पुस्तक समीक्षा

‘आउशवित्ज’: पोलैंड और बांग्लादेश की नृशंसता और अप्रेम का दस्तावेज

राज गोपाल सिंह वर्मा II

इतिहास को लोग भूल कर आगे बढ़ जाते हैं, यह एक आम स्वभाव है। आउशवित्ज़ द्वितीय विश्व-युद्ध में पोलैंड द्वारा कब्जाये गए उस स्थल का नाम है जो  नाजी यातना शिविरों के लिए इतिहास में कुख्यात रहा है, पर उसे हम कितनी जल्दी भूल गए!
ऐसी जगह में क्या कोई प्रेम कथा हो सकती है? शायद नहीं। पर लेखिका गरिमा श्रीवास्तव अपनी विशिष्ट दृष्टि के लिए जानी जाती हैं, जिससे उन्होंने इतिहास को साहित्य से गूँथकर अपनी विशिष्ट छाप छोड़ी है। आरंभिक पृष्ठों से ही समझ आता है कि यह त्रासदी और अमानवीयता के दुर्गम और निर्मम काल की घटनाओं का ताना-बाना है, दिल दहलाने वाली ऐसी घटनाएं जिनसे मानव जाति का अस्तित्व ही एक बारगी चुनौती महसूस करने लगा था।
एक जगह उपन्यास में आता है,
“… किसी के प्रेम की आकांक्षा न हो, किसी से मिलने की आस न हो, तो आदमी जिए क्यों! तमाम विपरीत परिस्थितियों में कोई जी लेता है, तो उसके पीछे सबसे बडा तत्त्व प्रेम का है। प्रेम क्या है? सिर्फ एक-दूसरे के साथ हँसना और रोना, नहीं तो… तो फिर क्या एक व्यक्ति या किसी भाव के प्रति मधुर होना, उसके प्रति सदव्यवहार, क्या यही प्रेम है! सबीना का कहना है कि प्रेम और घृणा का उत्स एक ही है– घृणा प्रेम की विकृत अवस्था है। प्रेम वह ऊर्जा देता है जिससे जीवन के दुखों का सामना हम कर पाते हैं। प्रेम व्यक्ति को मुक्त करता है, कि वह अपनी अनंत संभावनाओं की तलाश कर सके। प्रेम व्यक्ति से कुछ भी करा सकता है।…”
सच ही तो है। देखिए आसपास, और युद्ध हो अथवा शांति, प्रेम की यह परिभाषा हमें उसी सच के करीब मानने को विवश करती है। खास तौर से ऐसे माहौल में, जब कारखानों की चिमनियों से गहरा काला धुँआ निकलता हो, और वातावरण में जले हुए माँस की गंध का फैलाव हो।
गरिमा श्रीवास्तव की यह कृति विश्व के दो अलग संस्कृतियों, अलग पृष्ठभूमियों और अलग काल खंड के घटनाक्रम पर आधारित है। एक का केंद्र  द्वितीय विश्वयुद्ध में नाजी तानाशाह अडोल्फ़ हिटलर द्वारा अकारण ही उसकी घृणा के पात्र बने  यहूदियों के नरसंहार के यातना शिविर हैं, जो संयोग से आउशवित्ज़ में थे।  इसका दूसरा केंद्र है बांग्लादेश का हसनपुर।
यह अद्भुत संयोजन है कि उपन्यास में यहूदियों की त्रासद स्थितियों का मार्मिक विवरण है तो  बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम की अमानवीय घटनाओं का पुलिंदा भी हमारे मर्म पर चोट करता है। खास बात यह है कि ये दोनों युद्ध, परिस्थितियाँ जो त्रासदियों में बदलीं, उनके कारण भी भिन्न हैं, और उनके मुद्दे भी बिल्कुल अलग हैं, पर फिर भी वे निर्ममता में साम्य रखते हैं। इन दोनों जगहों की स्त्रियों की त्रासदी भी एक जैसी क्यों कर है?
यह इसलिए है, कि बकौल लेखिका, सारे युद्ध स्त्री की देह पर ही लड़े जाते हैं, जिसे उन्होंने अपनी शैली में, अपने विवरणों में जगह-जगह पर रेखांकित किया है, और बहुत साफ़गोई से किया है।
इस ऐतिहासिक आख्यान में स्त्रियों के उत्पीड़न के जो विवरण हैं, वे हर दृष्टि से प्रामाणिक लगते हैं, उन्हें बताने के लिए लेखिका को किसी कल्पनाशीलता का सहारा लेने की आवश्यकता नही है, पर लेखिका की दृश्यात्मकता उत्पन्न करने की विशिष्टता ने इसे बहुत दशकों बाद आज की पीढी के सामने सजीव कर दिया है।
“आउशवित्ज़: एक प्रेम कथा” को उपन्यास के रूप में  प्रकाशित कर डायरी, कई किस्म के पत्रों, भेंटवार्ताओं  तथा ऐसी ही चीजों से गूँथ कर एक खास तौर से उपयोग करना, लेखिका के लेखन के औपन्यासिक विधा में नूतन प्रयोग का बेहतर उदाहरण है। पर यह युद्धों, युद्ध के बाद की स्थितियों और उन स्थितियों को स्त्रीवादी नजरिए से देखने में उनकी शोधपरक दृष्टि रही है, इसलिए शायद लेखिका के लिए यह कोई असहज प्रयोग नहीं रहा होगा। इतिहास और वर्तमान से तालमेल के बीच लेखिका ने जिस सामंजस्य की खोज करने की कोशिश की है, उस पर शायद ही किसी अन्य की नजर गई हो। प्रेम और स्वाभिमान  के साथ यातना, उत्पीड़न और त्रासदी– स्त्रियों के हिस्से में यही आता है, पर इसमें जिस चीज का, जिस तत्त्व का सर्वाधिक ह्रास हुआ है, वह सिर्फ प्रेम है। युद्धों तथा उसके अंतिम उत्पाद के रूप में हमारे जीवन से जो चीज दूर हो जाती है, वह प्रेम की उदात्त भावना ही है।
प्रतीति सेन और अभिरूप, सबीना और बिराजित सेन,  रहमाना खातून, फिर रेनाटा और सबीना और अंत में प्रतीति सेन की मां टिया के प्रतीक रूपों में इस उपन्यास की कथावस्तु  जिस त्रासदी का कड़वा सच दिखाती है,  जब उसे  पढ़ना भर खुद को गम्भीर रूप से आहत करने की भाँति है, तो उस इंसान के साथ क्या गुजरी होगी जिसे इसने भोगा है या उसे समझ कर अभिव्यक्ति मात्र दी है। विचित्र यह भी है कि ये पात्र कहीं न कहीं प्रेम की उदात्त भावना को लेकर, अपने मन के किसी कोने में इन भयावह परिस्थितियों में भी आशान्वित बने हुए हैं। इस दृष्टि से हर दिन, हर समय और हर पल वे मानवीय त्रासदियां मन को कितना आंदोलित करती होंगी, उसे उन मासूम आत्माओं अथवा लेखिका के सिवाय और कोई नहीं जान सकता। ऐसे बहुस्तरीय आख्यानों और व्यापक फलक वाले उपन्यासों की परंपरा हमारे यहाँ कम ही है।
इस उपन्यास से यह समझना मुश्किल नहीं कि क्रूरता और निर्ममता की चुनौती को अंततः कोई सफलता मिल ही नहीं सकती, उसका प्रारब्ध ही असफलता का है। हाँ, प्रेम जरूर इस क्रूरता के सामने एक मरहम का काम करता है। यह एक सार्वभौमिक सीख है। इस तरह के घटनाक्रम का देश, काल, स्थल या संस्कृतियों से कोई वास्ता नहीं। अगर पोलैंड हमसे बिल्कुल विपरीत है, तो बांग्लादेश हमारे जैसा भी तो है। फिर भी मूल प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता कि ऐसी त्रासदियों का छोर, उसका अंतिम परिणाम क्यों स्त्रियों पर ही भारी पड़ता है, क्या उनका एक स्त्री भर होना ही इसका कारण है!
‘सच है कि प्रेम में निरुपायता भी एक उद्देश्य है। हाँ, अंतिम उदास छवियाँ , भूख, यातना और अपमान भोगे लाखों लोगों की स्मृतियाँ जीवन का सत्य बताती हैं, जीवन चलता रहता है, रुकता नहीं!’ (इसी उपन्यास से)।
किताब वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है। आवरण से ही पढ़ने का आकर्षण जग जाता है, और भाषा, प्रस्तुतिकरण तथा संवादों की अल्पता के बावजूद हर वह बात मर्म तक पहुँचती है, जिसे हम उचक कर देखना तो चाहते हैं, पर उससे स्वयं को आहत करने का साहस नहीं रखते। ऐसे उपन्यास हमारी धरोहर हैं, जो मानवता में हमारे भरोसे को बनाए रखने के सिद्धांत की वकालत करते रहेंगे। 

About the author

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राजगोपाल सिंह वर्मा

“बेगम समरू का सच” नामक औपन्यासिक जीवनी का प्रकाशन. इस पर उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान, लखनऊ द्वारा ‘पं महावीर प्रसाद द्विवेदी सम्मान’ और एक लाख रु की पुरस्कार राशि प्रदत्त. पुस्तक का प्रकाशन अंग्रेजी में भी हो रहा है.
ऐतिहासिक विषयों पर कई किताबें प्रकाशित और प्रकाशनाधीन. दो कहानी संग्रह प्रकाशित.
कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार-२०१९ आयोजन में श्रेष्ठ कहानीकार घोषित.
राष्ट्रीय समाचारपत्रों, पत्रिकाओं, आकाशवाणी और डिजिटल मीडिया में हिंदी और अंग्रेजी भाषा में लेखन, प्रकाशन तथा सम्पादन का अनुभव. कविता, कहानी तथा ऐतिहासिक व अन्य विषयों पर लेखन. ब्लागिंग तथा फोटोग्राफी में भी रुचि.

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