डॉ. सांत्वना श्रीकांत II
कुछ घटित हुआ होगा
किंतु यह परिभाषित नही
जो अंकित है पाषाण में
लिपिबद्ध भी कई ऋचाओं में
झरने से गिरती इकलौती बूँद में भी है
सागर के उफ़ान में
टापू के एकाकीपन में भी
झील के ठहराव में
पुरवाई की शीतलता में भी है
कुमुदिनी की पंखुड़ियों में भी सिमटा है
लंबे रास्ते के मोड़ में दूरदृष्टि लिए खड़ा है
शिव की विशालता में
बुद्ध के त्याग में है
तुम्हारे माथे के तेज में है
तुम्हारी मुस्कान में है
आँखों की कोर पर टिकी जीजीविषा में है
मेरे अपलक तुम्हें निहारने में है
या एक श्रोता बन वर्षों बिताने की इच्छा में है
किसी स्थान की अपूर्णता में सम्मिलित है
पूर्णता की अवधारणा में है
कली, भौरा, पतिंगा, दीपक समस्त संज्ञा-सर्वनाम में है
त्याग, तपस्या, अर्पण, एकीकृत सारे वर्गीकरण में है
अनुरक्ति, विरक्ति दोनों में है
व्यक्त है अव्यक्त है
अनिश्चतता की विकलता में
मेरी कविताओं के प्रथम अभिवादन में भी
यह प्रेम ही तो है जो तुम्हारे होने से है
(लंबे अरसे बाद लिखी एक प्रेम कविता)