राकेश धर द्विवेदी II
क्या सोच रही है नदी
नदी कुछ सोच रही है
कुछ मौन की भाषा बोल रही है,
देख रही है तुम्हें
इस सुंदरतम धरा को
निरावृत्त करते हुए,
देखरही है श्राद्ध करते हुए
उस श्रद्धा का जो बरसों से
तुम्हारे हृदय में था।
बाजारवाद के इस युग में
दु:शासन बन कर तुम
उसे निर्वस्त्र कर रहे,
लोक-लज्जा त्याग कर
तुम उसे अस्त-व्यस्त कर रहे
तुम्हारी इस घिनौनी हरकत से
वह नाले में तब्दील हो रही
तुम अपनी ओछी हरकतों से
उसे छल रहे और मिटा रहे
उसके अस्तित्व को खत्म कर रहे।
लेकिन सावधान!
नदी का अस्तित्व प्राणवायु है
तुम्हारे जीवन का।
उसके त्याग और संयम से
चिरायु हो तुम।
तो अब अपने चिंतन में
लाओ तुम बदलाव
मां स्वरूपा है नदी,
इसका खोया हुआ
गौरव वापस लाओ।