हिन्दी में लिखने वालों की रचनाओं को उसमें स्थान देकर उन्हें खड़ी हिन्दी के लेखन हेतु प्रोत्साहित करते थे| उसी युग में उदय होता है भारत के पहले राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का| गुप्त जी महावीर प्रसाद द्विवेदी से बहुत प्रभावित थे और उनके बहुत निकट भी| उनकी रचनाएँ निरंतर सरस्वती में प्रकाशित होती रहती थीं|  
अब हम राजनीतिक परिवेश को देखें तो १८५७ की क्रान्ति की प्रतिक्रिया में अंग्रेजों के द्वारा किए अत्याचारों की पीड़ा और भय से जन मानस उबार चुका था और क्रांति की चिंगारी सबके मन में पुनः सुलगने लगी थी| क्रांतिकारियों ने पुनः कसकर फेंटा बाँधा था और देश पर सर्वस्व लुटाने को उद्यत हो रहे थे|  उसी  समय मैथिलीशरण गुप्त का राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत खंड काव्य “भारत भारती” प्रकाशित होता है, जो देखते ही देखते इतना लोकप्रिय हो जाता है कि क्रांतिकारी उसकी पंक्तियाँ गुनगुनाने लगते है –

हे भाइयों सोये बहुत, अब तो उठो जागो अहो
देखो जरा अपनी दशा आलस्य को त्यागो अहो
कुछ पार है क्या क्या समय के उलट फेर न हो चुके
अब भी सजग होगे न क्या, सर्वस्व तो हो खो चुके

अब इन पंक्तियों को पढ़ – सुनकर किसके भीतर देश और समाज के प्रति भावना नहीं उमड़ेगी! 

किन्तु यदि काव्य के कला तत्वों की बात करें तो यहाँ भी बिम्ब , प्रतीक, उपमा, अलंकार इत्यादि का अभाव दिखता  है| सीधी – सीधी व्याकरणयुक्त गद्यात्मक भाषा का प्रयोग किया गया है| हाँ भाषा में पहले की अपेक्षा परिमार्जन अवश्य दीखता है| किन्तु इस सृजन में भावोत्पादकता और सम्प्रेषणीयता बहुत ही प्रबल है| भावोत्पादन गुप्त जी के काव्य का मूल तत्व था जो कि उनकी लोकप्रियता का प्रमुख कारण बना| कुछ आलोचकों का मानना है कि जिस समय क्रान्ति के स्वर गूँज रहे हों उस समय कलात्मकता पर ध्यान देने के बजाय अंतर्वस्तु और भावोत्पादन पर ध्यान देना अधिक श्रेयस्कर था| हालाँकि “साकेत” तक पहुँचते पहुँचते गुप्त जी की भाषा में बहुत परिवर्तन हुआ है| 
इस तरह देखें तो द्विवेदी युग में काव्य सृजन का मूल स्वर “राष्ट्रीयता और क्रान्ति” था| भाषा परिमार्जित खड़ी हिन्दी बोली हो चुकी थी| काव्य रूप  छंद-बद्ध था| कला के स्थान पर भावोत्पादन को अधिक महत्त्व मिला|   

छायावाद – 

स्वतन्त्रता के स्वर जब तेज होने लगे तो रचनाकारों के अंदर स्वाधीनता का स्वप्न अँगड़ाई लेने लगा| स्वतन्त्रता संघर्ष अपने उत्कर्ष पर था और ऐसे में कल्पना पर अधिक बल होना भी स्वाभाविक था| राजनीतिक रूप से स्वाधीन होने के लिए स्वाधीन चेतना का होना आवश्यक होता है| इसी  स्वाधीन चेतना और सूक्ष्म कल्पना के बल पर छायावाद के प्रथम स्तंभ महाकवि जयशंकर प्रसाद नए  प्रकार के सादृश्य विधान, नए तरह के सौन्दर्यबोध और लाक्षणिकता को विशेषण बनाते हुए अपनी रचनाओं में राष्ट्रीय –सांस्कृतिक चेतना और नवीन भावबोध को पिरोते हैं| स्वाधीनता बिना उद्योग के संभव नहीं  नहीं थी| ऐसे परिवेश में आधुनिक हिन्दी साहित्य के एक मात्र महाकाव्य – कामायनी में प्रसाद कह उठते हैं –  

दुःख की पिछली रजनी बीच , विकसता सुख का नवल प्रभात
एक परदा यह झीना नील, छिपाए है जिसमे सुख गात
…………
और यह क्या तुम सुनते नहीं , विधाता का मंगल वरदान
शक्तिशाली हो विजयी बनो , विश्व में गूँज रहा जय गान

प्रसाद उस अर्थ में राष्ट्रीय चेतना के कवि नहीं थे जिस अर्थ में माखनलाल चतुर्वेदी , बालकृष्ण शर्मा नवीन या सुभद्रा कुमारी चौहान थीं| उनकी राष्ट्रीयता उनके नाटकों और कहानियों में अधिक मुखर हुयी है| काव्य में वे संकेतों के माध्यम से अपनी बात कहते हैं| वे कहते हैं – 

अब जागो जीवन के प्रभात
वसुधा पर ओस बने बिखरे
हिमकन आँसू जो क्षोभ भरे
उषा बटोरती अरुण गात

अब खड़ी बोली की कविता ने अपना पूर्ण कला और सौन्दर्य प्राप्त कर लिया था| , बिम्ब, प्रतीक, सादृश्य विधान, कोमल कांत शब्दावली सब कुछ छायावादी कवियों की कविताओं में मिलता है| स्वाधीन चेतना की भावना के अतिरिक्त मनुष्य के स्वाभाविक मनोभावों – आशा – निराशा , प्रेम , सौन्दर्य, विरह, व्यथा आदि का भी चित्रण होता है| छायावाद युग का साहित्य अत्यंत समृद्ध है| 

छायावाद के एक और आधार कवि सुमित्रानंदन पन्त – छायावाद के पारंपरिक गुणों – कल्पना, सौन्दर्यानुभूति, आशा – निराशा, प्रेम, विरह व्यथा को धारण करते हुए आगे बढ़ते हैं और फिर समाजनिष्ठ प्रतिशील काव्य की रचना करते हुए अरविंद के दर्शन पर आधारित समन्वयवादी चरण पर पहुँचकर पटाक्षेप करते हैं| 
पन्त जी साठ वर्षों तक निरंतर सृजन करते रहे और छायावादी कवियों में सर्वाधिक सर्जन इन्होंने ही किया| इनके काव्य में भाषा अत्यंत समृद्ध है और काव्य कला का उत्कृष्ट दर्शन मिलता है| प्रतीकों , बिम्बों के माध्यम से अपनी बात कहते हैं| छायावाद में प्रकृति चित्रण उनका सबसे प्रिय विषय रहा| उनका प्रकृति प्रेम छाया वाद के बाकी तीनों कवियों प्रसाद , निराला और महादेवी से भिन्न एक वस्तुगत ठोस सच्चाई पर आधारित था| जिसका कारण था उनका प्राकृतिक परिवेश में जन्म लेना| उन्होंने स्वयं लिखा है : कविता की प्रेरणा मुझे सबसे पहले प्रकृति निरीक्षण से मिली जिसका श्रेय मेरी जन्मभूमि कूर्मांचल प्रदेश को है| वे प्रकृति के सौन्दर्य से इतने आकर्षित थे कि उसके समक्ष नारी का सौन्दर्य भी उन्हें फीका जान पड़ता था | वे लिखते हैं  – 

छोड़ द्रुमों की मृदु छाया,
तोड़ प्रकृति से भी माया,
बाले! तेरे केश-जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन?
भूल अभी से इस जग को!

तज कर तरल तरंगों को,
इन्द्रधनुष के रंगों को,
तेरे भ्रू भ्रंगों से कैसे बिधवा दूँ निज मृग सा मन?
भूल अभी से इस जग को!
यह उनके सृजन काल के पहले चरण की रचना थी, जब छायावाद का प्रभाव प्रबल था|

दूसरे चरण में जब वे प्रगतिवादी जीवन बोध को अपनाते हैं तो लिखते हैं – 

साम्यवाद के साथ स्वर्ण युग करता मधुर पदार्पण
मुक्त निखिल मानवता करती मानव का अभिनंदन
मनुष्यत्व का तत्व सिखाता निश्चय हमको गांधीवाद
सामूहिक जीवन- विकास की सामी – योजना है अविवाद

और अपने सृजन के अंतिम चरण  में वे आध्यात्मिक नवमानवतावाद का समर्थन करते हुए लिखते हैं – 

अन्न, प्राण, मन, आत्मा केवल
ज्ञान – भेद सत्य के परम
इन सबा में चिर व्याप्त इश रे
मुक्त सच्चिदानंद चिरंतन

पन्त जी शब्द शिल्पी के रूप में जाने जाते हैं| इनके काव्य में विषय वास्तु से अधिक कला को महत्त्व मिला है| इनके काव्य का कला पक्ष बहुत ही सुदृढ़ और परिपक्व है| 

छायावाद की प्रतिनिधि कवयित्री महादेवी वर्मा वेदनानुभूति – जो कि व्यष्टि से समष्टि पर आरोपित होती है, रहस्य भावना – जहाँ कल्पना प्रबल होगी वहाँ रहस्य का होना स्वाभाविक ही है, प्रणय भाव – अपने अभीष्ट के प्रति अशरीरी, करुणा से आप्लावित प्रेम और सौन्दर्यानुभूति – जो कि सभी छायावादी रचनाकारों की रचनाओं का आवश्यक तत्व रहा है, के आधार पर उत्कृष्ट सृजन करती हैं| 
महादेवी एक ओर  “मैं नीर भरी दुःख की बदरी” तथा “विरह का जलजात जीवन” जैसी वेदनायुक्त रचनाएँ करती हैं तो वहीं दूसरी ओर उनके स्वरों में राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना भी स्पष्ट लक्षित है –

चिर सजग आँखे उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना!
जाग तुझको दूर जाना!
अचल हिमगिरि के हृदय में आज चाहे कम्प हो ले,
या प्रलय के आँसुओं में मौन अलसित व्योम रो ले;
आज पी आलोक को डोले तिमिर की घोर छाया,
जाग या विद्युत्-शिखाओं में निठुर तूफान बोले!
पर तुझे है नाश-पथ पर चिह्न अपने छोड़ आना!
जाग तुझको दूर जाना!

महादेवी की रचनाओं में रहस्य भावना प्रचुरता में लक्षित होती है| उनकी रचनाओं में रहस्य कई चरणों में अभिव्यंजित हुआ है|

वे कहती हैं – 

किसी शिल्पी ने अनजान
विश्व प्रतिमा कर दी निर्माण

फिर स्वयं चकित होकर प्रश्न करती हैं –
प्रथम प्रणय की सुषमा सा
यह कलियों के चितवन में कौन

डा. भागीरथ मिश्र ने लिखा है – महादेवी हमें अपने काव्य में स्वर्ग की देवी सी जान पड़ती हैं , मानों परीक्षार्थ कुछ दिन भूतल पर निवास करने आयी हों| अपने जीवन की उच्चता और आनंद का उन्हें पूर्ण आभास है|  

इन तीन कवियों के साथ ही छायावाद के चौथे स्तंभ का भी अवतरण होता है जिसे महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी निराला कहते हैं (वास्तव में जन्म के क्रमानुसार निराला छायावाद के दूसरे कवि हैं, किन्तु मैंने इन्हें सबसे अंत में इसलिए लिया क्योंकि ये सबसे अलग हैं)| जिनके अंदर मुक्ति के लिए अजब छटपटाहट दिखाई देती है| निराला के काव्य के वैचारिक आधार की बात करें तो वह मुक्ति का दर्शन है| जयशंकर प्रसाद की स्वाधीन चेतना की परिणति निराला के मुक्ति के दर्शन में होती है| मुक्ति हेतु वे सबको जगाने का प्रयत्न भी करते हैं – 

जागो फिर एक बार!
पशु नहीं, वीर तुम,
समर-शूर, क्रूर नहीं,
काल चक्र में हो दबे आज तुम राज कुंवर!
समर-सरताज!
पर क्या है,
सब माया है-सब माया है,
मुक्त हो सदा ही तुम,
बाधा-विहीन-बन्ध छन्द ज्यों,
डूबे आनन्द में सच्चिदानंद रूप
महामंत्र ऋषियों का
अणुओं-परमाणुओं में फूँका हुआ
“तुम हो महानˎ,तुम सदा हो महानˎ
है नश्वर यह दीन भाव, कायरता, कामपरता।
ब्रह्म हो तुम
पद-रज-भर भी नहीं पूरा यह विश्व भार-
जागो फिर एक बार।

यह मुक्ति हर स्तर की है, देशीय, सामाजिक, वैयक्तिक, मानसिक, सांस्कृतिक सभी स्तरों के बंधन वे काटना कहते हैं| उनकी कविताएँ भी मुक्ति की चेतना से अनुप्राणित हैं| वे तो अपनी कविता में छंदों के बंधन से भी मुक्ति की बात करते हैं –

आज नहीं है मुझे और कुछ चाह
अर्द्धविकच इस हृदय कमल में आ तू
प्रिये छोड़कर बंधनमय छंदों की छोटी राह

छायावादी कवि होते हुए भी उन्होंने छायावाद के बंधनों को पूर्णतया स्वीकार नहीं किया| यही कारण रहा कि अंतर्वस्तु, काव्य भाषा और काव्य रूप को लेकर निराला ने इतने प्रयोग किये जितने कि किसी एक धारा के सभी कवियों ने मिलकर नहीं किए होंगे| उन्होंने जहाँ “राम की शक्तिपूजा” और “तुलसीदास” में  संस्कृतनिष्ठ शब्दावलियों का प्रयोग किया वहीं “वह तोड़ती पत्थर”, और भिक्षुक जैसी कविताओं  में आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया| जहाँ “वर दे वीणा वादिनी” का छंद रचा, वहीं अनेक छंद मुक्त रचनाएँ भी की| उन्होंने नए बिम्ब, नए प्रतीकों का प्रयोग किया| काव्य को एक नया कलेवर प्रदान किया| जिसके  मूल में मुक्ति का चिंतन था|  निराला द्वारा किये गए प्रयोगों के बीज बाद के काल में भी वृक्ष रूप में संवर्धित हुए| उनकी किसी न किसी कविता को हर काल की, हर तरह की कविता में सम्मिलित किया जा सकता है| 
किन्तु निराला के प्रयोगों का स्वागत बहुत ही वीभत्स ढंग से हुआ था| जब मतवाला पत्रिका में उनकी कविता “बादल राग’ छपी तो ब्रज भाषा के काव्य समर्थकों द्वारा उसे केंचुआ छंद कहते हुए इस तरह भर्त्सना की गयी –

कल्पना हरामजादी फटके न पास मेरे
पिंगल को पटकि पाताल को पठाऊँ मैं
बंगला केला के जूठे टुकड़े कमाऊँ नाम
कवि कालिकाल का ‘निराला’ कहाऊँ मैं

लेकिन निराला तो ठहरे निराला ही , जितनी घोर आलोचना उतना ही सशक्त सर्जन| राम की शक्तिपूजा, तुलसीदास इत्यादि का सृजन आलोचकों के मुँह पर इतने जोर का तमाचा था कि मुँह खुला का खुला ही रह गया| 
निराला के काव्य की अंतर्वस्तु भी विविधता भरी है| पौराणिक विषयों से लेकर तत्कालीन समाज का चित्रण उनकी कविताओं में होता है| उनका सृजन संसार उनके नाम की तरह ही निराला था| एक ओर राम की शक्तिपूजा में वे लिखते हैं – 

है अमानिशा, उगलता गगन घन अन्धकार,
खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन-चार,
अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल,
भूधर ज्यों ध्यानमग्न, केवल जलती मशाल।
स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर – फिर संशय
रह – रह उठता जग जीवन में रावण-जय-भय,
जो नहीं हुआ आज तक हृदय रिपु-दम्य-श्रान्त,
एक भी, अयुत-लक्ष में रहा जो दुराक्रान्त,
कल लड़ने को हो रहा विकल वह बार – बार,
असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार-हार।

तो दूसरी ओर अपनी मस्ती में यह भी गुनगुनाते हैं –
बाँधो न नाव इस ठाँव बंधु
पूछेगा सारा गाँव बंधु
यह घात वही जिस पर हँस कर
वह कभी नहीती थी धँस कर
कँपते थे दोनों पाँव बंधु

निराला निःसंदेह एक युग कवि थे| जिन्होंने कविता के बंधनों को तोड़ा और आने वाली पीढ़ी  के लिए प्रयोग का मार्ग प्रशस्त किया|
इस तरह हम देखें तो छायावाद में कविता का मूल स्वर “स्वाधीन चेतना” , “राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना ” , “मुक्ति का चिंतन” , “वेदना” और रहस्य रहा। काव्य कला की दृष्टि से यह काल बहुत समृद्ध रहा। काव्य भाषा बिंबों प्रतीकों उपमाओं से श्रृंगारित थी। विविध काव्य रूपों के दर्शन होते हैं। छंद बद्ध से मुक्त छंद तक की रचनाएँ की जाती हैं। 
(इस भाग में हमने 6 कवियों की बात की| अगले भाग में 8 और कवियों – दिनकर, नागार्जुन, मुक्तिबोध, अज्ञेय, शमशेर, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा और धूमिल की बात करेंगे)

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प्रताप नारायण सिंह

प्रताप नारायण सिंह उन प्रतिभाशाली लेखकों में से हैं जिनकी पहली ही पुस्तक “सीता: एक नारी” को 'हिंदी संस्थान', उत्तर प्रदेश द्वारा “जयशंकर प्रसाद पुरस्कार" जैसा प्रतिष्ठित सम्मान प्रदान किया गया। साथ ही पुस्तक लोकप्रिय भी रही। तदनंतर उनका उपन्यास “धनंजय" प्रकाशित हुआ, जो इतना लोकप्रिय हुआ कि एक वर्ष की अवधि के अंदर ही उसका दूसरा संस्करण 'डायमंड बुक्स' के द्वारा प्रकाशित किया गया। इस बीच उनका एक काव्य संग्रह "बस इतना ही करना" और एक कहानी संग्रह राम रचि राखा" भी प्रकाशित हुआ। “राम रचि राखा" की अनेक कहानियाँ कई पत्रिकाओं में पूर्व प्रकाशित हो चुकी थीं। उनका नवीनतम उपन्यास 'अरावली का मार्तण्ड'डायमंड बुक्स के द्वारा प्रकाशित किया जा रहा है।

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