अश्रुत पूर्वा संवाद II
नई दिल्ली। साहित्यकार ममता कालिया ने साहित्यिक पत्रिकाओं के संघर्ष को रेखांकित करते हुए कहा कि साहित्यिक पत्रिकाएं समर्पित लेखकों और संपादकों के श्रम से चलती हैं। यह आज से 30 साल पहले भी सच था और आज भी सच है। ये पत्रिकाएं पैसे से नहीं, साधना से निकलती हैं। जब तक इनको पसंद करने वाले पाठक हैं, तब तक ये निकलती रहेंगी। ममता कालिया साहित्य अकादेमी के पुस्तकायन कार्यक्रम में साहित्यिक पत्रिकाओं की भूमिका पर चर्चा की अध्यक्षता करते हुए बोल रही थीं।
ममता कालिया ने साहित्यिक पत्रिकाओं को लघु पत्रिकाएं बताते हुए कहा कि इसने हिंदी साहित्य में नए आंदोलन खड़े किए। हजारों पाठकों को खुद से जोड़ा। इन पत्रिकाओं का एक समर्थ इतिहास है। इस बात को सामने रखते हुए उन्होंने बताया कि रवींद्र कालिया की इलाहाबाद वाली प्रेस में कैसे लघु पत्रिकाएं छपती थीं। युवा पीढ़ी इन्हें खरीदने के लिए लालायित रहती थी।
इस अवसर पर संजय सहाय ने कहा कि साहित्यिक पत्रिका वही है, जिसमें कोई अंतर्निाहित स्वार्थ न हो। वहीं शैलेंद्र सागर ने साहित्यिक पत्रिकाओं को सोशल मीडिया से मिल रही चुनौती का उल्लेख करते हुए कहा कि अभी भी मुद्रित पत्रिकाओं का कोई बेहतर विकल्प नहीं है। शैलेंद्र सागर ने कहा कि लघु पत्रिकाओं के सामने कई चुनौतियां हैं। उन्होंने कहा कि आज के दौर में पत्रिकाओं को भेजने का डाक खर्च अधिक हो गया है। उन्होंने सरकार से आग्रह किया कि पंजीकृत पत्रिकाएं नियमित हों या अनियमित, उन्हें डाक खर्च से छूट मिलनी चाहिए। बनास जन के पल्लव ने भी इस मौके पर अपने विचार रखे।